मैं बहुत दिनों बाद इतरायी थी उस रोज़ ..
क्या आपको घर के सपने आते हैं? मुझे अक्सर आते हैं, पुराने—पुराने घरों के, बहुत पुराने, नामालूम वो कबकी यादें होती हैं जो सपनों में घुसपैठ कर जाती हैं और फिर मुझे उन घरों में ले जाती हैं जिन्हें चेतन कभी का भुला चुका होता है। घरों को लेकर ये जो अजीब—सा घमासान रहता है उसी ने मुझे इस बार रानीखेत से करीब छह किलोमीटर दूर एक घाटी में उतरती इस पगडंडी पर पहुंचा दिया।
काफल और बेड़ू के पेड़ों से घिरी यह छायादार राह एकदम किसी रूमानी सफर की तरह थी
और कई मोड़ उतरने, पसीने की बूंदों के माथे पर उभर आने जैसी ‘परीक्षा’ से गुजरने के बाद वो पहला दृश्य दिखा जिसके लिए अपने शहरी घर से यहां करीब पौने—चार सौ किलोमीटर का फासला तय करने के बाद पहुंची थी।
गांव में सोलर पैनल पहुंच गए हैं, सड़क भी गांव में पहुंचाने की तैयारी हो गई है … काश ये सब ज़रा पहले हो गया होता, तो उत्तराखंड के पहाड़ी ढलान आज सुनसान नहीं पड़े होते!
और ये रहा वो ‘घर’ जिसके किस्से सुनते—सुनते बड़ी हुई हूं .. मां—पिताजी से सुना था कि दादाजी ने अपने रिटायरमेंट की पूरी निधि से एक बड़ा घर बनवाया है पहाड़ में, शायद पहाड़ छोड़कर जाना होगा ऐसा ख्याल भी उन्हें नहीं आया था तब तक!
मैंने इससे पहले ऐसे ‘घर’ भूटान में देखे थे, वो राजसी निवास थे, और अब ठीक वैसी ही एक इमारत सामने थी, जिसे ‘अपना’ कह सकती थी, यादों के रस से सराबोर ..
भीतर आने के लिए आमंत्रित करती सीढ़ियां .. और शहरी घरों से तुलना करनी ही पड़ी ..बंद दरवाजों, सीलबंद खिड़कियों, ढकी बालकनियों और उतने ही बंद दिलों—दिमागों वाले शहरी लोगों के शहरी घर, उफ्फ कैसी घुटन का अहसास कराते हैं वो घर। और एक ये है, खुली बांहों से जल्दी से अंदर आने को न्योत रहा घर …. मेरे दादाजी का घर!
दादाजी की रूह उस रोज़ मैंने अपने आसपास महसूस की थी, वो ही जैसे मुझे दिखा रहे थे कि उनके घर के आंगन से हिमालय का कैसा नज़ारा दिखता है। मैं बहुत दिनों बाद इतरायी थी उस रोज़ ..
शहरों की अजनबीयत मुझे बहुत परेशान करती है। और ये देखों यहां हर दूसरा आपका अपना होता है, इन आमा ने मिलते ही गले लगाया और मालूम कौन—सा तोहफा दिया, वो बुआ थीं मेरी … वाह, कितने अरसे बाद यह कहने—सुनने का सौभाग्य हाथ आया था!
और ये दादी का मंदिर का आला ….
ये रहीं दादी की कन्टेम्परेरी, एक और दादी! गांव में हर कोई आपका अपना होता है, न!
पिताजी की चाची हैं ये, नब्बे बरस पार कर चुकी हैं, उनकी यादों का बक्सा अब घरघराने लगा है, हां कोई पुराना तार छेड़ दे तो सारी परत फिर—फिर खुल जाती है। मेरा आना ऐसा ही एक वाकया था। वो फिर बीते दौर में पहुंच गई थीं, जहां पिताजी की धमाचौकड़ी थी, पेड़ों से आड़ू—गलगल तोड़ने की शरारतें थीं, और फिर गांव से एक—एक कर लोगों का निकलना था, ‘जल्द लौटूंगा’ जैसे झूठे वायदों का शोर था, कभी न लौटने का सूनापन था …
कहते हैं घरों के भी अहसास होते हैं, वो भी इंतज़ार करते हैं .. जैसे ये सीढ़ियां मेरे उस घर की, पता नहीं कबसे यों ही इंतज़ार में हैं
घर को अलविदा कहने की घड़ी थी, भारी मन से वो भी किया ..
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