Alka Kaushik

Glimpses of Himalayan heritage by train

Book Review – “The Kangra Valley Train” by Niyogi Books

‘द कांगड़ा वैली ट्रेन’ 

लेखिका — प्रेमला घोष | प्रकाशन — नियोगी बुक्स | कीमत — 795/रु | श्रेणी — यात्रा लेखन | पन्ने – 135

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जो असल वाली यात्राएं नहीं करते या नहीं कर सकते वो भी ‘आर्मचेयर’ यात्री तो बन ही सकते हैं। और अगर उनके लिए किताबों के रूप में असल जिंदगी की यात्राओं का लेखा-जोखा शिद्दत के साथ परोसा जाता है तो वो भी काफी हद तक असल जैसा स्वाद चखा सकता है। बीते दिनों कांगड़ा वैली ट्रेन’ के रूप में ऐसी ही एक यात्रा पुस्तक नियोगी बुक्स  (www.niyogibooksindia.com) ने प्रकाशित की।

हिमाचल की विश्वविख्यात कांगड़ा घाटी के सौंदर्य को घाटी के आर-पार गुजरती पटरियों, उन पटरियों पर दौड़ती नैरो गेज ट्रेन और उस ट्रेन के डिब्बों में सफर करने वाले यात्रियों के बहाने इस पुस्तक ने पूरी घाटी का मानचित्र जैसे पाठकों के लिए साक्षात् शब्दों में पिरोया है। धुरंधर यात्रा लेखकों के पन्नों को कई बार समझना मुश्किल हो जाता है, दुनिया जहान के उनके सफर की यादों में भीगे लफ्ज़ और अनुभवों में पगे हर्फों के संदर्भ आम पाठक तो क्या अच्छे-अच्छे सफरबाज़ों के लिए कई बार भारी साबित होते हैं। इस लिहाज से प्रेमला घोष की ‘द कांगड़ा वैली ट्रेन’ किसी सुकूनभरे सफर की तरह लगती है। शब्दों की लफ्फाजियों से दूर, पाठक को अचंभित और चकित कर देने की मंशा से परे है यह किताब। सीधे-सादे शब्दों में कांगड़ा घाटी के अतीत और वर्तमान को उसके सीने पर से गुजर गई हिमालयन रेलवे के जरिए पहुंचाने की कोशिश ने ही इसे खास बनाया है।

हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा घाटी के सौंदर्य को निरखने-महसूसने के लिए कांगड़ा वैली ट्रेन की सवारी के रूप में जोरदार विकल्प पिछली एक सदी से भी अधिक समय से उपलब्ध है। पंजाब में पठानकोट के मैदानों से निकलकर हिमाचल के मंडी जिले में जोगिंदरनगर घाटी तक के 163 किलोमीटर के फासले में कितने ही पड़ावों को पार करती हुई चलती है यह हिमालय रेलवे। आठ घंटे का इसका सफर लोकल आबादी के लिए बड़ा सहारा बनता है जिसकी बड़ी वजह है सस्ता भाड़ा और आरामदायक सफर। अलबत्ता, कहीं-कहीं से पर्यटक भी सवार हो लेते हैं। कांगड़ा रेलवे देश के दूसरे भागों में चलने वाली पर्वतीय रेलों से इस मायने में काफी अलग है कि इसके सफर में कहीं तीखे मोड़, कठिन चढ़ाइयां, लूप, डरावने ढलान नहीं हैं। धौलाधार की तलहटी में, खेतों के किनारे-किनारे, घाटी के समतल और समानांतर दौड़ती इस रेलवे लाइन को बिछाने के लिए प्रकृति के साथ कम से कम छेड़छाड़ हुई है। कालका-शिमला रेलवे लाइन जहां अधिकतर सुरंगों से दौड़ते हुए ऐसा आभास देती है मानो पहाड़ों में जगह-जगह खरगोशों की खोह में से होकर गुजरना ही यात्रियों की नियति है, वहीं कांगड़ा की रेल पहाड़ों के संग-संग मुड़ती है, उनके आजू-बाजू से होकर गुजर जाती है और साबित करती है कि कैसे रेलवे इंजीनियरों ने कुदरत के साथ भरपूर तालमेल रखकर इसे बिछाया था। कैसे इन इंजीनियरों ने बारूद से पहाड़ों के सीनों को सुलगाने की बजाय इन वादियों से होकर गुजरने वाले प्राचीन मार्गों को दोबारा जिंदा किया। उसी का नतीजा है कि कांगड़ा घाटी से गुजरने वाली टॉय ट्रेन ठीक उन रास्तों से ठुमकती हुई चलती है जहां शायद कोई कवि या कलाकार इसे बिछाता। कांगड़ा वैली ट्रेन सबसे लंबी पर्वतीय रेल है, 100 किलोमीटर से भी ज्यादा लंबी और सौ साल बीतने के बाद भी इस रेलवे की कुछ शुरूआती खूबियां आज भी जिंदा हैं, जैसे लोकोमोटिव, रोलिंग स्टॉक और सिग्नल सिस्टम।

ऐसी कितनी ही दिलचस्प जानकारियों से भरपूर यह किताब कांगड़ा घाटी की तमाम जगहों की सैर भी कराती है जहां-जहां से यह रेल गुजरती हुई जाती है। तीर्थ स्थलों से लेकर किलों तक, नदियों-खेतों से लेकर मंदिरों-वादियों तक तक के कोने-कोने से गुजरती रेल और रेल के संग गुजरते पन्ने, पाठकों को हिमाचल की एक अद्भुत यात्रा पर ले  जाते हैं।

किताब अंग्रेज़ी में है, मगर सफर की दास्तान सुनने के शौकीनों को कभी इससे कोर्इ् फर्क पड़ा है क्या! मेरे सिरहाने बीते दो महीने से यही किताब रखी है। किसी भी पल, किसी भी पन्ने को खोलकर पड़ना सुकून और सूचना दोनों से भर देने वाला अहसास साबित हुआ है। और हां, आज इस पोस्ट के बाद किताब बुकशेल्फ में पहुंच गई है।