Alka Kaushik

How travelling with mom taught me the secrets of slow travel

सीनियर सिटीज़न पेरेंट्स के संग सफर वाकई है आसान 

मैं भूल जाती हूं अपने एजेंडा, अपनी दौड़-भाग वाला पर्यटन, अपनी रफ्तार, अपनी हजारों ख्वाहिशें … मां के साथ सफर का मतलब है, मां, उनकी मंज़िल और मर्जी भी उनकी। बारिश मेरे लिए रोमांस है और उनके लिए कीचड़! पूरे एक सौ अस्सी डिग्री का फर्क होता है हमारी पसंद-नापसंद में। लेकिन जब वो साथ होती हैं सफर में तो बौछार के रोमांस को सिरे से खारिज कर देती हूं।

बुजुर्ग पेरेंट्स के साथ ट्रिप पर जाने का मन तो है मगर मंजिल सूझती नहीं। इरादा तो है मगर ठौर फाइनल नहीं हो पाता। कहीं आने-जाने की अड़चन तो कहीं उनके साथ घूमने के ठिकानों पर उनकी देखभाल, उनके रुकने-ठहरने का सही बंदोबस्त न होना अक्सर हमारे नेक इरादों पर पानी फेर देते हैं। कई बार होता है ऐसा, और मेरे साथ तो हमेशा तब-तब जबकि अपनी सत्तर बरस की मां के साथ किसी नई मंजिल पर जाती हूं। लेकिन क्या इतने भर से हम उनके साथ आना-जाना बंद कर दें या मान लें कि अब उनके घूमने के दिन पूरे हुए? आखिर अरमान तो उनके मन में भी है और हमारे भी कि उन्हें दुनिया घुमा दें, हर उस जगह पर ले जाएं जिसे देखने की इच्छा उन्होंने सालों पहले जाहिर की थी और आज तक बकाया है।

हर बुजुर्ग को सिर्फ धर्म-कर्म में रुचि हो यह भी जरूरी नहीं है। मसलन, मेरी मां को तो कतई नहीं है। उन्हें जागेश्वर उत्तराखंड का मंदिर दिखाया तो यह कहकर कि पुराना टैम्पल आर्किटैक्चर है। सालों पुराने देवदार के दरख़्तों के बीच उस मंदिर समूह को देखना उन्हें सुखद अहसास से भर गया था। इसलिए नहीं कि ज्योतिर्लिंग के दर्शन किए थे या कि महामृत्युंजय मंदिर में माथा टेका था बल्कि इसलिए कि बिनसर में हमारे रेसोर्ट से जागेश्वर मंदिरों तक का रास्ता कुदरती नज़ारों से भरा था और उत्तराखंड जैसे पहाड़ी इलाके में अपने पुरखों के अद्भुत वास्तुशिल्प को देखकर वे चकित थीं।

ट्रैवल प्लान करने से पहले उम्र की सीमाओं को समझें बखूबी

मेरे लिए हमेशा चुनौती होती है उन्हें कुछ वो दिखाने की जहां वो पहले न गई हों। और इसके बाद चुनौती होती है उनके लिए उस मंजिल पर मोबिलिटी की। यानि, आना-जाना सहज हो, सीढ़ियों, ढलानों, उंचाइयों से जितना हो सके बचा जा सके। इस लिहाज़ से मुंबई शहर उन्हें भा गया था।

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होटल से निकलते ही काली-पीली टैक्सियों की बहार थी। गेटवे आॅफ इंडिया से लेकर मरीन ड्राइव, नरीमन प्वाइंट, सीएसटी, म्युज़ियम, हैंगिंग गार्डन, बांद्रा सी-लिंक, धारावी, हाजी अली जैसे लैंडमार्क उनके लिए सुगम थे। हर होटल-रेस्टॉरेंट में आना-जाना सहज था। दिल्ली शहर के बाद मुंबई महानगर की रौनक देखना वाकई एक उपलब्धि तो था। हां, मुश्किल होता उनके लिए भीड़भाड़ को चीरना, बारिश में टैक्सी न मिलने पर दूरियों को पैदल नापना, लोकल की सवारी, बसों का सफर …. बहुत कुछ है जो उम्र बीतने के साथ मुश्किल होने लगता है। बस, इन सीमाओं को समझकर उनके लिए ठहरने, आने-जाने के इंतज़ाम कर लेने होते हैं।

स्टे और ट्रांसपोर्ट तय करना है सबसे अहम् 

होटल बुक कराते हुए अक्सर ग्राउंड फ्लोर पर कमरा बुक कराने की कोशिश रहती है। बड़े होटल खुद आपसे प्राथमिकताएं पूछते हैं, किसी वजह से अगर ग्राउंड फ्लोर पर कमरा नहीं मिल पाता तो ऐसा होटल चुनती हूं जिसमें लिफ्ट/एस्केलेटर की सुविधा जरूर हो। बस, इतना सा ख्याल और सब कुछ हो जाता है आसान।

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बसें, रेल धीरे-धीरे छूट रही हैं। तो क्या? हवाई यात्राओं में सुविधा होती है, फिर टैक्सियां उनका सफर आसान बनाती हैं। यानी, पेरेंट्स को न घुमाने का कोई बहाना नहीं चलेगा। हां, मेहनत जरूर करनी पड़ सकती है। लेकिन उनका साथ कितनी बड़ी सुरक्षा की गारंटी होता है।

सच कहूं, बीते पांच सालों में अपने स्लो ट्रैवल की कई-कई मंजिलों को मां के साथ नापा है और सुकून होता है जब वो बस्तर में चित्रकोट प्रपात का जिक्र करते हुए उसके सौंदर्य को अपनी आंखों में भर लाती हैं या बस्तर में दशहरे की रौनक देखते हुए थककर चूर हो जाने पर जगदलपुर के उस डेंटिस्ट को याद कर लेती हैं जिसके क्लीनिक से कुर्सी निकलवाकर सड़क किनारे बैठकर बाकी की रौनक देखती रही थीं। और जब मैं जगदलपुर के महल की छत से फोटू-वीडियो उतारने में मग्न थी, उन्होंने पूरे बस्तर का रहन-सहन, उसकी आदिवासी परंपरा को वहीं सड़क किनारे बैठे-बैठे देखा, महसूसा और जाना था।

अपनी रफ्तार भूलना है मुनासिब

मंहगा एयर टिकट खरीदकर किसी दूर की मंजिल पर पहुंचने का मतलब यह कतई नहीं होता कि वैकेशन में हर वक्त उन्हें दौड़ाया जाए। होटल लॉबी में बैठना, चाय-बार में वक़्त बिताना, पूल किनारे समय गुजारना या होटल के कमरे में टीवी देखना उनकी पसंद हो सकता है। और तब आप इस जिद में न पड़ जाएं कि यों ही बैठने तो यहां आए नहीं हैं। यकीन मानिए, घर से निकलकर, हवाई जहाज़ में उड़कर, टैक्सियों के सफर को पूरा कर लेना ही बूढ़ी काया के लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं होता। मैं तो अपने शहर से निकलकर दूसरे शहर के होटल में मां के पहुंचने को ही उस जड़ता (इनर्शिया) को तोड़ लेने के जश्न के तौर पर देखती हूं जो घर में रहते हुए उन्हें घेरने लगता है।

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मैं भूल जाती हूं अपने एजेंडा, अपनी दौड़-भाग वाला पर्यटन, अपनी रफ्तार, अपनी हजारों ख्वाहिशें … मां के साथ सफर का मतलब है, मां, उनकी मंज़िल और मर्जी भी उनकी। बारिश मेरे लिए रोमांस है और उनके लिए कीचड़! पूरे एक सौ अस्सी डिग्री का फर्क होता है हमारी पसंद-नापसंद में। लेकिन जब वो साथ होती हैं सफर में तो बौछार के रोमांस को सिरे से खारिज कर देती हूं।

ट्रैवल लाइट 

ट्रैवल लाइट का फंडा बहुत जरूरी होता है, क्योंकि अक्सर उनका सामान आप ही को उठाना होता है। और हां, उनकी दवाओं, डॉक्टर के प्रेस्क्रिप्शन वगैरह के साथ-साथ ढेर सारा धैर्य भी पैक कर लेना समझदारी होगा।

रेकी कर लेना होता है फायदेमंद

वैसे ट्रैवल लेखक का मेरा काम मुझे इतनी सहूलियत तो देता है एक बार खुद देखी-भाली मंजिल पर ही उन्हें ले जाती हूं। यह एक तरह से रेकी कर लेने जैसा होता है। कहां-कहां उन्हें घुमा सकती हूं, क्या कुछ दिखा सकती हूं, कहां ठहरेंगे, कहां जाएंगे और कहां नहीं जा सकते …. ऐसे तमाम पहलुओं पर एक बार गौर कर लेती हूं तो सफर आसान हो जाता है।

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हाल-फिलहाल उनके लिए एक नई मंजिल चुनी है, पहली बार उनके मन में हल्का-सा झुकाव देखा है धार्मिक स्थलों को लेकर। पिछले सफर में पहली बार वे जिद करके ले गईं थीं एक मंदिर। लिहाजा, अब उन्हें एक पूरा spiritual package  देने का इरादा है। ज़रा अंदाज़ लगाएं क्या हो सकती है वो मंजिल जहां उन्हें अध्यात्मिक खुराक तो मिले मगर भीड़ नहीं, देवी-देवताओं के दर्शन तो हों मगर इसमें उनकी परेड न हो।

..सरयू तट पर बसी अयोध्या नगरी। अपने ताज़ा सफर में रेकी कर आयी हूं, सब तय है .. सरयू का किनारा होगा,  Tornos  के संग मोक्षदायिनी वॉक होगी, जो दूरी वो नाप सकेंगी पैर से उसके बाद हर कदम पर साथ चलती कार होगी। शहर की परिक्रमा से लेकर मंदिरों, नदी घाटों, तटों तक की सैर 

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P.S. – Mokshadayini walk in Ayodhya is recommended by Lonely Planet