रीतियों—रिवायतों के गलियारों में सफर
मई की उस दोपहर जनपथ पर लगी प्रदर्शनी के एक-एक सैक्शन, फ्रेम दर फ्रेम, प्रतिकृतियों (replicas) के सामने से गुजरते हुए मैं उस धर्म और उसकी स्थापनाओं से पहली बार रूबरू हो रही थी जो ईसाईयत से करीब डेढ़ हजार साल पहले और इस्लाम की जड़ों के फूटने से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व ईरान के कबीलाई समाज का प्रमुख धर्म था। हिंदु और यहूदी धर्मों की तरह प्राचीन इस धर्म के बुनियादी संस्कारों को समझने के क्रम में आसानी से यह समझा जा सकता है कि कर्मकांडों, रीतियों-रिवाज़ों की सैंकड़ों साल पुरानी और जटिल प्रक्रिया आज भी कहीं से ढीली नहीं पड़ी है।
यह मौका था नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय (National Museum New Delhi) में लगी प्रदर्शनी (THE EVERLASTING FLAME: ZOROASTRIANISM IN HISTORY AND IMAGINATION) के बहाने पारसी समुदाय को करीब से देखने-समझने का, ईरान से हिंदुस्तान तक के उनके सफर को संजोकर रखने वाले किस्सा-ए-संजाण (Kisse-e-Sanjan) की गूंज को सुनने का, उन्हें सराहने का, उनकी जिंदादिली को सलाम करने का, उनके किस्सों और कहानियों में खो जाने का …
लंदन के ब्रुनई म्युज़ियम में 2013 में पहली-पहल दफा ‘द एवरलास्टिंग फ्लेम — ज़ोरोआस्ट्रियनिज़्म इन हिस्ट्री एंड इमेजिनेशन’ प्रदर्शनी को प्रस्तुत किया गया था। अपने अगले पड़ावों से होते हुए मार्च-मई 2016 तक इसे जनपथ के नेशनल म्युज़ियम की दीर्घा में जगह मिली जहां ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन; पारज़ोर फाउंडेशन और नेशनल म्युज़ियम आॅफ ईरान, तेहरान के सहयोग से 29 मई तक इसे देखा जा सकता है। भारत के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय और संस्कृति मंत्रालय ने मिलकर इसे ‘धरोहर परियोजना’ के तहत् प्रस्तुत किया है।
ज़ोरोआस्ट्रियज़िन्म (ज़रथ्रुष्ट्रियन) जैसे दुनिया के सबसे पुराने धर्मों में से एक, उसके अनुयायियों और उनकी अदब—तहज़ीब को टटोलती यह प्रदर्शनी इस धर्म के ऐतिहासिक विकासक्रम से गुजरते हुए मौजूदा दौर में पारसियों की हैसियत और अपने-अपने समाजों में उनके योगदान पर निगाह डालती हुई दर्शकों के दिलों में धीमे से उतर जाती है।
किसी प्रदर्शनी का ऐसा असर भी हो सकता है कि उसे देखने, उसमें प्रदर्शित जटिल परंपराओं को समझने के लिए एक ही इंसान बार-बार नेशनल म्युज़ियम की दीवारों के उस पार आता-जाता रहे, यह वाकई बहुत कुछ कह डालता है। मेरे साथ ऐसा ही कुछ हुआ और एक हफ्ते के अंतराल में तीन दफे इस प्रदर्शनी को देखने और प्रदर्शनी की को-क्यूरेटर की टॉक सुनने नेशनल म्युज़ियम के गलियारों से आर-पार होती रही।
कलात्मक वस्तुओं, साहित्यिक स्रोतों, सैंकड़ों साल पुरानी धार्मिक पाण्डुलिपियों, मूर्तिशिल्पों, और पेंटिग्स के जरिए यह प्रदर्शनी दर्शकों को दुनिया के सबसे पुराने धर्मों में से एक यानी ज़रथ्रुष्ट्रियन की ऐतिहासिक धरोहर को करीब से समझने के लिए आमंत्रित करती है। प्रदर्शनी को दस अलग-अलग भागों में बांटा गया है।
प्रदर्शनी की को-क्यूरेटर फिरोज़ा पी. मिस्त्री ने बताया कि यह पहला अवसर है जब सरकार की तरफ से पारसी इतिहास और संस्कृति की इतनी बड़े पैमाने पर प्रदर्शनी लगायी गई है। सिर्फ भारत सरकार ही नहीं बल्कि इंग्लैंड से लेकर उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, कोरिया, ईरान तक की सरकारों ने अपनी—अपनी ज़मीनों पर मौजूद पारसियों के ऐतिहासिक दस्तावेजों, धर्म गंथों, वस्त्रों, तस्वीरों, मूर्तिशिल्पों से लेकर अन्य कई मूल्यवान वस्तुओं को उपलब्ध कराया है जिनके जरिए पारसी जीवनशैली को समझना आसान हुआ है।
प्रदर्शनी के सात सैक्शन जरथ्रुष्ट्रियन समाज की ऐतिहासिक जड़ों की तरफ ले जाते हैं जबकि बाकी के तीन उनके रिवाज़ों-कर्मकांडों और जीवनमूल्यों, जीवनशैलियों पर केंद्रित हैं। अंतिम सैक्शन में प्रदर्शित अधिकांश वस्तुएं टाटा घराने के निजी संग्रह का हिस्सा हैं और भारत के इस मशहूर औद्योगिक घराने को नज़दीक से जानने-समझने का अवसर यहां मिलता है।
सदा—सर्वदा प्रज्ज्वलित होती लौ
प्रदर्शनी में अग्नि मंदिर (fire temple) की प्रतिकृति (रेप्लिका) आपको सबसे ज्यादा सम्मोहित करती है। अग्नि को समर्पित मंदिरों की परंपरा दरअसल, प्राचीन ईरानी घरों के चूल्हों में सदा जलती रहने वाली उस लौ से प्रेरित है जिसे किसी व्यक्ति के पूरे जीवनकाल में प्रज्ज्वलित रखा जाता था। चूल्हे की यह अग्नि घरों की दिव्यता को दर्शाती थी जिसे सुगंधित लकड़ी के अलावा अगरबत्तियों, लोबान की आहुति दी जाती थी।
इतिहास के कौन-से मोड़ पर यह दिव्य अग्नि घरों से निकलकर चाहरदीवारी में स्थायी रूप से प्रज्ज्वलित की जाने लगी, इसकी सही-सही जानकारी नहीं मिलती लेकिन प्राचीन ईरान के अंतिम ज़रथ्रुष्ट्रियन राज्यवंश सासेनिया की धार्मिक इमारतों में इसके शुरूआती स्वरूप दिखाई देने लगे थे। पारसी समुदाय के अग्नि को समर्पित ये धार्मिक परिसर ही उनकी एग्यिारी यानी अग्नि मंदिर कहलाने लगे। ईरानी ज़रथ्रुष्ट्रियन इन्हें अतश कदेह कहते हैं। हिंदुस्तान में पारसियों के गढ़ मुंबई में मानेकजी नवरोजी सेट द्वारा बनाए गए सबसे पुराने अग्नि मंदिर के अगले भाग को इन दिनों जनपथ पर देखा जा सकता है। ईरान के शहर करमनशाह में ताक-ए-बोस्तन के सासेनियाई गढ़ से प्रेरित मंदिर के इस अग्रभाग ने एक नई परंपरा को शुरू किया। और यह परंपरा थी आर्केमिनियाई तथा सासेनियाई काल के स्थापत्य-रूपांकनों (architectural motifs) को अग्नि-मंदिरों की दीवारों पर अंकित करने की। यानी वो जो पुराना था, प्राचीन था, पारंपरिक था उसकी निरंतरता को अग्नि मंदिरों के जरिए कायम रखा जाने लगा।
पारसियों का सफरनामा — किस्सा – ए – संजाण (The story of migration)
करीब ग्यारह सौ साल पहले समुद्री रास्तों से होते हुए भारत के पश्चिमी तट पर वलसाड़ के संजाण बंदरगाह पर कुछ जहाज़ आकर लगे। उन पर सवार जरथ्रुष्ट्रियन अनुयायी फारस में बर्बर इस्लामिक हमलों से बचकर भागे थे। भारत के जिस पश्चिमी किनारे पर ये सवार पहुंचे वह गुजरात का इलाका था जिसने अपने पुरखों की ज़मीन से उजड़े इन लोगों को शरण दी, बदले में इन प्रवासियों ने एक वायदा किया जिसे वे आज तक निभा रहे हैं। उस वायदे का किस्सा भी कम रोचक नहीं है। दरअसल, जरथ्रुष्टियनों की जुबान से अनजान गुजरात के तत्कालीन दीवान जादव राणा ने दूध का भरा लोटा उनके सामने कर समझाना चाहा कि उनकी ज़मीन पर कोई जगह किसी प्रवासी के लिए नहीं है। अपनी मातृभूमि से भागने का दंश अपने सीनों में छिपाए उस समुदाय के प्रतिनिधि ने मुट्ठी भर चीनी लोटे में घोलकर वो ऐतिहासिक संदेश दिया जो आज एक सह्रसाब्दि बीतने के बाद भी उतना ही सच है जितना तब था। वो संदेश था कि हिंदुस्तानी अगर लोटे में भरा दूध हैं तो हम प्रवासी यहां उसमें चीनी की तरह समाकर रह लेंगे। उस वायदे ने दीवान का दिल बदल दिया और बदले में हिंदुस्तान को मिला जरथ्रुष्ट्रियन यानी भारत में पारसियों का वो अनूठा समाज जिसका रुतबा, योगदान और सहयोग उनकी आबादी के आंकड़ों के हिसाब से कई-कई गुना ज्यादा है। यह किस्सा पारसी समुदाय के इतिहास को समेटने वाले दस्तावेज किस्सा-ए-संजाण में दर्ज है।
हिंदुस्तान में बसते हैं सबसे ज्यादा पारसी
आज ईरान से बाहर पारसियों का सबसे बड़ा गढ़ भारत है और यहां मुंबई, गुजरात, दमन-दीव के अलावा दिल्ली, उत्तर प्रदेश तक में वे बसते हैं। दसवीं सदी से तेरहवीं सदी तक पारसियों का अपनी पैतृकभूमि छोड़कर हिंदुस्तान के तटों पर पहुंचने का सिलसिला जारी रहा। कुछ समय बाद यहां से वे तालीम और कारोबारी ज़मीनों की तलाश में इंग्लैंश, चीन, अमरीका तक भी पहुंचे। पारसी जहां भी गए, उस ज़मीन में रच-बस गए, जैसे उसी के हो गए मगर कभी खोए नहीं। अपनी अलहदा पहचान, अपनी परंपराओं को उन्होंने संभाले रखा। इसी पहचान, रिवायत और संस्कारों की नुमाइश इन दिनों आप नई दिल्ली में जनपथ स्थित नेशनल म्युज़ियम में देख सकते हैं।
अपनी ट्रैवल ब्लॉगर बिरादरी के साथ हमने Museum Day 2016 मनाया नेशनल म्युज़ियम में इसी खास एग्ज़ीबिशन को देखते हुए।
चलते.चलते इस ऐतिहासिक प्रदर्शनी पर प्रकाशित किताब भी खरीद डाली और तभी से उसमें सिर घुसाए हूं, इस हद तक कि घर में मज़ाक चल निकला है … ज़रा अंदाज़ लगाइये क्या .. कहीं किसी पारसी के इश्क में तो गिरफ्तार नहीं हूं इन दिनों 🙂 वैसे अंदाज़ा गलत भी नहीं है, जिस काम में डूबती हूं उसी के इश्क में हो लेती हूं, इन दिनों पारसीनामा लिख सकती हूं, इस हद तक डूबी हूं इस विषय में।
Go visit The #EverlastingFlame,special exhibition on #Zoroastrnism,on view till May 29th at National Museum, New Delhi