Alka Kaushik

3 Days in the jungles of Asia’s first national Park

हम, तुम और कार्पेट साहब

कॉर्बेट नेशनल पार्क के ज्यादा लोकप्रिय टूरिस्ट ज़ोन्स झिरना या ढिकाला से गुजरने की जिस जिद को लेकर हम घरों से निकले थे वो भी हमारे रेसोर्ट के गाइड से कुछ पलों की बातचीत के बाद कभी की काफूर हो चुकी थी। अगले दिन सवेरे पांच बजे पार्क के सीताबनी ज़ोन में सफारी तय हुई। कॉर्बेट नेशनल पार्क का ये हिस्सा इससे पहले हम में से किसी ने नहीं देखा था। सुना था कि हाथी की सफारी के लिए मशहूर है सीताबनी, कि घने, उंचे साल के पेड़ों की छांव से गुजरना एकदम नायाब अनुभव है, कि जंगल का ये वाला हिस्सा सौंदर्य के नए प्रतिमान गढ़ता है। और दाबका नदी के उस पार नैनीताल की पहाड़ियों के पीछे से हौले-से झांकते उस दिन के सूरज ने सवेरे की जो बिसात बिछायी थी वो वाकई कह रही थी कि इससे पहले किस सौंदर्य के मोहपाश में उलझे रहे थे हम! दाबका के पानी पर उड़ते परिंदों के संसार से पहली-पहल दफा वास्ता पड़ा था, साल के पेड़ की उधड़ती छाल के पीछे से झांकते गड्ढे बता रहे थे कि कठफोड़वों के कितने घरौंदों, कितनी पीढ़ियों को पनाह देते आया था वो अकेला पेड़।

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और पेड़ से ठूंठ में बदल चुके कितने ही मंज़र हमने अपनी खुली जीप से पार किए थे। दीमकों के घरों में तब्दील हो चुके पेड़ अपनी हस्ती को मोड़-दर-मोड़ दर्ज करा रहे थे। तभी सर्र से एक सांप गुज़रा, जंगली मुर्गा सहमकर भागा, सांभर ने अंगड़ाई भरी और रास्ते से छिटककर दूर घास में गुम हो गया। जंगली सूअरों का एक झुंड रास्ते में गपशप में उलझा मिला लेकिन हमारी जीप देखते ही शरमाकर भाग निकला। एक मोर ने पंख फैलाकर हमारा स्वागत करने का साहस दिखाया लेकिन शायद हमारी ट्रैवल ब्लॉगर्स टोली के बड़े-बड़े डीएसएलआर कैमरों की गिरफ्त में आना उसे मंजूर नहीं था।

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जंगल की हर शय जैसे हमारे सामने इठलाती हुई गुजर रही थी।

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और हम बौराए हुए थे, कभी कैमरों के लैंसों से जूझते तो कभी स्मार्टफोन के बटन घुमाते और जब फिर भी तसल्ली नहीं मिलती तो हतप्रभ करते उन नज़ारों को सिर्फ खुली आंखों से अपनी यादों में उतारते।

सीताबनी के खूबसूरत जंगल में साल वृक्षों के साए में गुजरती हमारी जीपों से जो नज़ारा दिखा उस सुबह वो कुछ ऐसा था —

Morning safari in Sitabani Zone of Corbett national park

वीकेंड गेटअवे से कहीं ज्यादा है कॉर्बेट की दुनिया

हम दिल्ली से भागे थे या अपने आप से, मालूम नहीं। मगर भागने का कोई मलाल नहीं है। इतना कुछ हासिल किया उन तीन दिनों में कि उत्तराखंड से एक बार फिर प्यार हो गया है। बार-बार लौटने की कसमें उठा ली हैं। जिम कॉर्बेट पार्क की हदों को नापने-लांघते के बाद हमारी अगली मंजिल बना जिम कॉर्बेट म्युज़ियम।

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कालाढूंगी (छोटी हलद्वानी) में जिम कॉर्बेट के विंटर होम में अब कॉर्बेट की यादों को संजोकर रखा गया है। मछली पकड़ने का जाल, खुद कॉर्बेट के हाथों बनायी कुर्सी-मेज, उनके लिखे पत्रों की प्रतियां, आदमखोर बाघों को मारने की दास्तान … पूरे म्युज़ियम में जैसे जिम के बचपन से लेकर आखिरी लम्हे तक के चर्चे हैं।

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बेशक, म्युज़ियम शब्द को सुनकर जिस विराट, भव्य और बेहद तरतीबी से जमे दस्तावेजों, वस्तुओं वाली इमारत की तस्वीर ज़ेहन में उतरती है उससे एकदम उलट है कालाढूंगी का संग्रहालय।

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Former winter home of Jim Corbett, now converted into a museum @Kaladhungi

छोटी हलद्वानी में सड़क किनारे आम और लीची के पेड़ों से ढकी इस इमारत में किसी ज़माने में जिम कॉर्बेट अपनी बहन मैगी के साथ रहा करते थे। साधारण-सा दिखने वाला पहाड़ी बंगला ही आज जिम कॉर्बेट म्युज़ियम में तब्दील हो चुका है। लोगों का आना-जाना बराबर लगा रहता है जिसे देखकर हमें ‘कॉर्पेट साहिब’ की लोकप्रियता का अहसास नए सिरे से होता है। किसी ज़माने में चंपावत, बैचलर आॅफ पवलगढ़ और चौगढ़ के आदमखोरों से थर्राए उत्तराखंडियों के प्यारे ‘कार्पेट साहिब’ की स्मृतियों को जिंदा रखा है तराई में बसे इस कस्बे ने। म्युजियम में घुसते ही एक मिनी सुविनर शॉप है, इसमें घुसना न भूलें। कॉर्बेट की किताबों से लेकर पहाड़ी शहद, जूस, अचार के बहाने उत्तराखंड को अपने संग जरूर ले आएं।

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My “Carpet Sahib” mug from the Souvenir shop

बनाएं अपनी जंगल बुक

जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क की दिल्ली से दूरी महज़ 250 किलोमीटर है, यानी यही कोई 5-6 घंटों में आराम से इस सफर को पूरा किया जा सकता है। और यही वजह है कि यह ठिकाना वीकेंड गेटअवे के तौर पर मशहूर हो चुका है। पार्क से ही सटे रेसोर्टों की कतार आपको चुपके से कह जाती है कि कार्पोरेट दुनिया के थके-मांदे कितने ही बदन सुकून और रोमांच को अपनी यादों में संजोने यहां अक्सर आते हैं।

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Thatched roof cottages @Corbett Wild Iris Spa and Resort

होटलों-रेसोर्टों के इसी ‘जंगल’ को पार कर हम बढ़ रहे थे अपने ठौर यानी क्यारी गांव में खड़े कॉर्बेट वाइल्ड आइरिस स्पा एंड रेसोर्ट  की तरफ जहां तक सड़क तो पहुंचती थी लेकिन मोबाइल के नेटवर्कों की सांसें थमी-थमी रहती थीं।

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My cottage @Corbett Wild Iris Spa and Resort

गांव में शहतूत की कतारों को देखकर चौंके थे। आइरिस में हमारे गाइड ने इसका दिलचस्प राज़ बताया तो चौंके थे। इस गांव में रेशम पालन होता है और शहतूत की इन पत्तियों को रेशम के कीड़े को खिलाकर ही यह कुटीर उद्योग पनपता है। जंगल की सफारी से भी ज्यादा दिलचस्प हमें रेशम के कीड़े, कुकून और रेशम के धागों के बनने का सिलसिला लगा था। हमारे रेसोर्ट ने हमारी दिलचस्पियों को शायद पहले ही भांप लिया था। अगले दिन क्यारी की सैर के बहाने हम गुजरे थे उन्हीं शहतूत की गलियों से जो हिमालय के इस तराई वाले इलाके में समृद्धि की नई इबारत लिख रही हैं।

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An evening scene @Kyari village

गांव के एक सिरे पर बहती खिचड़ी नदी को टापते हुए हमें समझ में आया कि कई-कई धाराओं के मेल से बनी उस नदी का ‘खिचड़ी’ नाम कितना सार्थक है।

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Nature walk across river Khichdi near Iris. pic credit – Abhinav Singh

इसी नदी के एक मोड़ पर रिवर क्रॉसिंग, नज़दीक ही एक धार में बॉडी सर्फिंग, जंगल के मुहाने पर लैडर क्लाइंबिंग से लेकर बाइसिकल टूर तक कराए जाते हैं।

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Body surfing Image credit – Abhinav Singh

यानी, आपकी तनावभरी जिंदगी से दूर, क्यारी गांव में सजती है मस्ती की पाठशाला।

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Ladder climbing Image credit – Abhinav Singh

‘बैचलर आॅफ पवलबढ़’ से भी हुए हम रूबरू

कॉर्बेट की जिस दुनिया से मिलने आए थे उसके सिरे आसपास ही थे। दूसरे दिन कोटाबाग होते हुए पवलगढ़ फॉरेस्ट रेस्ट हाउस में पिकनिक का ‘षडयंत्र’ रचा गया था। यह वही रैस्ट हाउस था जिसमें कभी शिकार पर निकले कॉर्बेट रुका करते थे। इसके परिसर में घुसते ही अंगद के पैर-सा दिखता सेमल का विशाल पेड़ हमें अपने मोहपाश में डाल चुका था।

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उसके भूगोल-इतिहास से अनजान हमारे साथी झटपट अपनी कैमरों की निगाहों में पेड़ को समेटने में लगे थे। और हमारे गाइड ने जब यह राज़ खोला कि ‘बैचलर आॅफ पवलबढ़’ के नाम से मशहूर आदमखोर बाघ का शिकार इसी पेड़ के नीचे कॉर्बेट ने किया था तो रोमांच की एक लकीर अपनी सांसों में हमने महसूस की थी।

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और ठीक उस वक़्त इस अहसास ने हमें झिंझोड़ा था कि तराई के ज़र्रे-ज़र्रे में बाघ ही तो बसता है। हम बाघ से सीधे रूबरू होने की जिद न भी रखें तो भी यहां कदम-कदम पर उसी के किस्से हैं, उसी की कहानियां हैं, उसी की मिसालें और सीताबनी से बिजरानी टूरिस्ट ज़ोन तक सरपट दौड़ती जीपों में सवार सैलानियों की यादों में भी तो वही रहता है। बाघ का दीदार हो या न हो, जंगल का यह सम्राट खुद ही आपके दिलों-दिमाग पर कब्जा कर लेता है। और कॉर्बेट पार्क से आप लौटते हैं अपनी खुद की ‘जंगल बुक’ के साथ जिसमें कई-कई किरदार होते हैं, कई-कई किस्से होते हैं, उन किस्सों में लिपटा रोमांच होता है और उस रोमांच से पैदा हुई सिहरन आपको बार-बार लौटने को कहती है।

बिन मांगे एक सलाह दे दें, अगली बार उस तरफ जाना हो तो सीताबनी ज़ोन को खंगालने जरूर जाएं। और हां, टाइगर से मिलने की दिमागी जिद पाले बगैर। सिर्फ और सिर्फ जंगल से मिलने! मज़ा आकर रहेगा, वायदा है हमारा।

कैसे और कब जाएं जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क

1 अक्टूबर से 30 जून तक — हर दिन ( मानसून के दौरान नेशनल पार्क बंद रहता है )

पार्क में सफारी की बुकिंग — ढिकाला, झिरना, बिजरानी, ढेला और दुर्गादेवी में सफारी की बुकिंग की आनलाइन सुविधा उपलब्ध है। बुकिंग 45 दिन एडवांस की जा सकती है। ढिकाला ज़ोन की बुकिंग सिर्फ ढिकाला फॉरेस्ट लॉज में ठहरने वाले सैलानी ही करवा सकते हैं। सीताबनी ज़ोन के लिए फिलहाल किसी बुकिंग की आवश्यकता नहीं है।

सड़क संपर्क — दिल्ली से करीब 250 किलोमीटर दूर, कार—टैक्सी से आसानी से आने—जाने की सुविधा दिल्ली — हापुड़ — गढ़मुक्तेश्वर — मुरादाबाद बायपास — ठाकुरद्वारा — मुरादाबाद — रामनगर — जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क

नज़दीकी रेलवे स्टेशन — रामनगर

नज़दीकी हवाईअड्डा — पंतनगर 125 किलोमीटर दूर, भारत के शेष भागों से आने वालों के लिए दिल्ली, लखनऊ और देहरादून हवाईअड्डे प्रमुख संपर्क बिंदु हैं