दार्जिलिंग — चाय और विरासत के नाम एक सफर
लेबॉन्ग घाटी में उतरते हुए उस दिन का ढलता सूरज साथ था। घाटी के उस पार की पहाड़ियों के कंधों पर बादल टंग चुके थे और सूरज किसी तरह अपनी हस्ती को संभाले था। एक फीकी-सी केसरिया लपट से आसमान को रंगने की फिज़ूल कोशिश में लहूलूहान भास्कर देवता ने रुख्सती का ऐलान करने में ही भलाई समझी।
हमारी मंजिल तक अभी भी कुछ लम्हों का फासला बाकी था और अगला मोड़ मुड़ते ही हम एक चाय बागान में उतर चुके थे। बागान की कच्ची सड़क पर हिचकौले खाते हुए हमारी ज़ायलो आगे बढ़ती रही। दोनों तरफ चाय की झाड़ियां थी, हर पेड़ तराशा हुआ था जैसे किसी सैलून से ताज़ा-ताज़ा निकला हो। हर पत्ती करीने से जड़ी थी। ”यहां आज ही प्लकिंग (तुड़ान) हुई है, अब एक हफ्ते बाद इन पेड़ों का नंबर आएगा। तब तक फिर से ताज़ा पत्तियां और कली तैयार हो जाएंगी।” बागडोगरा हवाईअड्डे से दार्जिलिंग की लेबॉन्ग वैली तक हमें ले जा रहे हमारे ड्राइवर बिडवान की कमेंट्री जारी थी।
बिडवान ने हमें बागडोगरा पर ही आ घेरा था, हमारे होटल के नाम की पट्टी पकड़े एयरपोर्ट पर उसका चेहरा देखते ही सुकून मिला था कि अब आगे दार्जिलिंग की पहाड़ियों-घाटियों के नज़ारे जी-भरकर देखेंगे, बिना मंजिल की परवाह किए।
सुखना से कुर्सियांग की पहाड़ी ढलानों का रूमानी सफर
सुखना पार करते ही घुमावदार पहाड़ी सड़कें शुरू हो चुकी थीं। मानूसन ने चारों तरफ की पहाड़ियों का कायाकल्प कर दिया था, आंखों में सिर्फ हरा ही हरा समा रहा था। आगे कुर्सियांग की तरफ बढ़ती पहाड़ियों पर कुछ धुंध की परतें बिछी थीं तो कहीं सड़कों पर एकाएक उड़कर—तिरकर आए बादलों ने सफर का मूड बनाना शुरू कर दिया था। कुर्सियांग टूरिस्ट लॉज हमारा पहला पड़ाव बना। पश्चिम बंगाल सरकार ने बेहद मौके की जगह पर इसे बनाया है। बागडोगरा से निकलकर, दार्जिलिंग की तरफ बढ़ते हुए लगभग मिडवे पर टी-लंच ब्रेक के लिए एकदम मुफीद ठिकाना।
लॉज की टिन की छतों पर टुपुर-टुपुर का संगीत बज रहा था। फुहारों की वजह से हवा अब कंपाने लगी थी। बाहर निकले तो सड़क पर गज़ब ही नज़ारा था। आसपास के किसी स्कूल की छुट्टी हुई थी और पूरी सड़क दूर-दूर तक बच्चों और उनके सिरों पर टंगी रंगीन छतरियों से अटाक थी। ट्रैफिक के सिपाही ने मोटर गाड़ियों को रोक दिया था और सड़कों पर वर्दियों और छतरियों का ‘ट्रैफिक’ क्या दिलचस्प कैनवस बना रहा था। हमें लग गया था अब पर्यटन असल मायने में शुरू हो चुका है।
कुर्सियांग के मायने बिडवान से पूछे तो उसने अपने बंगाली होने का हवाला देकर टाल दिया। ‘मैडम जी, लेपचा भाषा का शब्द है …हमको मालूम नहीं’। इतनी सी बातचीत में मतलब-वतलब बेशक न सही मगर हमें कुर्सियांग का इतिहास याद आ गया। कुर्सियांग किसी ज़माने में सिक्किम राजशही का हिस्सा था। यह तब की बात है जब अंग्रेज़ों ने भारत में पैर नहीं रखे थे। अठारहवीं सदी के आखिरी दशकों में नेपालियों ने कुर्सियांग और आसपास के इलाकों को अपने कब्जे में ले लिया और इस तरह गुरखे भी इस ज़मीन से जुड़ गए। आगे चलकर गुरखा युद्ध में नेपालियों के हाथ से कुर्सियांग जाता रहा और यह फिर से सिक्किम के चोग्याल के कब्जे में चला गया। अंग्रेज़ों को दार्जिलिंग की आबो-हवा इतनी जमी कि उन्होंने चोग्याल से कुर्सियांग और आसपास का कुछ हिस्सा सालाना किराए पर ले लिया। शायद तभी से ये इलाके हिल स्टेशन के तौर पर साख जमाने लगे।
चाय की शान में सफर
इस बीच, चाय की शान में शुरू हुए सफर की पहली मंजिल हमारे कदमों तले बिछी थी।
यह दार्जिलिंग के लगभग सबसे बड़े चाय बागानों में से एक है – गिंग टी एस्टेट। मेरे सामने सिर्फ हरे गलीचे बिछे थे, करीब छह सौ एकड़ में फैले हुए चाय बागानों की शक्ल वाले गलीचे। चाय की मेरी दीवानगी हौले-हौले परवान चढ़ रही थी। कुछ ही मिनटों में हमने खुद को एक हेरिटेज बंगले में पाया।
1864 में इस चाय बागान में पहली बार चाय के पौधे रोपे गए थे और तभी डायरेक्टर्स बंगला भी तैयार हुआ था। अब डायरेक्टर तो नहीं रहे लेकिन उनके बंगले को हेरिटेज रिट्रीट की शक्ल मिल चुकी थी। बस यही होगा अपना ठिकाना अगले 48 घंटों के लिए।
दार्जिलिंग की जिस चाय की महक दुनिया जहान में फैली है उसकी शुरूआत जिन ठिकानों पर हुई थी, वहां-वहां हम पहुंच रहे थे। चाय की शान में इतना तो बनता है। दार्जिलिंग के चाय बागानों की खाक छानते हुए चाय की ताज़ी पत्तियों को चुनते हाथों की लय-ताल को करीब से सुना। उन मेहनतकश औरतों को सिर पर छाता ताने हुए पीठ पर लटकी टोकरियों को पत्तियों से लबालब करते देखा।
ये पत्तियां चाय फैक्टरियों से होते हुए हमारे-आपके ड्राइंग रूम में पहुंचने से पहले जिस लंबे सफर से गुजरती हैं, उसे देखना-समझना वाकई एक अलग अनुभव था। मगर उसकी कहानी फिर सही। फिलहाल तो हम उन सड़कों पर दौड़ेंगे जो हमें अगले पड़ाव पर ले गईं।
दार्जिलिंग में टी-शॉपिंग
दार्जिलिंग की माल रोड अब उस रोमांस का आभास नहीं कराती जैसा कभी पहाड़ी स्थलों पर हुआ करता था। वैसे अब तमाम पुराने हिल स्टेशनों का कमोबेश यही हाल है। लेकिन हम शायद किस्मत वाले थे, दनादन बारिश के उस मौसम में सैलानियों का अकाल था। बादल, धुंध, बारिश और छतरियों से ढके माल रोड पर नगर निगम ने एक बड़ी-सी स्क्रीन टांगी थी। कुछ देर थमकर उसी स्क्रीन पर डिस्कवरी का सांप-अजगर की कोई डॉक्यूमेंट्री देखी और जब बूंदों की मार के आगे छतरी ने घुटने टेकने का ऐलान किया तो हम चाय की दुकान में घुस गए।
दुकान के बोर्ड पर हाउस आफ टी छपा देखकर मुड़ गए थे जो गुडरिक टी एस्टेट का आउटलेट था। नज़दीक ही मिला एक और टी बुटिक जिसमें तीस हजार रु प्रति किलो तक की चाय बिकती देखकर होश फाख्ता हो चुके थे। चाय का इतना मोल! मालूम था कि दार्जिलिंग के ढलानों पर उगी चाय अंतरराष्ट्रीय बाजारों में काफी दाम दिलाती है, मगर हमारे घरेलू बाजार में, वो भी दार्जिलिंग की माल रोड पर चाय इतने मंहगे दाम पर इतराती होगी,यह उसी दिन मालूम हुआ था।
चाय है हुजूर, कोई दिल्लगी का सामान नहीं, आपके बिगड़े मिजाज़ से लेकर बिगड़ी तबीयत तक का अदद साथी; कभी अकेलेपन का भागी तो कभी आपकी महफिलों को सजाने वाली। दिनभर टी फैक्ट्री में जिस चाय को सूखते-निखरते और पैक होते देखा था अब उसे बाजारों में बिकते देखने का अनुभव निराला था। रिटेल बुटिकों में चाय की अकड़ देखते ही बनती थी।
दार्जिलिंग की पहाड़ियों पर चाय और विरासत को गले लगाकर लौटते हुए मन भारी हो गया था, उसी तरह जैसे लगेज का वज़न बढ़ चुका था। सूटकेस में चाय के पैकेट, चाय बुटिकों से खरीदे डिजाइनर कप, इंफ्यूज़र लद चुके थे और हमारी यादों में बसंत, बारिश और शरद ऋतु में पैकेट बंद हुई चाय की पत्तियों की महक कैद थी। और जीभ पर उन अनगिनत चाय के प्यालों का स्वाद टिका था जो बीते हफ्ते हमारी यादों का हिस्सा बन चुकी थीं।
चाय की हर पत्ती का होता है नसीब जुदा
चाय की हर पत्ती अपने नसीब के साथ पनपती है। नहीं क्या? वो किसके हाथों चुनी जाएगी, किसके प्याले में महक और रंग और स्वाद बढ़ाती हुई किस बदन को सुकून से तर-बतर कर जाएगी, किसे मालूम है। चाय की दो पत्तियों और कली के इस सफर को बीते महीने दार्जिलिंग के चाय बागानों के कितने ही दौरों में कितनी ही बार टटोला। कितने ही टी पैकेट हमारे सूटकेस में समाए और कितने ही इंफ्यूज़र-कप हमारी रसोई तक पहुंचे। लोकल कारीगर के हुनर, उसकी मेहनत, जज़्बे और कड़े श्रम का एक मोल यह भी है कि जब सफर पर जाएं उसका सामान जरूर खरीद लाएं। हम तो खरीदकर अमीर होते ही हैं, उन हाथों को भी सहारा देते हैं जो उस हुनर से जुड़े हैं। रिस्पॉन्सिबल टूरिज़्म, इको-टूरिज़्म कोई लफ्फाज़ी नहीं है, बस ऐसे ही इन्हें बढ़ावा मिलता है।
दार्जिलिंग — कुछ जरूरी बातें
नज़दीकी हवाईअड्डा: बागडोगरा (65 किलोमीटर, 2.5 घंटे)
नज़दीकी रेलवे स्टेशन: जलपाईगुड़ी (107 किलोमीटर)
कब जाना है सबसे मुफीद: बारिश पसंद है तो जुलाई से सितंबर के महीने उपयुक्त हैं, मार्च—अप्रैल और सितंबर—अक्टूबर में आसमान साफ रहता है और मौसम भी खुशगवार हो जाता है
सर्दियों के महीने: नवंबर से फरवरी
कैसे कपड़े हैं जरूरी: बारिशों में मोटे सूती कपड़े और सुबह—शाम हल्की जैकेट/शॉल—स्वेटर
सर्दी: भारी, उनी कपड़े
पर्यटन को दें नया तेवर: दार्जिलिंग को हिल स्टेशन के तौर पर देखने की बजाय टी—टूरिज़्म और हेरिटेज टूरिज़्म की मंजिल के रूप में टटोलें
कितना समय काफी है: कम से कम 3 दिन 2 रातें
रुकने के ठिकाने: हर बजट के मुताबिक ठहरने के विकल्प उपलब्ध, अगर कुछ अलग देखना—अनुभव करने का मन हो तो होटलों की बजाय होम—स्टे (अमूमन सस्ते ) या चाय बागानों में हेरिटेज प्रॉपर्टी काफी मंहगा विकल्प (1 दिन का खर्च 15-16 हजार रु से शुरू ) चुनी जा सकती है
खरीदारी: चाय बागानों की सैर पर निकलें और अलग—अलग किस्म की चाय खरीदें