बहारें अब भी आएंगी!
“O, Wind, if winter comes, can spring be far behind?”
महसूस किया आपने कि कोरोना के विलाप को किस चतुराई से दबा रहा है बसंत का अट्टहास? तमाम अनिश्चितताओं और मनहूसियतों के बीच बसंत की इठलाहट बदस्तूर जारी है। क्यारियों में पेटुनिया, गुलमेंहदी, गुलाब, सदाफूली, गेंदे, जीनिया टंगे हैं तो गुड़हल, बॉटल ब्रश, कचनार की शाखों पर भी ज़माने भर के रंग जमा हैं।

और सेमल के लंबे-तंगड़े ऊंचे दरख्तों पर तो बड़े-बड़े लाल कटोरे जैसे फूल भी चुपके से टंक चुके हैं। पतझड़ में फना हो रही इसकी पत्तियां जाते-जाते कलियों के कानों में चटकने का मंत्र फूंककर जो गई थीं। इधर गर्मी चढ़ रही है, उधर सेमल के फूलों पर शबाब बढ़ रहा है। इन फूलों में बंद मकरंद के भंवर चूमते भौंरे-मधुमक्खियां गश खाकर निढाल हुए जाते हैं। तो भी कुदरत कब थकती है उन्हें रसपान के न्यौते देने से।

आंगन में खड़ा दसहरी का मलंग पेड़ अपनी मंजरियों के साथ दिनभर झूमता-इतराता है। बाजू वाले लंगड़े पर बेशक इस दफे बहार उन्नीस है, मगर उसे गुरूर इस बात का है कि कोयल उसकी पत्तियों में छिपकर कूकने लगी है। और सामने वाले बगीचे में शहतूत ने क्या खूब हरा रंग ओढ़ा है, न जाने कौन-सा फिल्टर कुदरत ने बरता है कि हमारे इंस्टा के मेफेयर—लुडविग जैसे तमाम फिल्टर भी पीछे छूट गए हैं! बस कुछ दिनों की बात है, फिर शरबती शहतूतों पर भी मधुमक्खियों से लेकर मुहल्ले के बच्चे धावा बोला करेंगे।
और इन दिनों कीकर की कमसिन पत्तियां देखी क्या? इत्तू-इत्तू सी हैं मगर ऐसी लिपटी पड़ी हैं कि कुदरत उनके मरोड़ खोलने के लिए जैसे हर दिन दिहाड़ी का ठेका उठाए हुए है। विश्वविद्यालय से बुद्धा गार्डन, धौला कुंआ होते हुए फरीदाबाद, मानेसर, जयपुर तक सरेआम कीकर पर उतरे यौवन को नहीं देखा आपने तो क्या बहार देखी?
मध्य भारत से दक्षिण तक पलाश दहकने लगें हैं तो भला महुवा क्यों पीछे रह जाए? सुबबूल भी फूल आए हैं। कश्मीरी गाइड और ड्राइवर फैज़ल रुंधे गले से बताते हैं कि तमाम आफतों से गुजर रही कश्मीर घाटी में भी खुशनुमा मौसम की आमद है और उसके संग चले आयी है बहार। यों वो मौसम अब कहां रहे जब बादाम के शगूफे फूटते थे और बादामवारी में रौनकों के संग—संग नौबहार के मेले लग जाते थे। तो भी बहार को कब इंकार हुआ है आने से। वो तो हौले से आड़ू, नाशपति, स्ट्रॉबरी, चेरी, सेब से लेकर गुलाब, गुलनार, डेज़ी, थाइम और एडलवाइस जैसे फूलों पर मंडरा रही है। ट्यूलिप की क्यारियां भी क्या खूब गदरायी हैं। श्रीनगर से अफ्गानिस्तान तक और ईरान से नीदरलैंड्स तक ट्यूलिपों पर यौवन उतर आया है।

कश्मीर में जबरवान से लेकर ईरान में ज़गरोस तक की पहाड़ियां जंगली ट्यूलिप के खेतों को तकने लगी हैं। समां कुछ और होता तो लोगों के सिलसिले भी इन जगहों पर होते, मगर अब तो बहारों के इन मंज़रों पर सिर्फ वीरानियां हैं।

गांव से दादी का संदेशा आया है कि बुरांशों ने उत्तराखंड की वादियों को रंगना शुरू कर दिया है। यह मौसम का ही तो असर है। यह भी कि यहां के गांव-कस्बों में फूलदेई का पर्व अभी-अभी बीता है। दादी के बाग-बगीचों में काफल, लोकाट, नींबू, पुलम पर भी फूलों-फलों की सुगबुगाहट है।
जानते हैं मेघालय से न्यूयार्क, कनाडा, ब्राजील, जर्मनी, तुर्की, स्पेन, आस्ट्रेलिया और टोक्यो को कौन एकसूत्र में पिरोता है? चेरी ब्लॉसम (साकुरा)। जापान में नौकरी कर रही दोस्त रुचिरा ने लंबी सांस भरकर बताया है कि जापान इस साल कोरोना की दहशत के बीच, बेशक हानामी नहीं मना रहा, मगर चेरी के दरख़्तों पर खूब बहार आयी है।

यह कि इस देश में ‘हानामी’ की परंपरा करीब-करीब एक हज़ार साल पुरानी है जिसमें लोग चेरी के बगीचों में, खान-पीन, पार्टी, पॉटलक, पिकनिक यानी मेल-मोल के लिए जुटते हैं। हानामी बोले तो साकुरा पर लदे फूलों को निहारना। रात होते-होते साकुरा के पेड़ों पर रोशनियों की लड़ियां टंग जाती हैं और तब समां और भी रोमांटिक हो जाता है। जापान में इस रात की हानामी को एक अलग नाम दिया गया है – योज़ाकुरा ।
बहरहाल, गुलमोहर फिलहाल दम साधे खड़ा है क्योंकि उसके कंधों पर और भारी जिम्मेदारी है। बहार की इस पहली पारी के थककर चूर हो जाने पर केसरिया और पीले गुलमोहर ही पूरी फिज़ा दहकाएंगे। जेठ की तपती दुपहरिया में अमलतास की पीली झालरों संग जुगलबंदी होगी। शायद कोरोना भी तब तक हार मान चुका होगा। कुदरत का श्रृंगार तब और भी जरूरी होगा।
वक़्त की तमाम गुस्ताखियों के बीच मुझे अपने आंगन से गुजर रहे बसंत में एक उम्मीद दिखायी देती है। हर बार की तरह इस साल भी बहार मनहूसियतों पर भारी है, वही तो मरहम है इस दौर में भी। द प्रिंट हिंदी ने भी मेरे इस ख्याल को कुछ यों प्रकाशित किया है –
कोरोनावायरस के हार मानने के बाद जो बहारें आएंगी सभी को उसका इंतज़ार होगा
That’s great
आपने तो coronavirus के बाद एक नई बहार की उम्मीद जगा दी।
यह बहार बाद की बात नहीं, कोरोनावायरस के इम्तहान के संग—संग जारी है। कुदरत का मरहम है..