बेचैन शहर के सीने में सुकून की लकीरों को पकड़ना फोर्ट से बांद्रा के होली फैमिली अस्पताल तक काली-पीली टैक्सी की सवारी तय की। बारिश से नहायी, भीगती-भागती सड़कों पर टैक्सी दौड़ रही थी, मैंने आजू-बाजू की खिड़कियां खोल रखी थीं .. ताकि फोर्ट की गोदी में भरे पानी की भाप ने जिन बूंदों का लिहाफ ओढ़ा था उन्हें अपने गालों पर महसूस कर सकूं। सड़कें खाली थीं और हम बस 30-35 मिनट में अपनी मंजिल पर आ लगे थे। एक अजब किस्म की विरासत की सैर का हिस्सा बनने जा रही थी जिसमें ऐतिहासिक स्मारकों की जगह उन बंगलों, चर्चों, मुहल्लों, स्कवॉयर, स्ट्रीट्स, सिमिट्री वगैरह ने ले ली थी जिन्हें नए दौर के साथ बदलने की कोई हड़बड़ी नहीं थी। होली फैमिली अस्पताल के गेट पर अंशु गुप्ता हमारे इंतज़ार में थी। वे मीडिया, ट्रैवल, डिजिटल प्लेटफार्मों से होते हुए बांद्रा में हर दिन सवेरे की सैर करते हुए कब इस विरासत से जुड़ गई, इसका इल्म खुद अंशु को भी नहीं है। सवेरे की सैर करते हुए अंशु हर दिन बिना किसी एजेंडा के किसी भी मोड़ मुड़ जाया करती हैं, किसी भी गली में बढ़ जाना उनका शगल बन चुका है। और हर दिन की वॉक में किसी नए बंगले, किसी नए मुहल्ले, किसी नई सड़क-स्ट्रीट से गुजरते हुए उनके फोटो उतारते चलना भी रोज़मर्रा की आदत बन गया। और इस आदत ने एक कलेक्शन की शक्ल ले ली जिसे बहुत ही मुफीद नाम दिया गया – #TheNeighbourhoodProject हमारे कदमों की रफ्तार हमारी बेताबी का बयान थी। पल भर में ही हम रनवार स्कवायर पर थे, रनवार दरअसल, बांद्रा के सबसे पुराने गांवठन (rural settlement) में से एक है। वेरोनिका स्ट्रीट के दोनों ओर बने बंगलों से ही रनवार गांवठन बीती कई सदियों से आबाद है। बांद्रा की विरासत की सैर अंशु की उंगली पकड़कर ख्वाबों के शहर का ये वाला हिस्सा देखा तो लगा कि कभी ख्वाबों में भी नहीं सोचा जा सकता कि किसी बेचैन शहर के सीने में इतने सुकून में भी कोई पड़ा हो सकता है। जैसे बांद्रा के बंगले, रंगों से सराबोर या बेरंग, उनके झड़ते पलस्तर और सरकती ईंटों के बीच वक़्त कहीं तेजी से भागता चला गया है बेशक, लेकिन कुछ है जो अब भी वहीं रुका है, वहीं बस गया है … पुराने घरों की बेतरतीबी ने इस पूरे इलाके को उस monotony से बचाकर रखा है जो अक्सर आधुनिक स्मार्ट शहरों में आ घेरती है। हिल रोड से ही दिखने लगे थे जो घर, या कुछ बंगलों के बाद सर्र से समुद्र के सीने में उतर गई संकरी गलियां (आखिर वो मछुआरों की बस्तियां थीं, और उनका समुद्र तक आना-जाना तो लगा ही रहता है) जो किसी सिमिट्री (एकरूपता), किसी डिजाइन या किसी आर्किटैक्ट के ड्राइंग बोर्ड का हिस्सा शायद कभी नहीं थीं। मनमाने अंदाज़, निराले डिजाइन और रंग-बिरंगी बाहरी दीवारों के अपने मोहपाश में बांधने वाले उन बंगलों में से ही किसी में कोई आधुनिक फैशनेबल कैफे चल रहा है या किसी में स्टूडियो खुल चुका है। कोई चुप-सा खड़ा है, कोई चुप रहकर भी बहुत कुछ बोलता है। बांद्रा के इतिहास की तहों में लिपटे बंगले, उनके आंगन, आंगन में खड़े पेड़ और बांद्रा के ही एक गांव कांतीबाड़ी की जेना से लेकर इन बंगलों की दीवारों पर सजी ग्राफिति धीरे-धीरे अंशु के मोबाइल में कैद होने लगीं।
अरब सागर के किनारे सटे बांद्रा की मछुआरों की बस्तियां, उनके गांवठन, दरकती दीवारें, सिमटते बैकयार्ड, गलियां, गलियों का सन्नाटा, उनकी चहलकदमियां, किसी मोड़ का शोर तो किसी मोड़ की चुप्पी … क्या कुछ नहीं है जो धीरे-धीरे मोबाइल की स्मृतियों में सिमटता रहा।
वांद्रे (Marathi) उपनगर 24 गांवों का समूह था जो मुख्य रूप से कोली मछुआरों और किसानों से आबाद था। फिर पुर्तगाली शासन के दौरान, 16वीं और 17वीं शताब्दी में इसकी ज्यादातर आबादी ने कैथॅलिक धर्म अपना लिया। हिल रोड से पाली रोड तक की अपनी सवेरे की सैर में हम बांद्रा के उस मौजूदा वक़्त को देख रहे थे जिसे न तो बदलने से इंकार था और न वक़्त की किसी खोह में अटके रह जाने से। कुछ हिस्से हैं जो तेजी से बदल रहे हैं, किसी बंगले की दरकती दीवारों के पीछे से सिर उठाते बहुमंजिला फ्लैट भी उसी सहजता से झांकते हैं जैसे अपने बरामदे के साथ आज तक अपनी हस्ती संभाले हुए खड़ा यह बंगला।
फिर एक रोज़ बांद्रा की एक और आधुनिक ‘विरासत’ बेगल शॉप ने अंशु के मोबाइल में बंद यादों को अपनी दीवारों पर दर्ज कर दिया। हम उस रोज़ बेगल शॉप में नाश्ते की टेबल तक पहुंचने के क्रम में इस खूबसूरत, फैशनेबल कैफे की दीवारों पर इसी एग्ज़ीबिशन को देखते रहे थे। बांद्रा के मौजूदा समय को इन तस्वीरों में मशक्कत से कैद कर लिया गया है।
another home, another era (Image credit – Ansoo Gupta) बांद्रा में समुद्रतट से यही कोई सौ-दो सौ फर्लांग दूर खड़ा यह चर्च पुर्तगालियों ने 1616 में बनाया था।
St. Andrews parish in Bandra is one of the oldest churches in Mumbai और जब आगरे में ताज बनकर खड़ा हुआ था तब तक इस चर्च ने उम्र के 38 वसंत देख लिए थे! बीत रहे वक़्त का हिसाब कभी रखा है आपने इस अंदाज़ में, जैसा कि सेंट एंड्रयूज़ चर्च ने रखा है।
गलियों-सड़कों को पार करते हुए शहर के सबसे पुराने महबूब स्टूडियो (जिसे 1954 में डायरेक्टर-प्रोड्यूसर महबूब खान ने बनवाया था।) से गुजरना, फिर किसी फिल्मी सितारे के बंगले को पार कर मास्टर-ब्लास्टर तेंदुलकर के बंगले के ऐन सामने खुद को पाकर हैरत में थी मैं खुद भी। वाकई इतनी अजब वॉक तो कभी नहीं की थी। इससे पहले इतिहास को खंगाला था, बीते दौर को सराहा था मगर “नेबरहुड प्रोजेक्ट” के बहाने उस रोज़ हमने हौले-हौले बीत रहे वक्त को महसूसा था।
what a contrast to skyscrapers of the city (Image credit – Ansoo Gupta)
बांद्रा ‘गांव’ के गली-मुहल्लों को टापते हुए बारहा यह ख्याल आता रहा कि हम गोवा में हैं। बंगलों-फ्लैटों की नेम प्लेट पर फर्नांडीज़, रॉड्रिग्स, साल्सेट कैथॅलिक जैसे नाम यही कह रहे थे कि मुंबई के इस हिस्से का गोवा से जरूर कोई नाता है।
Portuguese connection of Bandra evident in such homes (Image credit – Ansoo Gupta)
बांद्रा के इन विशाल अहातों के उस पार खड़े बंगलों में कौन रहता होगा? रहता भी होगा या नहीं? और क्या उन बाशिन्दों को यह इल्म होगा कि कोई है जो हर दिन शहर के इस कोने में सुबह की सैर करते हुए अपने कदमों को नापने की बजाय उनके घरों की दीवारों के हौले-हौले बदलते जाने को दर्ज करती चल रही है? और क्या किसी को कभी पता चल पाएगा कि एक रोज़ हम भी इन बंगलों की यादों में ठीक उसी तरह दर्ज हो गए थे जैसे अंशु के स्मार्टफोन की मेमोरी में दर्ज हो रही है यह पुरानी विरासत?
R to L – Puneetinder, Ansoo and I in bylanes of Bandra
मुंबई के ताज़ा सफर में इतना तो साफ हो चला था कि बेचैनी से भरपूर है मुंबई, उतना ही जितने अरमानों से भरे-पूरे आते रहे हैं यहां बसने वाले माइग्रेंट। इसके हर कोने से इतनी आवाज़ें उठती हैं, इतने किस्म की गंध हवाओं में तैरती है कि हमें मिली इंद्रियां नाकाफी साबित हो जाती हैं! बंबई अभिभूत करता है, अपनी खूबसूरती या बदसूरती या अपने पेशेवर अंदाज़ या अपनी बेफिक्री और बेताबियों से नहीं बल्कि कदम-कदम पर बदलते अपने तेवर से। फोर्ट में छिपे इसके बगदादी यहूदी मुहल्ले चौंकाते हैं, कहीं पारसी सरगोशियां हैरान करती हैं, धारावी का लंबा इलाका अचंभित न सही मगर मन के किसी कोने को कोंचता जरूर है तो चौपाटी के समुद्री किनारे पर शहरी भीड़भाड़ के बीच अकेलेपन के झूठे अहसास में डूबे जोड़ों की गलबहियां खुशफहमियत की तरफ ले जाती रहती हैं। अपने कई-कई द्वीपों के भीतर कई हजार द्वीप छिपाए खड़ा है बॉम्बे। और ऐसा ही एक खास द्वीप है बांद्रा।
सवेरे से शाम तक के लम्हों को गुजरते हुए महसूसना हो तो बांद्रा में नेबरहुड प्रोजेक्ट देखने का ख्याल बुरा नहीं है। अपने ही मुहल्ले को जानना, अपने ही बैकयार्ड को टटोलना, उसके सीने में छिपे किस्सों को कान लगाकर सुनने का नाम ही नेबरहुड प्रोजेक्ट है। वैसे सिर्फ मुझे ही नहीं किसी को भी अपनी सवेरे की सैर का हिस्सा बनाने के लिए हरदम तैयार है अंशु, है क्या आपके पास, वो क्या कहते हैं उसको फकत फुर्सत?
उस दोपहर अपने होटल की तरफ लौटते हुए बस एक ही ख्याल मन में था — ऐसा भी है मुंबई मेरी जान!