चार धाम यात्रा — पुरखों की ज़मीन पर अध्यात्म के सबक
पहाड़ मुझे जब-तब बुलाते हैं और उनकी पुकार को अनुसना करना जब नामुमकिन हो जाता है तो मैं अपने पुरखों की ज़मीन की तरफ चल देती हूं। जाने क्यों मुझे हमेशा महसूस होता है कि वो आवाज़ किसी उस पुरखे ने लगायी है जिनकी सोहबत में मैं बेशक नहीं रही लेकिन तो भी मेरे अवचेदन में, उनकी स्मृतियों का एक संसार बसता है। और वाकई उत्तरांचल की ढलानों पर, हिमालयी साए में पहुंचकर मैं सुकून पाती हूं।
अजब संयोग देखिए कि जिसे अपना असल ‘घर’ कहती हूं उसी राज्य में अब तक सिर्फ सैलानी की तरह आती रही हूं। सैर-सपाटा, ट्रैकिंग, एडवेंचर स्पोर्ट्स और कभी ट्रैवल टॉक के बहाने या रिश्तेदारियां निभाने। लेकिन कहीं कुछ छूट रहा था, और वो था अपने देवी-देवताओं की शरण में पहुंचने, आध्यात्मिक ऊर्जा बटोरने का अनुभव। वजह वाजिब थी। मां को साथ लाना था, उनकी बुजुर्ग काया को कम से कम तकलीफ देनी थी और अपनी हिंदू आस्था के मुताबिक उन्हें चार-धाम यात्रा करानी थी।
बड़े-बूढ़े कितने ही एडजस्टिंग हों लेकिन उनके शरीर की एक सीमा होती है और उनके साथ सफर के मायने हैं उन सीमाओं के भीतर रहकर यात्रा की प्लानिंग। शायद, इसी चुनौती के चलते मेरी चार-धाम यात्रा अब तक टलती आ रही थी।
इन पहाड़ी रास्तों पर चाहिए एक सुकून भरी सवारी।
फिर एक रोज़ इंटरनेट पर तफरीह करते हुए cab booking का पन्ना खुल गया और जाने क्या सोचकर मेरी उंगलियों ने दिल्ली से बदरीनाथ तक के सफर के लिए टैक्सी की खोजबीन चालू कर दी। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा था क्योंकि मेरे हाथ सिर्फ एक नहीं बल्कि उत्तराखंड स्थित चारों धामों की यात्रा का सूत्र लग चुका था। और बस कुछ ही मिनटों में मैं शॉफर ड्रिवन बुक करवा चुकी थी।
मुझे भागमभाग कतई पसंद नहीं है, लिहाज़ा पहले दिन दिल्ली से हरिद्वार तक का सफर कर हमने शाम वहीं ठहरने का फैसला किया था। मां को भी यही चाहिए था। शाम को हर की पौड़ी से गंगा मां के पहले दर्शन और फिर आरती के साथ आगे की आध्यात्मिक यात्रा की सुर-ताल तय हो गई थी।
Confluence of Alaknanda and Bhagirathi at Devprayag, one of the Panch Prayags between Hardwar and Badrinath
अगले दिन हमने सवेरे 6 बजे हरिद्वार से आगे के सफर की तैयारी कर ली थी। दरअसल, शाम का अंधेरा घिरने से पहले मैं अगली मंजिल यानी जोशीमठ पहुंच जाना चाहती थी। पूरे दस घंटे का सफर तय कर जोशीमठ आ लगी थी हमारी डिज़ायर। गढ़वाल मंडल विकास निगम लिमिटेड (GMVN) के टूरिस्ट रेस्ट हाउस में उस रात पनाह ली हमने।
अगली सुबह से शुरू हो गया था रोमांच का सफर। हम बदरीनाथ धाम के दर्शन के लिए निकल पड़े थे। जोशीमठ से बदरीनाथ धाम तक करीब 40 किलोमीटर का यह रास्ता कुदरती नज़ारों से भरपूर है मगर इसके तीखे पहाड़ी मोड़ों को काटने के लिए एक्सपर्ट ड्राइवर जरूरी है। इसलिए हमेशा कार बुकिंग करवाते समय गारंटीशुदा पोर्टल/एजेंसी की सेवाएं लें और निश्चिचंत होकर चार धाम यात्रा पर निकलें।
पहाड़ी रास्तों पर बढ़ती हमारी कार और हर मोड़ पर हिमालय की अनगिनत बर्फीली चोटियां। ब्रह्मकमल से लेकर हाथी और घोड़ी पर्वत तक तो किसी चोटी की ओट में से झांकते शर्मीले कामेट की एक नन्ही सी फुनगी। और किसी श्रृंखला के पीछे छिपा बैठा नीलकंठ।
मंदिर के जो कपाट बीते छह महीने से बंद थे उन्हें खुले अभी दो रोज़ ही हुए थे। मंदिर के गर्भ-गृह में विराजमान भगवान बदरीनाथ की यौगिक मुद्रा में स्थित प्रतिमा के साक्षात् दर्शन कर हम भाव-विह्वल हुए जा रहे थे।
मैं इस यात्रा में किसी किस्म का घालमेल नहीं चाहती थी, चारधाम यात्रा को विशुद्ध आध्यात्मिक रखना चाहती थी। आध्यात्मिक यात्रा के बहाने मुझे प्रकृति के साथ संवाद करने का जो मौका मिला था उसे गंवाना नहीं चाहती थी। लिहाजा, बदरीनाथ से जोशीमठ लौटकर हम अगले दिन यमुनोत्री और फिर गंगोत्री, केदारनाथ के लिए रवाना हो गए। बीच की दूरियां सिर्फ उस असीम, अनंत, अनादि के साथ जुड़ने के लिए रख छोड़ी थीं। न कहीं भागने-दौड़ने का दबाव, न किसी से मिलने-जुलने की ख्वाहिशें।
मां के साथ ने मुझे ‘स्लो टूरिज़्म’ का फलसफा खूब समझा दिया है, उस पर एक सुकूनभरी सवारी और प्रोफेशनल ड्राइवर के साथ होने से मैं हिमालय में उन पावन स्थलों तक फुर्सत में पहुंचने का आनंद ले रही थी जो बीते करीब एक दशक से मुझसे दूर बने हुए थे। लेकिन इस दफे शायद बुलावा उन पावन स्थलों से भी आया था।
मैं पूरे दस दिनों तक हिमालयी साए में थी, उस पर प्रकृति और मां का साथ, और जीने को क्या चाहिए ….