लहरों पर विरासत का सफर
‘गॉड्स ओन कंट्री’ का दम भरने वाले केरल के पर्यटन नक्शे पर कुछ नई रेखाएं तेज़ी से उभर रही हैं। इस नई इबारत की जड़ें अतीत के उन ज़र्द पन्नों तक खिंची चली जाती हैं जहां ईसा से आठ-नौ सौ साल पूर्व में मालाबार तट पर किलोल कर रहा ऐसा पोत शहर था जो उस ज़माने में किसी ‘ग्लोबल मॉल से कमतर नहीं था। ये वो दौर था जब दुनिया के दिग्गज कारोबारी मसालों-जड़ी बूटियों की सुगंध का पीछा करते-करते समुद्री रास्तों की चुनौतियों को झेलते हुए मालाबार तट पर दस्तक दिया करते थे।
इस बंदरगाह शहर के इतने चर्चे थे कि Greek travelougue Periplus of the Erythraean Sea (1A.D.) में भी इसका जिक्र मिलता है। Roman author, naturalist Plini the elder ने, जो 23ई से 79ई के बीच जीवित थे, अपने encyclopedic work Naturalis Historia में ‘प्रीमियम एंपोरियम इंडीयी’ यानी भारत के पहले एंपोरियम के रूप मुज़िरिस का उल्लेख किया है। यहां ज़िक्र है मुचरी (मुचरीपत्तनम) शहर का जिसे Greco-Romans मुज़िरिस पुकारा करते थे और 14वीं सदी तक जिसके अफसाने दुनियाभर में गूंजते रहे थे। और जब ज़माना बड़े गौर से उसकी दास्तान सुन रहा था तो एकाएक वो शहर चुप हो गया। धरती की एक करवट के साथ वक़्त की तहों में कहीं गुम हो गया। पूरी दुनिया हैरान थी कि चीन, रोम, मिस्र, मैसोपोटामिया, पुर्तगाल, असीरिया तक की सरज़मीं से केरल की पेरियार नदी के तट पर जमा होने वाले कारोबारियों की पदचाप से धड़कता-चहकता शहर एकाएक कहां खो गया। फिर 21वीं सदी में एक रोज़ आसमान और धरती का मिलन कुछ यों हुआ कि पाट्टनम की ज़मीन ने वो सारे राज़ खुद-ब-खुद उगल दिए जो वो बीते 700-800 वर्षों से अपने सीने में दबाए थी। उस रात बरसता आसमान मिट्टी की निचली परतों में दफन उन रंग-बिरंगे मोतियों को उघाड़ने में जुटा था जिनके तार दो हजार साल पुराने रोमन साम्राज्य से जुड़े थे। बारिश से धुली-धुली ज़मीन पर बिखरे अलग-अलग आकार और रंगों के उन मोतियों से पाट्टनम के लोग खुश थे लेकिन वो इस बात से बेज़ार थे कि कांच और पत्थरों के वो मोती ही दरअसल, केरल को भूमध्यसागरीय धरती से लेकर उत्तरी अफ्रीका और पश्चिम एशिया तक की धरती से जोड़ते थे।
कोच्चि में बोलगाट्टी पैलेस से मुज़िरिस प्रोजेक्ट को नापने के सफर की शुरूआत इतनी टेढ़ी होगी, इसका अंदाज़ मुझे ज़रा नहीं था। होटल स्टाफ में किसी ने भी ‘मुज़िरिस’ पहले कभी नहीं सुना था शायद, कम से कम उनके चेहरे पर उभरे भाव तो यही कह रहे थे। पड़ताल के सिलसिले शुरू हुए, टैक्सी वाले, जेट्टी वाले, यहां तक कि होटल के सफाई कर्मचारी, खाना बनाने वाले तक से पूछताछ हो गई। कितने ही फोन नंबर मिला लिए गए। रिसेप्शनिस्टों के चेहरों पर शिकन की लकीरें उभर आयी थीं, किसी भी फोन संदेश के उस पार से मुज़िरिस की राह दिखायी नहीं दे रही थी। फिर भी उंगलियां थीं कि एक के बाद एक नंबरों को घुमाने में लगी थीं। रिसेप्शन डेस्क को बेशक, मेरी मंजिल का पता मालूम नहीं था लेकिन वहां तक मुझे पहुंचा देने की उनकी कोशिशों ने मुझे नतमस्तक कर दिया था। उनकी मलयालम और मेरी हिंदी जुबान के बीच टूटी-फूटी अंग्रेज़ी का सेतु ही था जो किसी तरह कुछ काम चला रहा था। आखिरकार मुज़िरिस हेरिटेज प्रोजेक्ट का पता मिल गया। कोच्चि से पनवेल-कन्याकुमारी हाइवे यानी एनएच66 पर होते हुए हमें करीब 25 किलोमीटर दूर परवूर सिनागॉग तक जाना था। वहीं नज़दीक परवूर जेट्टी से हॉप-आन हॉन-आफ बोट की सैर शुरू होती है।
पता मिलने की देर थी कि मैं और उबर कैब केरल की सर्पीली सड़कों को नापने लगे थे। एंटनी की दिलचस्पी कैब को हांकने में कम और इस मुज़िरिस नाम की बला में ज्यादा थी। उसने भी इसका जिक्र पहले कभी नहीं सुना था। बहरहाल, अब तसल्ली थी कि मेरे पास एक पता था और एंटनी की कैब में चौकन्ना जीपीएस लगा था। परवूर के बाज़ार की रौनक को नापते-टापते हुए हम आगे बढ़ रहे थे, हमें रास्ते में खड़े चर्चों-मंदिरों-मस्जिदों से कोई वास्ता नहीं था उस रोज़। परवूर सिनागॉग की तलाश हमें आखिरकार एक पुरानी, धुली-धुली सफेदी और सादगी में नहायी इमारत के ठीक सामने ले आयी थी। यह दरअसल, चेंदामंगलम सिनागॉग था जिसे मुज़िरिस विरासत संरक्षण परियोजना के तहत् अब केरल ज्यूज़ लाइफस्टाइल म्युज़ियम भी कहा जाता है। वक्त़ के गुबार में खो चुके 17वीं शताब्दी के इस यहूदी प्रार्थनागृह को केरल सरकार ने सहेजकर इसमें एक छोटा म्युज़ियम भी तैयार किया है और अब यहां केरल में शुरूआती यहूदी जीवन की झलक देखी जा सकती है।
मगर मेरी जेब में रखा पते का पुर्जा कह रहा था कि हमें परवूर सिनागॉग पहुंचना था और उसी के नज़दीक जेट्टी से बोट राइड शुरू होनी थी। परवूर जैसी छोटी-सी बस्ती में दो-दो सिनागॉग होंगे जो यों उलझन में डाल देंगे, किसने सोचा था।
एरणाकुलम से परवूर तक का सफर जितना आसान था, परवूर से परवूर की राह उतनी ही पहेली बन गई थी।
मंजिल हाथ आते-आते छूट रही थी। हम अब भी कोट्टायिल कोविलाकुम के चेंदामंगलम सिनागॉग के सामने खड़े थे। एक बार फिर जीपीएस के कान मरोड़े गए, नया ठिकाना बताया गया और इस बार अपनी असल मंजिल तक पहुंच गए।
जेट्टी पर सवारी के लिए टिकट काउंटर से ही गाइड साथ हो लिया था। टिकट काउंटर दरअसल, परवूर सिनागॉग में ही है। इस प्रार्थनागृह को अब ज्यूइश हिस्टॉरिकल म्युज़ियम में ढाला गया है।
केरल में सैंकड़ों साल पहले आकर बसे यहूदी जीवन की सामाजिक-धार्मिक-सांस्कृतिक परंपराओं से रूबरू होने के लिए इन दोनों संग्रहालयों में कुछ वक़्त बिताने के बाद मैं पेरियार की लहरों से मुखातिब थी।
पेरियार की लहरों पर अतीत की सवारी
पेरियार के पानी पर सालों से टकटकी लगाए खड़े चाइनीज़ जालों के सिलसिले शुरू हो चुके थे। एक अजब सफर की शुरूआत थी जिसमें मछुआरे थे, मछलियों की गंध थी, मसालों की महक थी, इतिहास और विरासत के झोंके थे और कहीं पेरियार नदी और अरब सागर का संगम था। इंसानी बस्तियों से निकलकर मछुआरों की मंडियों तक की यात्रा थी, प्राचीनतम बाज़ारों की रौनक थी, विरासतों की बची-खुची खुरचन थी और कितने ही मंदिर, चर्च, मस्जिद, सिनागॉग और संग्रहालय थे जो केरल के बीते तीन हजार वर्षों की दास्तान सुना रहे हैं।
दूर क्षितिज तक फैली थी नौकाओं की रेखाएं जो कभी सिकुड़कर बिंदु बन जाती थी और कभी करीब आने पर किसी जहाज़ से कम नहीं दिखती थीं। उनके काले, नीले, पीले, लाल, हरे रंगों ने हैरत में डाला था तो गाइड ने बताया कि कलर कोडिंग की यह तकनीक नौकाओं की पहचान के लिए अमल में लायी जाती है।
कुछ मिनट पेरियार की लहरों पर तैरने के बाद हमारी नौका किसी पुराने चर्च या संग्रहालय के ठीक सामने रुकती थी। जलमार्ग के जरिए विरासतों से मिलने का यह अंदाज़ मेरे लिए नया था। अभी तक वेनिस की नहरों का जिक्र सुना था लेकिन केरल में नदी मार्ग पर होते हुए यों जिंदगी से मिलना भी कम खास नहीं था।
अगला पड़ाव पालिपुरम था। पेरियार के इस तट पर मिथकों में लिपटा आवर लेडी आॅफ स्नो चर्च पूरी शानो-शौकत के साथ खड़ा था। वाइपीन द्वीप पर 1507 में पुर्तगालियों ने इस चर्च का निर्माण कराया था जहां आसपास के इलाके (मुज़िरिस) से ईसाई आकर बस गए थे।
3 से 4 घंटे की बोट राइड में हर 15-20 मिनट पर पड़ाव बनाए गए हैं जिनमें चर्च, संग्रहालय, मस्जिद, सिनागॉग, किले वगैरह शामिल है। पेरियार की लहरों पर तैरती एयरकंडीशंड बोट सैलानियों को केरल की जिंदगी दिखलाती चलती है।
गांवों, पाठशालाओं, मछुआरों की बस्तियों, मछली मंडी को पार करते हुए एक दिलचस्प गांव से गुजरती है नौकाएं। और यह गांव विख्यात है नौका निर्माण के लिए। केरल के अलावा कर्नाटक, तमिलनाडु जैसे पड़ोसी राज्यों के लिए भी यहीं नौकाएं बनायी जाती हैं।
छोटी-बड़ी, लाल-पीली-नीली जाने कितनी ही तरह की नौकाओं को बनते देखना एक दिलचस्प अनुभव होता है। और इसे पार कर कोट्टापुरम के उस ऐतिहासिक बाजार में पहुंचते हैं जो संभवत: हिंदुस्तान का सबसे प्राचीन बाजार है। सैंकड़ों साल पहले मुज़िरिस के इसी बाजार में मसालों-हाथी दांत, जड़ी-बूटियों जैसी वस्तुओं के बदले विदेशी सिक्कों, वाइन, पॉटरी आदि की खरीद-फरोख्त हुआ करती थी। अब सिर्फ सोमवार और बृहस्पतिवार को यह बाजार सजता है, बस फर्क इतना है कि अब यहां खरीदार स्थानीय लोग ही होते हैं।
मुज़िरिस प्रोजेक्ट ने केरल के पारंपरिक घरों को म्युज़ियम में तब्दील किया है ताकि आधुनिक दौर के हम यात्रियों को बीते वक़्त की जीवन पद्धति की झलक देखने को मिल सके। मुज़िरिस ट्रेल वाकई इस लिहाज से बहुत समृद्ध है। मैंने उन विशाल हवेलीनुमा घरों को देखा जिनमें औरतों और उनके बच्चों को ही रहने की इजाज़त थी (Nalakettu), पुरुष उनके साथ वहां नहीं रह सकते थे। इनके नज़दीक बना था पालियम पैलेस, जो अभी करीब आधी सदी पहले तक सिर्फ पुरुषों का ठिकाना होता है। यह वही पालियम पैलेस था जिसके सामने से किसी जमाने में सिर्फ ऊंची जाति के हिंदुओं और अन्य धर्मों के लोगों को ही गुजरने की इजाज़त थी। नीची जाति के हिंदु और अस्पृश्य यहां से गुजर नहीं सकते थे। और इसी के विरोध में 1946 में पालियम सत्याग्रह शुरू हुआ जिसके चलते 1948 में यह भेदभाव खत्म हुआ।
हॉप-आन हॉप-आफ बोट राइड का अहम् पड़ाव है कोट्टापुरम
इस बाजार के बाद पेरियार पर दाहिने मुड़ते ही लाल बलुआ पत्थरों की पुरानी दीवारों के अवशेष अपनी तरफ ध्यान खींचते हैं।
यही कोट्टापुरम का वो ऐतिहासिक किला है जिसे 1523 में पुर्तगालियों ने बनाया था, जो कोझिकोड के ज़मोरिन शासकों और कोच्ची के राजाओं के बीच कितनी ही जंगों का साक्षी रहा और आखिरकार डचों का इस पर कब्जा हो गया। लेकिन यह कब्जा भारी जंग के बाद ही मुमकिन हुआ था और उसमें किला काफी हद तक नष्ट हो गया। पेरियार के मुहाने पर खड़े इस किले का इस्तेमाल डच नदी पर दूर तक आते-आते कारोबारी जहाज़ों पर नज़र रखने के लिए करते थे।
गुजरे ज़माने में कोच्चि से त्रिशुर तक के जलमार्ग से होते हुए मुज़िरिस बंदरगाह तक केरल के अंदरूणी इलाकों से लाए माल की आवाजाही हुआ करती थी। पर्यटन मंत्रालय, भारत सरकार में संयुक्त सचिव सुमन बिल्ला कहते हैं ”यह केरल की पुरानी परंपराओं को गौरवशाली तरीके से एक बार फिर विश्व मानचित्र पर लाने की पहल है।” इंसानी सभ्यता के भव्य अतीत की झांकी दिखलाने वाली मुज़िरिस परियोजना निश्चित ही पर्यटन की अपार संभावनाओं को समेटे है। केरल पर्यटन को यकीनन ऐसी ही जादुई छड़ी की दरकार है।
What is Muziris Heritage conservation project?
केरल सरकार की मुज़िरिस परियोजना आज भारत में सबसे बड़ी विरासत संरक्षण परियोजना है और इसके तहत् प्राचीन प्रार्थना स्थलों, पुराने बाजारों-मंडियों, किलों का जीर्णोद्वार/रखरखाव तथा उस दौर की जीवनशैली को सहेजने-दर्शाने वाले संग्रहालयों का निर्माण शामिल है। फिलहाल, परियोजना के अंतर्गत 8 संग्रहालय चालू हो चुके हैं। दो यहूदी प्रार्थनागृहों यानी परवूर सिनागॉग और चेंदामंगलम सिनागॉग में क्रमश: ज्युइश हिस्टॉरिकल म्युज़ियम और लाइफस्टाइल म्युज़ियम खुल चुके हैं। जल्द ही एक और Mala synagogue भी इसी विरासत से जुड़ जाएगा जो परवूर से 15 किलोमीटर दूर है।
How to reach Muziris
एरणाकुलम जिले में परवूर से लेकर त्रिशुर के कोट्टापुरम तक फैली मुज़िरिस परियोजना के ऐतिहासिक स्थलों को नापने के लिए पेरियार की लहरों पर दौड़ती एयरकंडीशंड हॉप-आन हॉप-आफ बोट (airconditioned HoHo boat ride) की सवारी की जाती है।
Kochi to Paravur: 25 km
Transport: (pvt cab / Uber services also available) / Bus service (one way ride Rs 21/ only)
Reach Paravur Jetty for HoHo boat ride: Ticket cost Rs 550/ per adult (exluding veg/Non veg meal for Rs 60/ – Rs 80/)
पेरियार तट पर परवूर विजिटर्स सेंटर जेट्टी, कोट्टापुरम मार्केट जेट्टी, गोथुरुठ जेट्टी, पालियम जेट्टी जैसे कितने ही ठिकानों से इन नौकाओं में सवार हुआ जा सकता है। फिलहाल ऐसी 5 नौकाएं केरल टूरिज़्म ने पेरियार नदी में उतार रखी हैं और जल्द ही 7 और नौकाओं को सैलानियों के लिए लगाने की योजना है।