A journey to the the lost trading town of God’s own country
पेरियार की लहरों पर अतीत की सवारी
बीते दो दशकों में केरल के समुद्र तटों, बैकवॉटर्स, पहाड़ों और मसाला बागान पर्यटन को सैलानियों ने इतना खंगाला है कि अब राज्य में पर्यटन अपने रटे—रटाए मुहावरों से बाहर फिसलने को बेताब है। ऐसे में राज्य और केंद्र सरकार समेत यूनेस्को की अनूठी मुज़िरिस विरासत संरक्षण परियोजना (Muziris Heritage Project)मालाबार तट से लेकर यूरोप-अफ्रीका तक फैले प्राचीन मसाला व्यापार मार्ग को पुनर्जीवित करने की अनूठी मिसाल है ..
मुज़िरिस के इसी तट पर पहुंचने की आस लिए कोच्चि में डेरा डाला था। मैं इस अहसास से रोमांचित थी कि ‘गॉड्स ओन कंट्री’ का दम भरने वाले केरल में एक दिन इस पोत शहर (port town) के नाम होने जा रहा था।
मुज़िरिस (Muziris: a brief history)
केरल के इस बंदरगाह शहर के इतने चर्चे थे कि 1 ई. के यात्रा वृत्तांत पेरिप्लस एंड द एरिथ्रियन सी में भी इसका जिक्र मिलता है! रोमन प्रकृतिवादी प्लिनी द एल्डर ने, जो 23ई से 79ई के बीच जीवित थे, अपने विश्वकोश ‘नैचुरल हिस्ट्री’ में ‘प्रीमियम एंपोरियम इंडीयी’ यानी भारत के पहले एंपोरियम के रूप मुज़िरिस का उल्लेख किया है। यह 8-9 सदी ई.पू. में मालाबार तट पर किलोल कर रहा ऐसा पोत शहर था जो उस ज़माने में किसी ‘ग्लोबल मॉल से कमतर नहीं था। यह वो दौर था जब कारोबारी दुनिया के दिग्गज मसालों-जड़ी बूटियों की सुगंध का पीछा करते हुए समुद्री रास्तों की चुनौतियों को झेलकर मालाबार तट पर दस्तक दिया करते थे।
केरल के मुचरी (मुचरीपत्तनम) शहर (जिसे Greco-Romans मुज़िरिस पुकारा करते थे) के अफसाने 14वीं सदी तक दुनियाभर में गूंजते थे। और जब ज़माना बड़े गौर से उसकी दास्तान सुन रहा था तो एकाएक वो शहर चुप हो गया। धरती की एक करवट के साथ वक़्त की तहों में कहीं गुम गया। पूरी दुनिया हैरान थी कि चीन, रोम, मिस्र, मैसोपोटामिया, पुर्तगाल, असीरिया तक की सरज़मीं से केरल की पेरियार नदी के तट पर जमा होने वाले कारोबारियों की पदचाप से धड़कता-चहकता शहर एकाएक कहां खो गया।
फिर 21वीं सदी में एक रोज़ आसमान और धरती का मिलन कुछ यों हुआ कि पाट्टनम की ज़मीन ने वो सारे राज़ खुद-ब-खुद उगल दिए जो वो बीते 700-800 वर्षों से अपने सीने में दबाए थी। उस रात बरसता आसमान मिट्टी की निचली परतों में दफन उन रंग-बिरंगे मोतियों को उघाड़ने में जुटा था जिनके तार दो हजार साल पुराने रोमन साम्राज्य से जुड़े थे। बारिश से धुली-धुली ज़मीन पर बिखरे अलग-अलग आकार और रंगों के उन मोतियों से पाट्टनम के लोग खुश थे लेकिन वो इस बात से बेज़ार थे कि कांच और पत्थरों के वो मोती ही दरअसल, केरल को भूमध्यसागरीय धरती से लेकर उत्तरी अफ्रीका और पश्चिम एशिया तक की धरती से जोड़ते थे।

कोच्चि में बोलगाट्टी पैलेस से मुज़िरिस प्रोजेक्ट को नापने के सफर की शुरूआत इतनी टेढ़ी होगी, इसका अंदाज़ मुझे ज़रा नहीं था। होटल स्टाफ में किसी ने भी ‘मुज़िरिस’ पहले कभी नहीं सुना था। पड़ताल के सिलसिले शुरू हुए, टैक्सी वाले, जेट्टी वाले, यहां तक कि होटल के सफाई कर्मचारी, खाना बनाने वाले तक से पूछताछ हो गई। कितने ही फोन नंबर मिला लिए गए। रिसेप्शनिस्टों के चेहरों पर शिकन की लकीरें उभर आयी थीं, किसी भी फोन संदेश के उस पार से मुज़िरिस की राह दिखायी नहीं दे रही थी। फिर भी उंगलियां थीं कि एक के बाद एक नंबरों को घुमाने में लगी थीं। रिसेप्शन डेस्क को बेशक, मेरी मंजिल का पता मालूम नहीं था लेकिन वहां तक मुझे पहुंचा देने की उनकी कोशिशों ने मुझे नतमस्तक कर दिया था। यह केरल का दूसरा पहलू था, जो इसे बहुत खास बनाता है। हम इसे Human By Nature कहते हैं।
आखिरकार मुज़िरिस हेरिटेज प्रोजेक्ट का पता मिल गया। कोच्चि से पनवेल-कन्याकुमारी हाइवे यानी एनएच66 पर होते हुए हमें करीब 25 किलोमीटर दूर परवूर सिनागॉग तक जाना था। वहीं नज़दीक परवूर जेट्टी से हॉप-आन हॉप-ऑफ बोट की सैर शुरू होती है।
पता मिलने की देर थी कि मैं और मेरी कैब केरल की सर्पीली सड़कों को नापने लगे थे। परवूर के बाज़ार की रौनक को नापते-टापते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। परवूर सिनागॉग की तलाश हमें एक पुरानी, धुली-धुली सफेदी और सादगी में नहायी इमारत के ठीक सामने ले आयी थी। यह कोट्टायिल कोविलाकुम का चेंदामंगलम सिनागॉग था जिसे मुज़िरिस विरासत संरक्षण परियोजना के तहत् अब केरल ज्यूज़ लाइफस्टाइल म्युज़ियम भी कहा जाता है।

वक्त़ के गुबार में खो चुके 17वीं शताब्दी के इस यहूदी प्रार्थनागृह को केरल सरकार ने सहेजकर इसमें एक छोटा म्युज़ियम भी तैयार किया है और अब यहां केरल में शुरूआती यहूदी जीवन की झलक देखी जा सकती है।
यहां सेअगली मंज़िल यानी नज़दीक बने परवूर सिनागॉग चले आए थे। इस प्रार्थनागृह को अब ज्यूइश हिस्टॉरिकल म्युज़ियम में ढाला गया है।

मैं तैयार थी पेरियार की लहरों पर अतीत की सवारी के लिए
पेरियार तट पर परवूर विजिटर्स सेंटर जेट्टी, कोट्टापुरम मार्केट जेट्टी, गोथुरुठ जेट्टी, पालियम जेट्टी जैसे कितने ही ठिकानों से इन नौकाओं में सवार हुआ जा सकता है। परवूर सिनागॉग में ही टिकट काउंटर बना है, टिकट खरीदा और एक गाइड साथ हो लिया।
पेरियार के पानी पर सालों से टकटकी लगाए खड़े चाइनीज़ जालों के सिलसिले शुरू हो चुके थे। एक अजब सफर की शुरूआत थी जिसमें मछुआरे थे, मछलियों की गंध थी, मसालों की महक थी, इतिहास और विरासत के झोंके थे और कहीं पेरियार नदी और अरब सागर का संगम था। इंसानी बस्तियों से निकलकर मछुआरों की मंडियों तक की यात्रा थी, प्राचीनतम बाज़ार की रौनक थी, विरासतों की बची-खुची खुरचन थी और कितने ही मंदिर, चर्च, मस्जिद, सिनागॉग और संग्रहालय थे जो केरल के बीते तीन हजार वर्षों की दास्तान सुना रहे हैं।
कुछ मिनट पेरियार की लहरों पर तैरने के बाद हमारी नौका किसी पुराने चर्च या संग्रहालय के ठीक सामने रुकती थी। जलमार्ग के जरिए विरासतों से मिलने का यह अंदाज़ मेरे लिए नया था। अभी तक वेनिस की नहरों का जिक्र सुना था लेकिन केरल में नदी मार्ग पर होते हुए यों जिंदगी से मिलना भी कम खास नहीं था।

अगला पड़ाव पालिपुरम था। पेरियार के इस तट पर मिथकों में लिपटा आवर लेडी ऑफ स्नो चर्च पूरी शानो-शौकत के साथ खड़ा था। वाइपीन द्वीप पर 1507 में पुर्तगालियों ने इस चर्च का निर्माण कराया था जहां आसपास के इलाके (मुज़िरिस) से ईसाई आकर बस गए थे।
Basilica of our lady of snow, Pallipuram (Muziris)
3 से 4 घंटे की बोट राइड में हर 15-20 मिनट पर पड़ाव बनाए गए हैं जिनमें चर्च, संग्रहालय, मस्जिद, सिनागॉग, किले वगैरह शामिल है। पेरियार की लहरों पर तैरती एयरकंडीशंड बोट केरल की जिंदगी दिखलाती चलती है।
गांवों, पाठशालाओं, मछुआरों की बस्तियों, मछली मंडी को पार करते हुए एक दिलचस्प गांव से गुजर रही थी हमारी स्पीड बोट। यहां केरल के अलावा कर्नाटक, तमिलनाडु जैसे पड़ोसी राज्यों के लिए नौकाएं बनायी जाती हैं। टी-बड़ी, लाल-पीली-नीली जाने कितनी ही तरह की नौकाओं को बनते देखना एक दिलचस्प अनुभव होता है।
इसे पार कर कोट्टापुरम के उस ऐतिहासिक बाजार में पहुंचते हैं जो संभवत: हिंदुस्तान का सबसे प्राचीन बाजार है। सैंकड़ों साल पहले मुज़िरिस के इसी बाजार में मसालों-हाथी दांत, जड़ी-बूटियों जैसी वस्तुओं के बदले विदेशी सिक्कों, वाइन, पॉटरी आदि की खरीद-फरोख्त हुआ करती थी। अब सिर्फ सोमवार और बृहस्पतिवार को यह बाजार सजता है, बस फर्क इतना है कि अब यहां खरीदार स्थानीय लोग ही होते हैं।
इस बाजार के बाद पेरियार पर दाहिने मुड़ते ही लाल बलुआ पत्थरों की पुरानी दीवारों के अवशेष अपनी तरफ ध्यान खींचते हैं।

यही कोट्टापुरम का वो ऐतिहासिक किला है जिसे 1523 में पुर्तगालियों ने बनाया था, जो कोझिकोड के ज़मोरिन शासकों और कोच्ची के राजाओं के बीच कितनी ही जंगों का साक्षी रहा और आखिरकार डचों का इस पर कब्जा हो गया। लेकिन यह कब्जा भारी जंग के बाद ही मुमकिन हुआ था और उसमें किला काफी हद तक नष्ट हो गया। पेरियार के मुहाने पर खड़े इस किले का इस्तेमाल डच नदी पर दूर तक आते-आते कारोबारी जहाज़ों पर नज़र रखने के लिए करते थे।

केरल का यह हिस्सा आम सैलानीगाहों से अलग है। यहां कान लगाकर सुनेंगे तो गुज़रे वक़्त की पदचाप अब भी सुनी जा सकती है। हज़ारों साल पहले जिस इंसानी सभ्यता ने पेरियार के तार सुदूर मेसोपोटामिया से जोड़े थे, यूनान तक जिसका कारोबारी नाता था, जो अफ्रीकी बंदरगाहों से हाथ मिलाया करता था, वो Human By Nature, ही तो था! तब से आज तलक, केरल दूर देशों तक के यात्रियों को अपनी इसी खास जीवनशैली से लुभाता आ रहा है। यह जीवनशैली प्रकृति और मनुष्य के साहचर्य का परिणाम है। इसकी एक बानगी इस वीडियो में भी देखी जा सकती है-
डिस्क्लेमर: पोस्ट केरल टूरिज़्म के साथ सहयोग से प्रकाशित, लेकिन हमेशा की तरह अनुभव, विचार, राय और शब्द मेरे हैं।