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बंबई overwhelm करता है, अपनी खूबसूरती या बदसूरती या अपने पेशेवर अंदाज़ या अपनी बेफिक्री और बेताबियों से नहीं बल्कि कदम-कदम पर बदलते अपने तेवर से। शहर भर को पैदल या काली-पीली टैक्सियों से नापते हुए जो छवि बुनी थी मैंने वो ‘too-busy-to-care-what-you-do’ जैसी थी, लेकिन इसे दरकते हुए भी देखा था। मुंबई के फोर्ट इलाके में ठहरने के जिस होटल को चुना था वो हेरिटेज प्रॉपर्टी थी (Hotel Elphinstone Annexe), और मैं ठहरी हर पुरानी, ऐतिहासिक चीज़ की दीवानी। फौरन इस बुकिंग पर अटक गया था दिल। लेकिन तीन रातों के लिए बॉम्बे शहर में पनाह लेने से पहले ही इसी हेरिटेज प्रॉपर्टी ने दिल भी तोड़ दिया था। और कारण था ईमेल पर मिला मेरी बुकिंग के बदले ये संदेश –
हिंदुस्तान के सबसे तरक्कीपसंद शहर का होटल था वो जिसे बुक कराया था।
लॉबी से लेकर एप्रोच स्टेयर्स तक खूबसूरती से इतिहास की गवाह बनी हुई थीं। पुराने बॉम्बे शहर के इतिहास का बयान करने वाली तस्वीरों से इसकी दीवारें सजी थीं। और सच कहूं, मेरे लिए होटल न छोड़ने का सबब भी इसका यही हेरिटेज टैग था। कमरे से निकलने की देर होती और मैं कभी डाइनिंग हॉल की तरफ बढ़ते हुए या सीढ़ियों से उतरकर बाहर निकलते समय उन विशालकाय कैनवस को निहारती रहती जो होटल की दीवारों पर टंगे थे।
होटल में घुसते-निकलते हुए किसी शहर के अतीत में झांकने का मौका आसानी से मिलने लगा था।
और होटल की लोकेशन तो एकदम गज़ब थी। क्रॉफर्ड मार्केट से लेकर विक्टोरिया टर्मिनस, काला घोड़ा, एशियाटिक लाइब्रेरी, संग्रहालय, राष्ट्रीय आधुनिक कला दीर्घा से लेकर और बहुत कुछ था जो आसपास ही था।
लेकिन होटल के अजब-गजब नियमों को जानने के बाद यह सवाल उठना लाज़िम था कि हिंदुस्तान की financial capital होने का दावा करने वाले आधुनिकतम शहर में ‘नैतिकता’ का यह कौन-सा दौर चल रहा है। विक्टोरियाई नैतिकता से आगे बढ़े हैं हम कि नहीं?
मुंबई के दोस्तों को अपने कमरे में कतई नहीं बुला सकती थी। कमरे में सिर्फ वाइ-फाइ सिग्नलों को घुसने की मंजूरी थी, दोस्तों को नहीं .. उनसे होटल लॉबी में, सिर्फ सरेआम मिला जा सकता था।
तो यही है ”बॉम्बे मेरी जान” की खनक का खोखलापन
यात्राएं बहुत से सबक दे जाती हैं। इस बार के सफर ने तो बहुत-बहुत सबक दिए। हिंदुस्तान के दूसरे शहरों के होटलों में ठहरने से पहले कितना अहम् होता है उनके बेसिर-पैर के नियमों को जानना-समझना, कितना मुश्किल होता है ऐसे सिरफिरे फरमानों से निभाना और कितने बेबस होते हैं हम गैस्ट। पूरे सिस्टम से टकराने का माद्दा हर बार कहां होता है, कब होती है ले-देकर 72 घंटे के प्रवास में किसी पुराने, सड़े-गले नियम से उलझने की फुर्सत ?
ये कैसा नियम था जहां ठहरने के लिए मुझे अपने को टटोलना पड़ सकता था? ये कितना बेवकूफाना था खुद को यह समझाना कि हम 21वीं सदी में होते हुए भी उन पुरानी नैतिकताओं का बोझ ढो रहे हैं जिन्हें कभी का बेमायना हो जाना था।
उस रोज़ मैरीन ड्राइव पर समंदर की लहरों की उछाल देखती रही थी देर तलक, और अरब सागर के गंदले पानी की तरह ही मुझे उस शहर की आधुनिकता भी फरेब लगी। मगर हां, एल्फिंस्टन का वो हेरिटेज टैग सच था। 1947 में जिस इमारत को होटल का चोला पहनाया गया था वो दरअसल, एल्फिंस्टन कॉलेज की डॉरमिट्री हुआ करता था। शायद यही वजह थी कि पुराने-नए, नए-पुराने का इतना गज़ब का मेल था उसमें कि मैं जब-जब होटल शिफ्ट करने का मन बनाती तो उसका कोई जालिम फ्रेम अपने मोह में अटका लेता था। वो जो डाइनिंग हॉल में था फ्लोरा फाउंटेन का बड़ा-सा फ्रेम, शहर के बीच खड़े उस फाउंटेन के इतिहास की कहानी कहता वो फ्रेम … मुझे Elphinstone में रोक लेने का जिम्मेदार एक वही तो था!