सावन की अलबेली गलियां
जेठ का महीना लगते ही हमने उस साल अरब सागर से उठती मानसूनी भाप को मुट्ठियों में जमा करने का इंतज़ाम कर लिया था। अल्टीन्हो का सरकारी गैस्ट हाउस एक हफ्ते के लिए हमारा था। मडगांव से पंजिम तक के सफर की वो रात कोई साधारण रात नहीं थी। बादल जैसे नीचे उतरकर हमारी टैक्सी की छत छू रहे थे और गोवा की हर शय झमाझम बरसात के आगोश में थी। यह तूफानी मानसून से हमारी पहली वाकफियत थी और उस रोज़ हम चुपचाप अपनी गाड़ी के शीशों पर से बहती धाराओं को देखते रहे, लगा कुछ बोले तो शायद बोल भी भीग जाएंगे! यों तो पश्चिमी घाट की घाटियों, जंगलों, सुरंगों और पहाड़ियों से दिन भर गुजरती चली हमारी रेल भी सरे राह सावन में भीगी थी लेकिन रात का वो समां और बादलों का षडयंत्र अलबेला था। आज तलक याद है तो वही बारिश और रेतीले तटों की महक से सराबोर उसकी बूंदे जिनमें कैद कर आए थे हम जिंदगी के कुछ बेहद खास लम्हे।
मानसून में केरल ‘हॉट’ डेस्टिनेशन बनकर बीते दशक में सैलानियों के दिलों-दिमाग और जुबान पर छाया रहा तो गोवा भी कहां पीछे रहता। फिर पूर्वोत्तर में तो बादलों का घर है मेघालय और राजधानी शिलॉन्ग से लेकर चेरापूंजी जैसे ठिकाने बारिश पकड़ने वालों की मंजिल बनते रहे हैं। मुंबई में बरसते बादलों की चर्चाएं कभी दिल जलाया करती थी तो कभी मध्य प्रदेश के मांडू में सावन की धमक खास बन गई थी। महाराष्ट्र के माथेरन, खंडाला, पंचगनी, लोनावला, महाबलेश्वर के ठिकानों से लेकर केरल के वायनाड, अलिप्पी, कोवलम तट तक को मानसूनी मंजिलों का खिताब मिल चुका है। हर साल कुछ नए नाम मानसून गेटअवेज़ के खाते में जमा होने लगे हैं। ठिकाने बढ़ते रहे, मिजाज़ भी खास बनते रहे और पर्यटन को एक नया अंदाज़ मिल गया “मानसून टूरिज़्म” के बहाने।
इस बार उत्तर का मैदानी इलाका जब जेठ में कराह उठा, जब आसमान में बादल का एक नन्हा टुकड़ा भी तैरता नहीं दिखा तब मन को बहलाने की खातिर हमने मानसून में दिल को करार दिलाने का वायदा खुद से चुपचाप किया। अब चुनौती थी उन मंजिलों को तलाशने की जो पारंपरिक ठिकानों से अलहदा हों, जो सैलानियों के जत्थों से दहली न हों, जहां होटलों-रेसोर्ट माफियाओं की नज़र न पड़ी हो और जो हमें कुछ दिन अपने आप से मिलने का मौका दें। पश्चिमी घाट से घिरे महाराष्ट्र में कुछ ऐसे ही नाम हमारे ज़ेहन में दर्ज होते रहे।
महाराष्ट्र में वाइ, लोनार लेक, रायगढ़, अंबोली हिल स्टेशन, गगनबावड़ा हिल स्टेशन (कोल्हापुर) , ताम्हिणी घाट कुछ वो जगहें हैं जो सुनने में रोमांटिक बेशक न लगें लेकिन मानसून के ‘वर्जिन ठिकानों’ के तौर पर खास हैं। ये अलग हैं, दिलचस्प हैं, और फिर नज़दीकी शहरों से डेढ़ सौ—दो सौ किलोमीटर की दूरी पर खड़ी होने की वजह से शहरी भांय-भांय से भी अलग हैं। ज्यादातर तक पहुंचने के लिए सर्पीली, पहाड़ी सड़कें हैं जो कहीं घाट तो कहीं कोंकण तट की खूबसूरती से घिरी हैं। इन तक पहुंचना भी आसान है, मुंबई—पुणे—नासिक जैसे नज़दीकी बड़े ठिकानों से सड़क मार्ग या ट्रेन का सफर काफी है। अगर कुछ मुश्किल है तो इन नामों को जानना, इन्हें देखने जाने का साहस करना (जी हां, गोवा की बजाय मालशेज घाट चुनने का फैसला आसान नहीं होता) और एक बार आपने यह कर लिया तो समझो बारिश को एक नए अंदाज़ में महसूस कर सकोगे।
हमारा अगला पड़ाव था भंडारदरा। ज़रा अंदाज़ लगाएं कहां हो सकता है? और ऐसा क्या खास होगा यहां जो महाराष्ट्र टूरिज़्म डेवलपमेंट कार्पोरेशन (एमटीडीसी) इस गुमनाम से ठिकाने को प्रमोट कर रहा है। यहां अंधेरे में जुगनुओं की महफिल सजती है, एक जुगनू उत्सव (Firefly festival) आयोजित हो रहा दो सालों से … हम चले थे उसी का हिस्सा बनने।
जुगनू उत्सव यानी “काज़वा उत्सव” का हिस्सा बनना दरअसल, नेचर ट्रेल से गुजरना है। मानसून में भीगी ज़मीन पर झील के किनारे कीचड़ भरे रास्तों से होते हुए जब जुगनुओं के बदन रोशनी की हूर परी से लगते हैं तो यकीन मानिए, आप किसी दूसरे जहां में होने के अहसास से खुद को सराबोर पाते हैं।
कब जाएं – महाराष्ट्र के इस पहाड़ी स्थल पर जुगनुओं के करतब मई से जुलाई के पहले हफ्ते तक यानि बरसात से ठीक पहले तक देखे जा सकते हैं। इधर पानी गिरा और उधर जुगनुओं की शामत आयी। यानि, मानसूनी बादलों के घिरने के बाद जुगनुओं का संसार सिमट जाता है।
कैसे पहुंचे –अहमदनगर जिले की अकोले तहसील में भंडारदरा पहुंचने के लिए मुंबई और नासिक से सड़क का सफर आसान है। इन दोनों शहरों में हवाईअड्डे हैं, और इगतपुरी रेलवे स्टेशन सबसे नज़दीक है। मुंबई, पुणे, नासिक से सड़क मार्ग से भी भंडारदरा तक पहुंचा जा सकता है।
दूरी – मुंबई तथा पुणे से लगभग 185 किलोमीटर
ओडिशा से बहकर छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में पहुंचने पर इंद्रावती नदी देश का सबसे बड़ा जल प्रपात चित्रकोट बनाती है। हॉर्स शू शेप का यह प्रपात मानसून में नदी का जल स्तर बढ़ने के बाद अद्भुत रूप-सौंदर्य ले लेता है। और इसी बस्तर के जंगल अमेजन के सदाबहार जंगलों जैसे घने तथा विविधता से भरपूर हैं। रायपुर से जगदलपुर की ओर बढ़ने पर आप यह सोचकर हैरानी में पड़ सकते हैं शहरी घमासान के बीच ऐसे कुदरती नज़ारों का भी वजूद भी हो सकता है।
कभी-कभी लगता है न कि दहाड़ते मानसूनी झरने, किसी बांध के सिरे तुड़ाकर भाग निकलने को आतुर पानी, उनके पीछे खड़े पहाड़ और पहाड़ों पर सीना तानकर जमा हुई हरियाली सिर्फ फिल्मों में ही दिख सकती है या किसी कवि की कल्पना हो सकती है। लेकिन सच पूछो तो झारखंड में भी पहाड़ियों के साए में फैले कई हिस्सों में आपको सच में कुदरत के ऐसे नज़ारे दिख जाते हैं।
झारखंड के झरनों की शोखी देखनी हो तो मानसूनी महीनों में पूरब का रुख करें। हैरानगी तो होगी कि जो ज़मीन कोयला खदानों, खनिजों, उद्योगों और खनन जैसे रूखे-सूखे कर्मों के लिए जानी जाती है वही मानसून में बेहद रूमानी भी हो जाती है। बस निगाहें उस तरफ नहीं पहुंची, कुछ कदमों की आमादरफ्त कम रही और कुछ पर्यटन एजेंसियों की नाकामियां जो झारखंड को घुमक्कड़ी की फेहरिस्त में जगह नहीं दिला पायी। जो काम पर्यटन के दफ्तर नहीं कर पाए वो अब इंटरनेट ने आसान कर दिए हैं। सोशल मीडिया पर नेतरहाट की तस्वीरें सुदूर कैलीफोर्निया में एमबीए के छात्रों को अब धीमे से यह बता जाती हैं कि हिंदुस्तान में मानसूनी मंजिलों के और भी कई पते हैं। रांची से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर खड़ी इस मानसूनी डेस्टिनेशन पर सूरज के उगने-डूबने का रोमांस इतना खास होता है कि अब फिल्ममेकर भी इधर मुड़ने लगे हैं।
कैसे जाएं : रांची एयरपोर्ट के अलावा रांची तक देश के अनेक भागों से रेल संपर्क कायम है।
कब जाएं : मानसूनी महीनों में
दूरी – रांची से करीब 150 किलोमीटर दूर
यों तो बारिश बरसती है मराठवाड़ा से विजयवाड़ा तक, हैदराबाद से कुर्ग तक और जम्मू से दिल्ली—भोपाल—झांसी—अलवर तलक, मगर हर नाम रोमांस नहीं जगाता, हर मंजिल सावन में नहीं बुलाती। सावन में सफर का इरादा करें तो ज़रा सोच-समझकर, जाएं वहां जहां सड़कें घंसकर कई-कई दिनों के लिए रूट बंद नहीं कर देतीं, जहां लैंडस्लाइड पर्यटन पर ग्रहण नहीं लगातीं, जहां होटल-रेसोर्ट में सर्विस मिलती रहे ताकि आपकी घुमक्कड़ी को भी सहारा बना रहे।