हिमालय की फिज़ाओं में
चौमासे में पहाड़ की यात्रा? बड़ा वाजिब सवाल था और हमेशा की तरह मेरे पास जवाब नहीं था। सफर सिर्फ सफर के लिए होने लगते हैं जब तो वजह तलाशनी मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो जाती है।
कभी-कभी यों ही, बेवजह भी कुछ करना चाहिए। नहीं क्या? दोस्तों-रिश्तों से तसल्ली से ‘कनेक्ट’ होने की खातिर। घर और काम से फुर्सतें चुराकर कुछ रोज़ के लिए सही, ऐसी मोहलतें निकाल लेनी चाहिए। मेरा तो फलसफा यही है, और आपका?
यही किया हाल में जब जिंदादिल दोस्तों के हंसी-ठट्टों से जिंदगी को गुलज़ार करने निकल पड़ी थी और शरण ली थी हिमालय की गोद में। मालूम था कि रास्ते भर गप्पें होंगी, ठहाके लगेंगे, किस्सों-कहानियों की फुलझडि़यां फूटेंगी और जगह-जगह रुककर रास्तों से मुखातिब होने के बहाने होंगे। ऐसे में savaari car rental से इनोवा की सवारी तय की और हम दौड़ पड़े थे कोट नैकाना * की तरफ।
पहाड़ों की पुकार थी कि हमारे मन में तैरते लालच, तय कर पाना मुश्किल था। दिल्ली की हदों को जल्द पीछे छोड़ देने का एक ही नुस्खा मुझे आता है, और वो है सुबह जितना जल्दी हो सके इसकी सड़कों को नाप लेना। उस दिन भी हमने सात बजते-बजते हिंडन को लांघ लिया था और फिर गढ़मुक्तेश्वर पर गंगा से भी विदाई लेकर आगे के हो लिए। अमरोहा-ज़ोया-मुरादाबाद को पीछे छोड़ चले थे हम। मैदानों से पीछा छुड़ाकर पहाड़ों के हो जाना चाहते थे। सुकून की सवारी पैरों के नीचे हो, मंजिलों के ख्वाब आंखों में और यारों की यारियों में खो जाने के जादुई पल, जीने को और क्या चाहिए!

दिल्ली से यही कोई 10 घंटे के सफर के बाद हम पहुंच चुके थे अल्मोड़ा के गांव कोट नैकाना। देवदार, चीड़ और बांज-बुरांस से ढकी ढलानों को पार करते-करते सूरज कभी का अलविदा कह चुका था। अब तक हमारे स्मार्टफोन की स्क्रीन में बचे-खुचे सिग्नलों की भी धज्जियां उड़ चुकी थीं। बारिश ने हमारे आशियाने तक पहुंचने वाली आखिरी 5 किलोमीटर की डर्ट रोड का जो हाल किया था उस पर कार की सवारी डराने लगी थी। जैसे-तैसे कुछ और दूरी नापी। आखिरी एकाध किलोमीटर पैदल निकल जाने में ही भलाई दिखी थी। अब तक पहाड़ में सफर का रोमांच पूरी तरह से हावी हो चला था। मेरे पहाड़ी दिल को सुकून मिला था, शहर से इतनी दूर निकल आने और हिमालय की चोटियों को चूमकर मेरे गिर्द बह रही हवा को महसूसने का सुकून था वो। लगा था, जैसे फिर कोई लौटा लाया है वहीं जहां मैं हर बार खुद को छोड़ आती हूं।

पुष्पांजलि (co-founder, Kot Naikana By Mountainways) ने उस खूबसूरत रेसोर्ट को हमारे नाम कर दिया था। और हम थे कि कमरों में अपना लगेज पटककर उस सर्द रात भी बाहर निकलने की बेताबी को रोक नहीं पा रहे थे। रेसोर्ट का डाइनिंग हॉल इस लिहाज से मौके की जगह पर था। बाहर के नज़ारों को जज़्ब करने के लिए रेसोर्ट की सबसे मुफीद जगह यही है। धन सिंह ने उस रात हमारे लिए स्वाद और सुगंध के थाल सजाए थे। रास्ते भर पुष्पांजलि ने अपने इस रेसोर्ट के रखवालों से संपर्क साधे रखा था और उसकी ताकीदों का ही लुत्फ हम ले रहे थे। वो भूख थी, थकन या खुद को अल्मोड़े के पहाड़ों के बीच पाकर तृप्त मेरी आत्मा का नृत्यगान था कि नींद काफूर हो गई थी। डाइनिंग हॉल में ठंड से किटकिटी बंधी तो हम अपने कमरों में चले आए। खुली आंखों से जिन सपनों को पूरा होते देख रही थी उन्हें बंद करने का वक्त आ चुका था, और मैं सपनों की एक और बस्ती में उतर गई थी।
कोट नैकाना की घाटियों के उस पार है स्वर्ग की खिड़की
अगले रोज़ पहला सवेरा पहले रोमांस-सी ताज़गी लिए आया था। मानसूनी बादलों की धींगामस्ती न होती तो मेरे कमरे की खिड़की से पंचचूली की चोटियों का दीदार होता, लेकिन कपास का कंबल ओढ़े खड़ी उन वादियों ने सूरज से भी पंगा लिया था उस दिन। वो दुबका रहा था किसी कोने में, बारिश और ओस की नमी की परवाह किए बगैर अपने चाय के प्यालों संग हम बाहर गिरने-कूदने लगे थे। एक बार फिर डाइनिंग हॉल की शरण ली थी। ‘राग महफिल’ फिर बजने लगा था और वादियों ने मुस्कुराकर हमसे गुफ्तगू की पहल की थी।
हमने भी यों ही फुर्सतों के नाम कर डाला था पहाड़ों की गलबहियों में झूलता अपना वो दिन। कहीं नहीं दौड़ेंगे, कुछ भी देखने नहीं जाएंगे, कोई सैर-सपाटा नहीं …. खुद से खुद ने वायदे कर डाले थे और तालमेल देखिए कि हम चारों यारों ने ऐसा ही किया था। गज़ब केमिस्ट्री थी वो, ठीक उतनी ही दुर्लभ जैसी सदियों में एकाध दफा बुध-बृहस्पति के मंगल के सीने पर से गुजरने वाले किसी नज़ारे बुनता पहर होता है।
सुबह उठकर अपना लिहाफ समेटकर अगले रोज़ लौटने का वायदा कर चली गई थी और धूप की कनातें टांगकर एक नयी दोपहरी हमारी किस्मत से आ जुड़ी थी।

धन सिंह की रसोई सूनी दिखी तो हम कुछ उलझन में आ गए थे। पहाड़ की हवा-पानी में भूख खुलकर जो लगती है।
”आज कुमाउंनी रसोई सजायी है धन सिंह ने अपने घर। बस, कुछेक मोड़ मुड़कर, नीचे गांव में है उसका घर, चलेंगे न आप लोग?’’ पुष्पांजलि किसी देवदूत-सी लगी थी मुझे जिसने हमारे मन को ताड़ लिया था।

कुछ देर में हम चल पड़े थे उस गांव की रसोई में पके दाल-भात संग झोली, ककड़ी के रायते, चौलाई के साग और भांग की चटनी, मडुवे की रोटी और झंगोरे की खीर का भोग लगाने। धन सिंह और उसका पूरा परिवार हमें जिमाने में जुट गया था, फिर आंगन में बर्तनों को मांजने-धोने में जुट गई थी उसकी पत्नी। काम जैसे काम नहीं था, मेहमाननवाज़़ी के सुख में डूबा था वो घर और उसका आंगन।
मुस्तैद हिमालय की गोद में हम बच्चे बन इठलाते घूमते रहे थे। शाम उतरने से पहले एक नन्ही पहाड़ी पर जा बैठे। हिमालय की सोहबत का रंग हम पर चढ़ने लगा था।
अल्मोड़ा की सांस्कृतिक विरासत का दीदार
अगला दिन अल्मोड़ा बाज़ार के नाम करने की ठानी थी। एक बार फिर इनोवा की गोद में जा बैठे थे, सुख था कि एक ऐसी गाड़ी साथ ले आए हैं जिसके साथ कोई झमेला नहीं था। पूरे सफर की हमसफर थी वो। भले से लगते हैं ऐसे समाधान जो Savaari outstation cabs ने जुटाए हैं हमारे जैसे आवारागर्द पैरों के लिए। हमने उस रोज़ माल-बाल-पटाल वाले अल्मोड़े में हेरिटेज वॉक चुन ली थी। पुराने लाला बाज़ार में चहकते फिरे थे।

इसी बाज़ार में है लाला जोगा साह की दुकान। उत्तराखंड की बाल मिठाई ईजाद करने वाले इस मिष्ठान्न भंडार से जी-भरकर मिठास अपनी सांसों संग उतार ली थी।
बाल मिठाई तुलवायी, सिंगोड़ी की महक फेफड़ों में उतारी और पटाल बिछी गलियों पर आगे बढ़ चले।

फिर फिर मां नंदा देवी मंदिर के प्रांगण में उतरी धूप को मुट्ठियों में भरा और चल दिए गए एक और भव्य अतीत से मिलने।

अल्मोड़ा से रविंद्रनाथ ठाकुर से लेकर पंत, उदयशंकर, ज़ोहरा सहगल, विवेकानंद तक का वास्ता रहा है। कितने ही साहित्यकारों की शरणस्थली रह चुकी है यह नगरी।

हम इसकी गलियों से वाकिफ होने के बाद कटारमल के सूर्य मंदिर जा पहुंचे। पूरे हिंदुस्तान में सूर्य मंदिरों को उंगलियों पर गिना जा सकता है। ऐसे में कुमाऊं में भगवान आदित्य की आराधना के लिए समर्पित इस विरासत से मिलना सुखद था।
शहर से कुछ बाहर निकलकर, एक ऊंची पहाड़ी पर है यह मंदिर समूह। एक नहीं कई-कई मंदिर हैं इसके आंगन में, यों कुछ के भग्नावशेष ही रहे हैं, कुछ क्षत-विक्षत हैं, मूर्ति-विहीन हैं, और आज बीते युग की गवाही देते मूक स्मारक भर हैं। एक ही मंदिर में पूजा होती है।
दिन ढलने से पहले हमें लौट जाना था, अपने आशियाने में। मगर रास्तों पे मंज़र ऐसे हों तो लौटने की घड़ी टलती रहती है।
रफ्ता रफ्ता दिन गुजर रहे थे और यादें जमा हो रही थीं। रोड ट्रिपिंग के यकबयक बने एक प्लान ने हमें हिमालय की फिज़ाओं में चार दिन गुजारने का मौका दिया था। मौका था एक बार फिर हिंदुस्तान के मोहपाश में पड़ जाने का, दोबारा उन सड़क यात्राओं में खो जाने का जिनके दम पर अपने वतन को दुनिया में बेजोड़ कहते आए हैं कबसे।
सच ही तो है, सड़क यात्राएं ख्वाबों की तामील सी होती हैं, और उन ख्वाबों के सिरे बुनने के लिए सही साधन, गज़ब के दोस्त, हसीन आशियाने भी जुड़ जाएं तो यादों के बक्से में मधुर सुर-तालों का खज़ाना जुड़ता ही चला जाता है।
*How to reach Kot Naikana By Mountainways Homestay (www.mountways.com)
By road – Delhi-Hapur-Mooradabad-Nainital-Almora-Kot Naikana (approx 400Kms/10 hrs road trip)