सरधना – शेरदिल बेगम की रियासत में एक दिन
गुज़रे वक़्त के रोमांस और रोमांच से बचा जा सकता है क्या? आपकी राहेगुज़र दिल्ली से यही कोई 100 किलोमीटर दूर सरधना हो तो यकीनन आपका जवाब नहीं ही होगा! चांदनी चौक के बाज़ार-ए-हुस्न में ठुमकती कश्मीरी फरज़ाना से जंग के मैदानों में हुंकार भरती बेगम समरू तक का सफर इस मिल्कियत के चप्पे-चप्पे पर आज भी दर्ज है।
यह अलग बात है कि बेगम के तुर्की हम्माम का रास्ता अब सेंट चाल् र्स ब्वॉयज़ स्कूल के एग्ज़ामिनेशन हॉल से होकर गुजरता है!
अलबत्ता, इन गुसलखानों की खिड़कियों पर रंगीन कांच और दीवारों पर जड़े शीशों की दमक अब तक बरकरार है, ठीक उसी तरह जैसे बेगम समरू के किस्से और नाम सरधना की हर जुबान पर कायम है।
रानी साहिबा के नए महल को, जिसमें उन्होंने जिंदगी के आखिरी दो बरस गुजारे थे, स्कूल में तब्दील कर दिया गया है।
इतिहास और राजे-रजवाड़ों के दौर में दिलचस्पी हो, एक दिलफरेब बेगम की हस्ती को समझने का मन हो या खुद को यकीन दिलाना हो कि उत्तर प्रदेश का एक ऊंघता कस्बा कभी शेरदिल हुक्ममरान की कर्मस्थली था, तो सरधना की रियासत के सफर पर निकल जाइये। विरासतों के शहर दिल्ली से एक हाइवे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एनएच44 से होते हुए उत्तराखंड को दौड़ता है, बस उसके हो लीजिए। गाजियाबाद-मुरादगर-मोदीनगर के बेनूर मकानों-दुकानों और थकेहाल इमारतों के उस पार सरधना बसा है।
खामोशियों के साए में
सरधना का ऐतिहासिक कस्बा आपकी तरफ बहुत कुछ उछालता है, आपको बस हौले-हौले उसे जज़्ब करना होता है। औपनिवेशिक दौर की विरासतों से मिलवाता यह कस्बा अपने सीने में उत्तर भारत के सबसे बड़े चर्च बेसिलिका आॅफ आवर लेडी आॅफ ग्रेसेज़ को शान से समेटे है। बेगम समरू ने उम्दा कारीगरी और बेहतरीन सामग्री से इसे बनवाया था। बेगम की सेना में एक इतालवी अफसर एंटोनियो रेगेलिनी चर्च के आर्किटैक्ट थे और बेहद नफासत से उन्होंने इस विशाल गिरिजे को बनाया। 18 खंभों पर टिका चर्च का बरामदा, इसके तीन गुंबज और उनके पीछे से उठती आसमान चूमती दो मीनारों वाली इस भव्य इमारत का वास्तुशिल्प रोमन और मुगलाई शैलियों का मोहक मेल है।
गिरिजे में कदम रखते ही चुप्पियों का एक संसार आपके साथ चल पड़ता है।
चर्च में प्रभु यीशू, मदर मेरी और बेगम समरू के बुत आकर्षित करती है तो वेदी के पत्थरों की नक्काशी ताजमहल के संगमरमरी बदन की याद दिलाती है। जब आसमान में चमकता सूरज इस गिरिजे के रोशनदानों से झांकता है तो मंच पर विराजी मूर्तियों की रौनक देखते ही बनती है।
दायीं तरफ है वो 18 फुटा मंच जिस पर हुक्का गुड़गुड़ाती बेगम समरू की रौबीली छवि बिन बोले बहुत कुछ कह जाती है। इन्हें बेगम के वारिस डेविड आक्टरलोनी डाइस सोम्ब्रे ने इटली में बनवाया था। इटली के मूर्तिशिल्पी अदामो तादोलीनी ने उन संगमरमी बुतों को नफासत से गढ़ा था जिनसे बेगम की जिंदगी और उनके जीने का अंदाज़ बखूबी झलकता है। मंच पर आसीन बेगम के हाथ में उनकी रियासत की सनद है और वे अपने हिंदुस्तानी और यूरोपीय दरबारियों से घिरी हैं। एक मूर्ति जो हैरत में डालती है वो है बेगम समरू के दीवान राय सिंह की जो पं. नेहरू के परनाना थे। बेगम का मुस्लिम पहनावा भी कम आश्चर्यचकित नहीं करता और आप सोचते रह जाते हैं कि ईसाइयत अपना चुकी बेगम का जीने का रंग-ढंग वाकई अलबेला था।
बेगम जब चांदनी चौक के कोठे की रौनकों-मेलों को छोड़कर ईस्ट इंडिया कंपनी को भाड़े पर सेना देने वाले जर्मनी के वाल्टर रेनहार्ट सोम्ब्रे के साथ जिंदगी की नई-अनजानी राह पर निकल पड़ी थी तो उसे खुद भी उस मंजिलों का गुमान नहीं था जो आने वाले दिनों में उसके कदम चूमती चली गईं। उम्र में तीस साल बड़े सोम्ब्रे के साथ ब्याह रचाने के बाद यह अजब-गजब जोड़ी रोहिलखंड, आगरा, भरतपुर और डीग के बाद आखिरकार सरधना पहुंची। मुगल बादशाह शाह आलम को रोहिल्ला लड़ाकों के खिलाफ अपनी सेना देने वाले रेनहार्ट को बादशाह ने खुश होकर सरधना की जागीर सौंपी थी। इस तरह फरज़ाना-सोम्ब्रे हमेशा के लिए सरधना के हो गए। मगर शादी के तीन साल बाद ही सोम्ब्रे की मौत हो गई और उसकी फौज फरज़ाना के हाथों में आ गई।
सोम्ब्रे ही बिगड़ते-बिगड़ते समरू हो गया और सरधना की कमान संभालने वाली नायिका इतिहास में बेगम समरू के नाम से मशहूर हुई। शौहर की मौत के कुछ साल बाद जब बेगम ने ईसाई धर्म कुबूल किया तो वह जोहाना नोबिलिस सोम्ब्रे बन चुकी थी।
सरधना में विरासत की सैर
बेगम के उस पुराने महल तक भी चलते हैं जो चर्च के करीब ही खड़ा है। दोआब के इस इलाके में गर्मियों में बेरहम पारे की अकड़ महल के तहखाने में उतरते ही ढीली पड़ जाती है। अब सीलन से गंधाते इस तहखाने में चमगादड़ उड़ानें भरते हैं, लेकिन दो सौ साल पहले महल में बेगम और उनका परिवार चैन से रहा करता था। इस पुराने महल में आज सेंट जोंस सेमीनरी चलती है। नज़दीक ही वो कैथोलिक कब्रिस्तान भी है जहां रेनहार्ट और रेगेलिनी के अलावा बेगम के प्रेमी से पति बने वसाऊ और उनके परिवार के दूसरे कई लोगों की कब्रे हैं।
सरधना की धरोहर से गुफ्तगू
कहते हैं हर शहर, हर कस्बा, उसकी गलियां और उसके मोड़ भी लोगों से मिलने को उतने ही बेताब होते हैं जितनी बेचैनियों को सीने में दबाए सैलानी वहां पहुंचते हैं। सरधना की धरोहर भी इस नियम से अछूती नहीं है। अपनी बेगम के किस्से बयान करते हुए सरधना के बुजुर्ग आज भी गुरूर के अहसास में नम होती अपनी आंखों को छिपा नहीं पाते। दिल्ली के ठाट में बैठकर यह सोचना आसान भी नहीं है कि कुछ मीलों के फासले पर मेरठ से सटा जो कस्बा खामोशियों के वितान बुनकर खड़ा है वो दो सौ साल पहले एक ताकतवर मिल्कियत हुआ करता था। महज़ साढ़े चार फुट की बेगम समरू के नेतृत्व ने इसकी खुशहाली की इबारत लिखी थी। बेगम की प्राइवेट आर्मी ने ब्रिटिश हुक्ममरानों की मदद की थी और उस पर ईसाइयत धर्म को अपनाने की वजह से भी अंग्रेज़ों के साथ बेगम की अच्छी निभती थी। बेगम की बहादुरी के भी किस्से मशहूर हैं। 1826 में 73 वर्ष की उम्र में उन्होंने अंग्रेजी फौज के साथ मिलकर भरतपुर के राजा पर चढ़ाई की थी। बेगम घमासान लड़ाई के अंत तक अपनी फौज के साथ मौजूद रहीं। इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने उनका शुक्राना अदा किया।
सरधना के चर्च में बेगम की उस रंगीन दुनिया की झलक भी मिलती है जिसमें उनके आस्ट्रियाई पति के अलावा आइरिश और फ्रांसिसी प्रेमियों के भी जलवे थे। बेगम समरू की आशिकमिजाज़ी चुपके से कहीं कह जाती है कि रियासत को सख्ती से चलाने वाली वो नायिका दिल के मामले में कितनी कमज़ोर थी!
बीती 1 जुलाई को दिल्ली से सरधना तक का यह सफर Dr Navina Jafa की उंगली थामकर किया था। इतिहास को देखने-समझने और जज़्ब करने की अपनी समझ का श्रेय उन जैसे इतिहासकारों को ही तो जाता है, जो सब्र के साथ रूबरू कराते आ रहे हैं अपने देश के चप्पे-चप्पे से मुझे।