खनाग में घुमंतु पेनेलपी चेटवुड की दुनिया
जलोड़ी जोत पर बर्फ के रोमांस ने हमें लंबा उलझा लिया था। सरेउलसर झील और रघुपुर किले की तरफ जाने वाली राह भी सफेदी में गुम हो चुकी थी। लंबे, घने चीड़ों को चीरकर जंगल से एक घुमावदार रास्ता उतरान और चढ़ाई के खेल खेलता हुआ करीब 2 किलोमीटर पर रघुपुर के लगभग ध्वस्त हो चुके किले तक पहुंचता है। मगर सुबह की बर्फबारी ने झील और किले को हमसे जुदा करने का षडयंत्र पहले ही रच डाला था। अब सिर्फ एक राह बची थी। और हम उसी के हो लिए।
खनाग में मुलाकात ट्रैवल राइटर पेनेलपी से
जलोड़ी से तेजी से नीचे उतरती उसी सड़क पर हमारी टेवेरा की सवारी बढ़ चली। अगला 5 किलोमीटर का रास्ता पार करने में करीब पंद्रह मिनट लगने का सबब सिर्फ बर्फ और फिसलन नहीं थी बल्कि सराहन-शिमला को जोड़ने वाले मार्ग पर हिमाचल परिवहन की बसों की आवाजाही से कितने ही जाम हुए मोड़ थे। और इन संकरी सड़कों पर पहाड़ियों के विशाल दिलों की झलक मिलती है। महानगरों से उलट हर कोई हर किसी के लिए रास्ता बनाने की जुगत में जुट जाता है।
यों ही चलते-चलते हिमाचली दिलों की थाह लेते हुए हम खनाग के रैस्ट हाउस में थे। रैस्ट हाउस की उस ब्रिटिशकालीन इमारत की टिन की छतों के ऊपर ग्रेट हिमालयन ग्रिफन ने फ्लाई पास्ट दिखाना शुरू कर दिया था। हिमालय जितनी उदात्त श्रृंखलाओं की ही तरह होता है ग्रिफन का आकार। संभवत: हिमालयी जंतु जगत में परिंदों की यह सबसे बड़ी प्रजाति है। करीब दस मिनट आकाश में टकटकी लगी रही थी और उनके काले-सफेद डैनों की उड़ान ने हमें अपने मोहपाश में बांध लिया था।
हमारी मुलाकात किसी और से भी तय थी। रैस्ट हाउस के ठीक सामने घास के लॉन से सटा एक बड़ा-सा पत्थर लेडी पेनेलपी चेटवुड की यादों को ताज़ा कर रहा था। और मैं पहुंच चुकी थी मुतिशर के उस मंदिर की सीढ़ियों तक जिन पर चेटवुड ने अपनी आखिरी सांस ली थी।
लेडी पेनेलपी तीस के दशक में भारत में ब्रिटिश सेना के फील्ड मार्शल फिलिप की बेटी थी और दिल्ली के उसी बंगले में उनका परिवार रहा करता था जो बाद में नेहरू का सरकारी आवास बना और अब तीन मूर्ति भवन के नाम से जाना जाता है। गर्मियों में ब्रिटिश राजधानी शिमला शिफ्ट हो जाती थी और 18 साल की उम्र में पेनेलपी जब पहली बार हिमाचल आयी थी तो उन्हें यह जगह ज़रा नहीं भायी। फिर कुछ साल यहां रहकर वे इंग्लैंड लौट गई।
अपने पहले प्रवास के दौरान 1931 में पेनेलपी ने अपनी मां के साथ एक खासा लंबा सफर तय किया था – शिमला से रोहतांग जोत तक 140 मील का लंबा फासला मां-बेटी ने खच्चरों की पीठ पर लदकर नापा था और वे जलोड़ी जोत को पार कर कुल्लू घाटी में पहुंची थी। रास्ते में रैस्ट हाउस और सर्किट हाउस उनके पड़ाव बने थे।
पेनेलपी 1963 में एक बार फिर कुल्लू आयी और खनाग, थियोग, नारकंडा, आनी होते हुए जलोड़ी जोत से उतरकर बंजार, औट, कुल्लू-मनाली पार कर रोहतांग दर्रे तक के अपने सफर को ताज़ा किया था। फिर तो आने-जाने का यह सिलसिला उनकी आखिरी सांस तक कायम रहा। कुल्लू के साथ उनका जुड़ाव गहरा होने लगा था और वे अक्सर खच्चर ट्रैक लेकर निकल पड़ती थीं। इस दौरान कुल्लू घाटी के मंदिरों और इस पूरे इलाके के बारे में उनकी जानकारी बढ़ती जा रही थी। वे हिंदी पढ़-समझ लेती थी और यात्राओं ने उनकी समझ को और बढ़ा दिया था। मां के साथ पहले ट्रैक को उनके बेहद दिलचस्प सफरनामे ‘कुल्लू – द एंड आफ हैबिटेबल वल् र्ड’ में पढ़ा जा सकता है।
पेनेलपी का सफर जारी रहा और कितने ही अखबारों-पत्रिकाओं में उनके सफरनामे छपते रहे और कुल्लू घाटी की रिवायतों से लेकर मंदिरों के वास्तुशिल्पों पर वे लगातार लिखती रहीं।
1985 में पेनेलपी और उनकी पोती 3-4 महीने भारत भ्रमण करती रही थीं। अप्रैल 1986 में वह पेनेलपी एक ट्रैकर टोली को शिमला से लेकर निकली। यह टोली बस से दलाश पहुंची जहां आगे की पहाड़ी यात्रा के लिए पोर्टर उनका इंतज़ार कर रहे थे। इस बीच, ज़मीन धसकने से जलोड़ी से गुजरना लगभग नामुमकिन हो गया। पोर्टरों ने एक लंबे रास्ते से होकर आगे जाने की सलाह दी। मगर पेनेलपी की जिद थी वे उसी राह से जाना चाहती हैं क्योंकि उन्हें उसी राह पर मुतिशर के एक मंदिर भी जाना था। बाकी टीम लंबे रास्ते से होकर आगे के लिए चल दी और पेनेलपी अपने दो अन्य साथियों के साथ मुतिशर के उस मंदिर पहुंच ही गईं। खच्चर से उतरकर वे मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ने लगी, तीसरी सीढ़ी पर रुककर उन्होंने सिर नवाया तो फिर कभी उठकर नहीं देखा। उनकी टीम में एक नर्स थी जो उन्हें उठने और आगे चलने के लिए पुकार रही थीं। लेकिन जब देर तक भी पेनेलपी ने कोई जवाब नहीं दिया तो नर्स ने जाकर उन्हें हिलाया। कुल्लू से अथाह प्रेम करने वाली उस काया में उस वक्त कोई हरकत बाकी नहीं बची थी। जल्द ही यह खबर खनाग तक फैल गई। गांववालों ने जैसे-तैसे लकड़ियां जोड़कर वहीं नज़दीक पेनेलपी का संस्कार कर दिया। और वह हमेशा के लिए यहीं की हो गईं।
खनाग के रैस्ट हाउस में खड़ा स्टोन मेमोरियल उस दिन देर तलक मुझसे पेनेलपी चेटवुड के कुल्लू प्रेम की कहानी कहता रहा था। पेनेलपी की इच्छा हमेशा से हिमालय की हवाओं में बस जाने की थी और वे अक्सर इस बारे में बातें करती थीं। ब्यास में उनकी रज भी इसी वजह से बहायी गई थी कि जिस जमीन ने उन्हें बार-बार पुकारा, उसी में वो हमेशा के लिए घुल जाएं।
उस कहानी को सीने में दबाए मैं लौट रही थी जलोड़ी की तरफ। अब तक ढाबों की छतों पर जमा हुए बर्फ के थक्के पिघलने लगे थे और रघुपर किले की राहे-गुज़र भी दिखने लगी थी। बर्फ के जो गलीचे सवेरे ही बिछे थे, इतनी जल्दी उठ जाएंगे सोचा नहीं था। पर मौसम तो ऐसे ही होते हैं न, बदलते-बहकते-बिगड़ते-बदमिजाज़ से!
जलोड़ी के उस तिराहे पर हमने भी ट्रैफिक जाम करने की ठान ली थी उस रोज़। शोजा से खनाग आती-जाती बसों-कारों को रोकने की जुर्रत का सबब इतना था कि हम घुमंतू लेखकों के ग्रुप The Travel Correspondents & Bloggers Group (TCBG) World की दूसरी सालगिरह के जश्न की मंजिल तीर्थन घाटी थी और जलोड़ी पास की बुलंदी पर इस यादगार तस्वीर को उतारना तो बनता था!
This visit was a part of the anniversary celebration of The Travel Correspondents & Bloggers Group (TCBG) World in collaboration with TIRTHAN ANGLERS’ RETREAT who generously hosted us over the entire weekend.
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