कलिंजर के कालजयी किले में
हम सुबह-शाम खजुराहो मंदिरों के मंडपों-महामंडपों को जाने कितनी बार लांघ चुके थे। हर बार पिछली दफा देखा मंदिर फिर-फिर नया लगने लगता था। चौंसठयोगिनी में सवेरे की हल्की धूप के उस पार से झांकता कंदारिया महादेव का मंदिर फिर ललचा रहा था तो दिन ढले सूरज की आखिरी किरणों को उतरते देखने के लिए हम चतुर्भुज मंदिर की सीढ़ियों पर जमे रहे थे।
फिर-फिर उसी रास्ते से गुजरना ज़रा भी बोर नहीं कर रहा था। लेकिन इस भूलभुलैया से बाहर निकलना जरूरी था। बुंदेलखंड की धरती पर आल्हा-उदल के किस्सों को सुनना था, पन्ना में बाघ से मिलने के बहाने कर्णावती की धाराओं से बाहर निकलकर धूप सेंकते आलसी घड़ियालों को देखना था … मगर कैसे। मंदिरों के आकर्षण में बंध चुके पैरों को किसी और दिशा में पिछली दफा भी नहीं मोड़ पायी। खैर, इस बार मंदिरों के मोहपाश से बाहर आने का मूलमंत्र मेरे हाथ लग चुका था।
हमने खजुराहो से सौ किलोमीटर के फासले पर विंध्य पहाड़ी के छोर पर खड़े कालजयी कलिंजर के किले को देखने का फैसला ड्राइवर को सुना दिया था। अब अपने हाथ में न स्टीयरिंग की कमान थी और न मंजिल से हेरफेर की गुंजाइश ही बची थी। और इस तरह करीब दो-ढाई घंटे के सफर के बाद हम उस किले में दाखिल हो चुके थे जिसने बीती तारीख में कितने ही सूरमाओं को अपनी हद के आसपास भी फटकने नहीं दिया था। कलिंजर के इस दुर्ग में कदम रखना जैसे उस बीते दौर के शूरवीरों से साक्षात् मिलना था।
दुर्ग में प्रवेश करते ही सबसे पहले दुबे महल से मुलाकात होती है। विशाल दुर्ग के भीतर ऐसे कई महल, मंदिर और बावड़ियां हैं जिन्हें हम एक-एक कर नापते-टापते चल रहे थे।
पास में ही एक विशाल जलाशय है जिसे कोटितीर्थ तालाब के नाम से जाना जाता है। इस तालाब के आसपास कई पुराने मंदिरों, महलों के अवशेष हैं। तालाब की दीवारें ध्वस्त हो रही हैं लेकिन अब भी इनमें सहस्रशिवलिंग प्रतिमा और सूर्य प्रतिमा की भव्यता कायम है।
दुर्ग की इन भीतरी संरचनाओं से गुफ्तगू का वक़्त आ चुका था। दीवारें फुसफुसा रही थीं और हम सिर्फ सुन रहे थे। चमकती धूप से बचने के लिए हमने अमान महल की शरण ली थी। इसके अहाते को देखकर यह अनुमान लगाना मुश्किल था कि इसकी ज़र्द दीवारों ने उस खजाने को ओट दे रखी है जो इस दुर्ग में यहां वहां बिखरा पड़ा था। सालों की मशक्कत के बाद एएसआई (Archaeological Survey Of India) ने जिन मूर्तियों, शिल्पों को एकत्र किया है उन्हें एक संग्रहालय में सजाने की तैयारी चल रही है।
संग्रहालय की इमारत को अंतिम रूप दिया जा रहा है और मूर्तियां अपने नए घर में जाने की बाट जोट रही हैं। ये मूर्तियां, शिलालेख और पुरावशेष चंदेल राजाओं और कलचूरी वंश के हैं। बेशक, आज ये अमान महल की दीवरों में बंद संग्रह भर है मगर ये एक लंबे इतिहास को अपने में समेटे हुए हैं और हजार-डेढ़ हजार साल पुराने इतिहास के पन्नों को समझने में इनका अहम् योगदान होगा।
बीते हजारों सालों में दुर्ग में शासन करने वाले शूरवीर शासकों के दौर की ये मूर्तियां दुर्ग में जगह-जगह बिखरी हुई पायी गई थीं। कोर्इ् बावड़ी से निकाली गई तो किसी को मंदिर की जीर्ण दीवारों में से निकालकर यहां रखा गया था। ज्यादातर खंडित मूर्तियां हैं, किसी का सिर्फ शीर्ष बाकी है तो किसी का धड़, किसी के हाथ या पैर भंग हैं। लेकिन जो शेष है वो भी अतुलनीय भारत की अतुल्य धरोहर से कम नहीं।
ऐसी खंडित मूर्तियों का आंकड़ा करीब साढ़े आठ सौ है। कलिंजर दुर्ग के इस हिस्से में यानी अमान महल में एएसआई की चौकसी है, तालाबंदी है, सुरक्षा है, एहतियात है और इन मौजूदा व्यवस्थाओं के उस पार से झांकता हमारा गौरवशाली इतिहास है।
कहते हैं इस अभेद्य किले को हथियाने के लिए युद्ध होते रहे, कभी हमलावरों ने इसे कब्जाया तो फिर यह वापस राजपूत राजाओं के पास आ गया। महमूद गज़नबी से लेकर दिल्ली सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय और कुतुबुद्दीन ऐबक तक ने इस किले को अपनी सत्ता में मिलाने के लिए हमले किए। यहां तक कि अफगाान शासक शेरशाह सूरी ने भी लंबे समय तक इस किले की घेराबंदी की थी। जब साल भर तक भी किले के द्वार नहीं खुले तो शेरशाह सूरी ने अपनी सेना को किले पर गोले दागने का हुक्म सुनाया। इस बीच, एक गोला वहां आकर गिरा जहां पहले से ही गोलों का जखीरा पड़ा था, देखते ही देखते उस जखीरे ने आग पकड़ ली और शेरशाह उसमें बुरी तरह झुलसकर मर गया। यह वाकया 1545 का है।
1202 में दिल्ली सल्तनत के कुतुबुद्दीन ऐबक ने कलिंजर किले की घेराबंदी की। इस जंग में कुतुबुद्दीन के हाथ फतह लगी थी और वह किले की दौलत लूटकर दिल्ली ले आया था। इस तरह, कलिंजर का किला एक वक़्त में दिल्ली सल्तनत का हिस्सा भी रह चुका है। कुतुबुद्दीन ने लिखा है कि दुर्ग के भीतर पीने के पानी के स्रोत सूख जाने की वजह से वह किले को जीतने में कामयाब हुआ था। लेकिन किले के भाग्य में आक्रमणकारियों के आधिपत्य में रहना ज्यादा दिन कभी नहीं रहा। आखिकार 27 साल बाद, 1229 में किले के शासन की डोर एक बार फिर चंदेलों के हाथ में थी।
इस किले का बेहद खास हिस्सा नीलकंठ मंदिर है। करीब पौने दो सौ सीढ़ियां उतरकर मानो पाताललोक में पहुंचना होता है। काल भैरव की इतनी भव्य प्रतिमा शायद ही कहीं और है।
अभेद्य किले कलिंजर किले तक पहुंचने की राह
कलिंजर किला — उत्तर प्रदेश के बांदा जिले की नारायणी तहसील में
नज़दीकी रेलवे स्टेशन — खजुराहो जहां दिल्ली से इकलौती रेल यूपी संपर्क क्रांति हर दिन आती-जाती है
खजुराहो हवाईअड्डा — दिल्ली से वाया वाराणसी/आगरा होते हुए हवाई सेवा भी उपलब्ध
खजुराहो से कलिंजर — सड़क मार्ग से 100 किलोमीटर, पन्ना राष्ट्रीय उद्यान के करीब से गुजरने वाली सड़क बीते डेढ़-दो साल से खराब है, लेकिन इस बार बीच-बीच के स्ट्रैच पर सड़क निर्माण होते दिखा