Are you looking for cultural journeys into the heart of India? Come along, on a #MangoTrail to Shahjahanpur in Uttar Pradesh.
हिंदुस्तान की गर्मियां कितनी ही जालिम सही, मगर ऐसे नज़ारों से गुलज़ार रहती हैं। दिल को राहत देती हैं न हाइवे किनारे सजी आम की बस्तियां और बाग—बगीचे। चौसा, केसर, गुलाबजामुन, तोतापुरी, गोला, जहांगीर, फज़ली, अल्फोंसो, बनारसी, दशहरी से लेकर हरामज़ादा आम की ढेरों किस्में कहते हैं। और अखिलेश से लेकर मोदी आम तक मशहूर है। कहते हैं,आम की करीब 1400 किस्में मौजूद हैं और उतने ही आमों के किस्से हैं जो को भी लुभा सकते हैं।
आज चलते हैं आम के बागानों में, जहां नवाबों की दुनिया में इन आमों से, और आम बागानों की सरहद पर खड़े जामुनों के दरख्तों से रौनक-बहार रहती है। आम की मिठास को बैलेंस करने के लिए आमों के बागानों के किनारे जामुन उगाया जाता है। बगीचों की रखवाली, देखभाल से लेकर मंडियों में आम पहुंचाने की कवायद तक का एक सफर है जो सुनने में कितना ही आसान लगे, मगर सचमुच की ज़मीन पर मुश्किलों से भरा होता है। आइये चलते हैं मैंगो ट्रेल पर, और जानते हैं आम के उन पहलुओं को जिनसे हम अमूमन अनजान रहते हैं।
“मैंगो ट्रेल” – आम की दीवानगी का सफर
यों तो आम पर पूरे देश का अख़्तियार है, दक्षिण से पूरब-पश्चिम तक, मध्य भारत से लेकर सुदूर तराई के इलाके ‘मैंगो बैल्ट’ के नाम से मशहूर हैं, लेकिन क्या कीजिए अगर आप देश की राजधानी या उसके आसपास हैं? बागपत के रटोल में खड़े बागानों में चले आइये, उसी ऐतिहासिक रटोल आम के दरख्तों से मिल आइये जिसके किस्से गंगा किनारे से होते हुए लाहौर-इस्लामाबाद तक जा पहुंचे हैं। गढ़मुक्तेश्वर, मुरादाबाद, रामपुर, बरेली तक फर्राटा दौड़ते हाइवे पर ज़रा ठहरिए और सड़क के दोनों ओर खड़े बगीचों से गुफ्तगू कर आइये।
गाजियाबाद-मुरादाबाद होते हुए मेरठ के किठोर कस्बे की तरफ बढ़ जाइये। यहां शाहजहांपुर में खड़ी नवाबों की हवेलियां और उनके गिर्द पसरे बागानों में ‘मैंगो हेरिटेज’ से रूबरू होने का ख्याल कैसा रहेगा?
बीती जुलाई में जब दिल्ली में गर्मी का मौसम शबाब पर था और अरब सागर से उठी मानसूनी हवाओं ने हमारे शहर की ओर बढ़ना शुरू किया भर था, जब बाजारों से सफेदा, दशहरी, सिंदूरी, केसर विदाई ले रहे थे और तोतापुरी, चौसा की खनक देखते ही बनती थी, तो हम हिंदुस्तान की सांस्कृतिक धरोहरों की ‘इंटरप्रेटर’ डॉ नवीना जाफा की ‘मैंगो ट्रेल’ का हिस्सा बने थे।
नवीना की कहानियों में आम हिंदुस्तान के किसी कोने में मिला वो 4000 साल पुराना जीवाश्म (फॉसिल) था जिसके दम पर यह साबित हो चुका है कि हिंदुस्तान ही आम की जन्मस्थली रहा है, तो किसी पल यह फल बनारस घराने की कजरी, झूला और श्रृंगार-रस की मोहकता से जुड़ जाता है। मैंगो ट्रेल के बहाने कामदेव की लीला, शिव-पार्वती मिलन, हिंदुस्तानी कला में आम के बूटों से लेकर अम्बियों के नमूनों (मोटिफ) की बहार, आमों के इतिहास और उनसे जुड़े सैंकड़ों किस्से-कहानियों को सुनना हैरत में डालता रहा था।
मैंगो ट्रेल के बहाने
पेड़ों पर झूलते आम जब ललचाने लगे तो नवाबी हवेलियों के आंगन में बिछी चारपाइयों पर पसर जाइये। आम के दीदार के बाद उन पर ‘टूट पड़ना’ तो बनता है!
जी-भरकर आम का लुत्फ लीजिए और इस बीच विद्यापति के गीतों पर नवीना के अभिनय और नृत्य से भी तो आमरस टपकता रहेगा। आम की विरासत का एक हिस्सा उन गीतों और पदों में छिपा है जिन्हें यह मैंगो ट्रेल बखूबी ‘डिकोड’ करती है। गर्मी की दुपहरिया में हुक्का गुड़गुड़ाते नवाबों की मुंहजुबानी उनके अफगानी पुरखों के अमर आम प्रेम के किस्से, लखनऊ नवाब वाजिद अली शाह की आम की महफिलें, मुगल बादशाहों की आम की दीवानगी से जुड़ी दिलफरेब कहानियां आपको भी दीवाना बना देगी।
कहां से आया ‘आम’ का नाम
सांस्कृतिक गलियारों में झांकने पर पता चलता है कि संस्कृत का आम्र–फल तमिल में आमके और फिर बिगड़कर मामके हो गया। केरल में यह मांगा कहलाया और मालाबार तट पर पुर्तगाली जब फलों के इस बादशाह के मुरीद बने तो इसे ‘मैंगो‘ नाम दिया। पुर्तगाली सौदागरों की नौकाओं पर सवार हो आम की कलम और ग्राफ्टिंग तकनीक लिस्बन होते हुए अमरीका, यूरोप, आस्ट्रेलिया तक जा पहुंची। फिर तो दुनियाभर में आम अपने नए नाम ‘मैंगो’ के रूप में मशहूर हुआ। इस तरह, हिंदुस्तान ने पूरी दुनिया को आम के रूप में एक नायाब तोहफा दिया। बेशक, आम आज दुनिया के कई हिस्सों में उगता है लेकिन हिंदुस्तान की आबो-हवा में उगने वाले आम की बात ही कुछ और है।
मैंगो ट्रेल की छोटी-सी झलक के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए –
Mango trail in Shahjahanabad, UP
साहित्य में आम
‘नीले आमों वाला घर’ (House of blue mangoes) में ‘नीलम’ आम को सर्वश्रेष्ठ आम घोषित करने के लिए डेविड डेविडार के किरदार ‘महान आम यात्रा’ पर निकल पड़े थे। दक्षिण की फल मंडियों में आम की मशहूर किस्मों जैसे जहांगीरी, आंध्र के बैंगनापल्ली, दुर्लभ हिमायुद्दीन का स्वाद चखने के बाद मदुरै के बाजारों में बिकने वाले क्रिकेट की गेंद जैसे गोल-गोल रूमानीआमों के स्वाद से मंत्रमुग्ध हुए थे। आमों को टटोलने के इस सफर में भारी-भरकम मलगौस, जिसका वज़न कम-से-कम तीन किलोग्राम था और बेहद मंहगे चेरूकुरसम आम को चखने से नहीं चूके थे वो किरदार। यात्रा का अगला पड़ाव पश्चिम भारत बना क्योंकि तब तक वहां विश्वप्रसिद्ध अल्फोंसो का सीज़न शुरू हो चुका था। अल्फोंसो के गढ़ रत्नागिरी की बजाय अगली मंजिल मुंबई के क्रॉफर्ड बाज़ार को चुना गया जिसमें कदम रखते हुए आम के दर्शन से पहले ही उसकी सुगंध से सराबोर हवा ने उनके नथुनों में हलचल मचा दी थी।! और जिंदगी में पहले अल्फोंसो को चखते हुए डेनियल को समझ में आ चुका था कि आखिर क्यों पूरी दुनिया इस आम की दीवानी है। फिर एक शानदार किस्म पैरी के रस से गला तर करने के बाद ‘ग्रेट मैंगो ट्रेल’ ने पूरब का रुख किया था। रेशेदार मालदा से वाकिफ होने के बाद उन्होंने मुर्शिदाबाद में आम उत्सव में शिरकत की और गुलाब के स्वादवाली किस्म गुलाबखास का लुत्फ लिया।
इस पूरे सफर में आम की मिठास उनकी जीभ पर तैरती रही और इस हसीन फल के किस्सों ने उनकी यादों में घुसपैठ शुरू कर दी थी। उत्तर में मलिहाबादी दशहरी चखते हुए उन्होंने जाना कि आम की सबसे उम्दा किस्म का उसका दावा कमज़ोर था क्योंकि ऐसे भी लोग थे तो जिस सिंहासन पर बनारसी लंगड़े को बैठाते थे। काशी के एक लंगड़े फकीर ने इस किस्म को उगाया था, और तभी से इसका नाम लंगड़ा पड़ गया। हल्के हरे रंग वाले इस आम के जिस्म पर गाढ़ा पीला गूदा अपनी गाढ़ी मिठास से किसी को भी दीवाना बना सकता है।
साहित्य में आम रस टपकता रहा है। पुराणों से लेकर माघ, भारवि के काव्य में, संस्कृत ग्रंथों में, मिर्ज़ा गालिब के किस्सों में, अल्लाना इकबाल की शायरी में, नागार्जुन के उपन्यास में भी आम अक्सर खास बनकर टंगा रहा है। संस्कृत में इसे ठीक ही मधु-दूत (वसंत का दूत), काम-वल्लभ (कामदेव का प्रिय या प्रेमी), कामांग (कामदेव का सहयोगी) कहा गया है। आम की फुनगियों पर मंजरियों का जमघट वसंत को जैसे न्योता देता है। उस आमंत्रण को सुनकर वसंत की देवियां यानी मधुमक्खियां खुद-ब-खुद चली आती हैं। कहते हैं वसंत में खिले सैंकड़ों फूलों में से मधुमक्खियों को आम पर लदा बौर ही सबसे ज्यादा लुभाता है। इस बीच, कोयल की कूक से अमराइयों की रौनकें चौगुनी हो जाती हैं। और आम की डालों पर मटकती-कूदती कोयल भी तो आमरस चूसकर मदहोश होने लगती है।
आमरस का जिक्र आया तो याद आया कि बागान से अलविदा कहते हुए नवाब साहब ने आम की पेटियां थमायी थीं। पसीने से तरबतर हमारे जिस्म थे और उस पर मेहमाननवाज़ी की गर्मजोशी से भरी वो पेटियां! हम अपनी किस्मत पर इतराए थे। घर लौटकर आमरस से आमपापड़ बनाने की मुहिम कुछ यों रंग लायी थी –
आम और कोयल का रिश्ता उस ‘मद’ को बखूबी जताता है जो वसंत के मौसम में हर तरफ सुगंधी बनकर फैला होता है। आम्र-मंजरियों को कामदेव का पांचवां बाण यों ही नहीं कहा गया! इस मौसम के उल्लास में आमों की महक, रस, स्वाद, रंग, रूप, आकार की साजिशें किससे छिपी हैं!
कल्चरल इंटरप्रेटर डॉ नवीना जाफा की मैंगो ट्रेल हर साल गर्मियों में उत्तर प्रदेश के आम बागानों की सैर कराती है।