Book Review: ‘अपने खुद के शब्दों में — लता मंगेशकर’ | प्रकाशक: नियोगी बुक्स
मूल लेखक: नसरीन मुन्नी कबीर | हिंदी अनुवाद: पी श्याम | कीमत: 750
नई-नकोरी किताब जिस दिन घर आती है, उस दिन खाना पकाने में लेट हो जाती हूं। और आज तो एक पुरानी किताब ने घेर लिया, ऐसा घेरा कि खाना बना ही नहीं ! सुबह जैसे ही स्वर कोकिला की मृत्यु का समाचार मिला मैंने अपनी बुकशैल्फ में बीते दो साल से संभालकर रखी उस किताब को अपने सिरहाने लाकर रख लिया जिसका ज़िक्र आज बहुत जरूरी है।
दरअसल, हिंदी की दुनिया में इतनी बढ़िया प्रोडक्शन क्वालिटी बहुत कम ही किताबों के मामले में दिखी है। दूर क्यों जाना है, कितनी कॉफी टेबल बुक्स देखी हैं आपने जो हिंदी में छपती हैं? हिंदी की पब्लिशिंग बिरादरी को कभी अपने पाठकों पर इतना भरोसा ही नहीं हुआ कि शानदार, बेहतरीन, उम्दा, लाजवाब जैसे विशेषणों से सजी—धजी क्वालिटी की किताबें उन्हें सौंपे। तो ऐसे में ‘अपने खुद के शब्दों में — लता मंगेशकर’ ने मन मोह लिया। झक् सफेद कवर पर ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर में दो चोटी गूंथे लता की जवानी की तस्वीर, जिसमें वो सीधे हमारी आंखों में झांक रही हैं, आकर्षित करती है। फिर किताब का नसरीन मुन्नी कबीर के साथ साक्षात्कारों की श्रृंखला पर आधारित होना भी इसके वज़न में इज़ाफ़ा करता है। आप पन्ने पलटते हैं तो लगता है जैसे किताब मैली हो जाएगी। ग्लॉसी पेपर में मोतियों से जड़े हैं हर्फ़। और लता की ज़िंदगी के बीते अस्सी साल आपकी आंखों से गुजरने लगते हैं।
जो लोग मुंबइया फिल्मी संगीत में दिलचस्पी रखते हैं, उनके लिए यह संग्रहणीय हो सकती है। वैसे भी इतनी खूबसूरत छपाई हिंदी पाठकों को कम ही देखने को नसीब होती है। लिहाज़ा, किसी के भी बुकशैल्फ की शान होती हैं ऐसी किताबें। आश्चर्य नहीं कि नियोगी बुक्स एक के बाद एक अपनी किताबों के जरिए यह जादू करते चले आ रहे हैं। अक्सर बुक स्टोर्स से, किताबों के मेलों से विषय पसंद आते ही उनकी किताबें लपकने—लूटने में ज़रा देर नहीं करती हूं। क्वालिटी की गारंटी मिलती है। अब हो सकता है आप पूछें कि किताब के कन्टेंट पर उसकी प्रोडक्शन क्वालिटी कैसे हावी हो सकती है? बेशक, आप सही हैं, विषय और विषय का ट्रीटमेंट बहुत मायने रखता है मगर जब किताबें लुग्दी कागज़ की तरह होती हैं, तो उन्हें पढ़ते हुए खुद के कमतर होने का अहसास हमेशा तारी रहता है। लगता है, लानत है जो आज भी एक ढंग की किताब हाथ में लेने की औकात नहीं पायी। इसके उलट, ऐसी बेहतरीन किताब को पढ़ते हुए दिमागी खुराक के साथ-साथ भावनात्मक मरहम भी लगता रहता है। सौंदर्य तो जीवन के हर पहलू में अच्छा लगता है, तो फिर अगर किताब भी सुंदर हो तो मज़ा दोगुना-चौगुना हो जाता है। बस, यही वजह है कि ‘नियोगी बुक्स’ की किताबें पसंद आती हैं।
मैं इसे इलस्ट्रेटेड बुक कहूंगी, ढेरों तस्वीरों के संग टैक्स्ट बोझिल नहीं लगता। ब्रिटिश-भारतीय फिल्म निर्माता, निर्देशक और लेखक नसरीन मुन्नी कबीर की इंटरव्यू सीरीज़ पर आधारित है किताब। इसे लेकर उम्मीद जगती है क्योंकि नसरीन के पास साक्षात्कारों का एक बेहतरीन शास्त्र है। वह कहती हैं – ‘Don’t be a fan; never be bigger than your subject’, और लता मंगेशकर के मामले में भी अपनी इसी छड़ी का सहारा नसरीन ने लिया है। लिहाज़ा, किताब शोध-परक है, उसमें काफी कुछ है जो हिंदुस्तान की इस स्वर-कोकिला के जीवन की अंतरंग झलक दिखाता है। हां, कुछ नहीं है तो वो है मिर्च-मसाला, बेवजह के विवाद जिनके दम पर अक्सर अपनी कृतियों को बेचने की हुड़क इन दिनों रचनाकारों को लग चुकी है। मगर नहीं भूलना चाहिए कि मसाला ही रस की उत्पत्ति भी करता है, स्वाद और महक बढ़ाता है। इस किताब को पढ़ते हुए कई बार फकफकापन महसूस होता है और कहीं-कहीं बोझिल भी हो जाती है। उसका सबब शायद यह भी हो सकता है लता को लेकर दीवानगी जैसा भाव मैंने कभी महसूस नहीं किया। स्वर की मिठास का जहां तक सवाल है तो श्रेया घोषाल और उससे भी पहले कविता कृष्णमूर्ति और उससे भी पहले सुमन कल्याणपुर की आवाज़ों की दीवानी मैं रह चुकी हूं। और जहां तक आवाज़ में ख़नक की बात है, तो आशा भोंसले और सुनिधि चौहान के पास कहीं ज्यादा रेंज है।
खैर, विषय-वस्तु के अलावा एक और बात जो हिंदी के ज़हीन पाठक को किरकिरी की तरह लगेगी, वह है इसकी कृत्रिम भाषा। अनुवाद के स्तर पर किताब बेहद कमज़ोर साबित हुई है। वर्तनी और वाक्य-विन्यास के मामले में अटपटापन सारा मज़ा खराब कर डालता है। मुझे भरपूर यकीन है कि नसरीन ने अंग्रेज़ी में जो टैक्स्ट लिखा होगा वो दिलचस्प रहा होगा, हिंदी तक आते-आते उसकी हवा निकल गई है। भाषायी अनुवाद की चौधराहट दिखाने वाले तो कई मिल जाते हैं, मगर प्रभावित हो विरला ही कर पाता है। ऐसा ही कुछ ‘अपने खुद के शब्दों में – लता मंगेशकर’ के साथ हुआ है जो अंग्रेज़ी से होते हुए हिंदी के अपने सफर को पूरा तो कर पायी लेकिन मुझ सरीखे पाठक को अपनी भाषा से निराश करती है।
आखिर कौन भाषा प्रेमी होगा जो टैक्स्ट के नाम पर गूगल ट्रांसलेट से तसल्ली पाएगा!
बहरहाल, किताब अपनी जगह है, लता की आवाज़ का जादू अपनी जगह।
नमन, सुर सम्राज्ञी !