सूर्यनगरी जोधपुर का अलबेला सफर
क्षितिज पर ऐसी शाम उतरते देखी है जब अस्तांचल सूरज की आखिरी किरणों पर संगीत की स्वरलहरियां सवारी करती हैं? और ऐसी शाम के रात में बदलने की कल्पना की है जब मारवाड़ के महरानगढ़ दुर्ग की महराबों के उस पार से तकते चांद की रोशनाई में पुर्तुगाल के फादो संगीत या मेवाड़ की मीराबाई के विछोह गीतों और आपके दरम्यां कोई फासला न रह जाए … जब किसी तानपूरे पर छेड़ा स्वर आपकी श्रवण इंद्रियों में दाखिल हो और आप किसी दिव्य अनुभव के साक्षी बन जाएं… जब जैसलमेर का मूमल या बीकानेर का बन्ना गीत आपके होंठों पर संगीत जड़ दे और सुदूर अफ्रीका के किसी लोकगीत के संग-संग आप भी थिरकने लगें? … यकीन मानिए, यही जिंदगी का परम आनंद है! बाकी सब फरेब है!
इसी परम आनंद के साक्षी बनने के लिए शरद पूर्णिमा के चांद की राह तकते हैं हम हर साल। इधर आसमान में साल का सबसे उजला, सबसे चमकदार चांद टंगता है और उधर जोधपुर शहर में महरानगढ़ दुर्ग की दीवारें कमायचा, कश्मीरी रूबाब, डफ, सारंगी, घटम्, खड़ताल, बांसुरी, गिटार, संतूर, अजरबैजानी टार, गिटार जैसे कितने ही वाद्यों की स्वरलहरियों में गुम होने को बेताब होने लगती हैं!

बीते अक्टूबर के आखिरी हफ्ते में जोधपुर रिफ ( Jodhpur RIFF ) के बहाने मेरा अलबेला सफर शुरू हो चुका था और सात सुरों पर उतराते-तिरते हुए ही मुझे मारवाड़ की इस ‘ब्लू सिटी’ के दूसरे आकर्षणों से भी मुखातिब होना था। और हां, रंग-रंगीले साफों और जूतियों समेत जोधपुरी पारंपरिक परिधानों में सजे-धजे पुरुषों की महरानगढ़ में परेड के साथ ही मारवाड़ उत्सव की शुरूआत भी इसी दिन होती है। यानी, सूर्यनगरी आने का समय शुरू होता है अब।
कैर-सांगरी के बहाने
शहर के सर्किट हाउस, छावनी, सेनापति भवन जैसी इमारतों के सिलसिले पार कर हम पोलो हेरिटेज होटल में डेरा डाल चुके थे। डाइनिंग हॉल में नाश्ते की मेज पर पोहा, परांठा, ब्रेड-जैम का जिक्र उस पहली ही सुबह मुझे उकता गया था। मारवाड़ी धरती पर प्याज़-कचौड़ी से आगाज़ करने की योजना बनते ही ज़मींदोज़ हो गई थी। और रसोई में कैर-सांगरी का कोई नामलेवा भी नहीं था। खैर, सामने परोसा भोजन मां अन्नपूर्णा की कृपा समझकर ग्रहण किया और खुद से एक वायदा ले लिया कि अगला हर कौर सिर्फ और सिर्फ ‘ऑथेंटिक मारवाड़ी’ होगा, वरना न होगा!
सुस्ताने के बहाने हज़ार मिलेंगे, यह सोचकर हम उस रोज़ नाश्ते की मेज से सीधे शहर दर्शन के लिए निकल पड़े। लहरिया दुपट्टे-साडि़यां और रंग-बिरंगे सूती लंहगों की खरीदारी के बहाने घंटा घर से त्रिपोलिया बाज़ार खंगाल डाले। सुन रखा था कि बंधेज की जन्मस्थली जोधपुर ही है, सो अपनी वार्डरोब को कुछ रंग-रंगीला बनाने के इरादे से हम इन बाज़ारों में ही मंडराते रहे थे, तब तक जब तक कि दोबारा भूख ने मचलकर हमें राजस्थानी बेसन गट्टे और कैर-सांगरी की याद नहीं दिला दी। रेतीला राजस्थान इस लिहाज से एकदम मस्त प्रदेश है कि यहां हम वेजीटेरियन जीवों के लिए एक से एक नायाब व्यंजनों की कमी नहीं है। स्ट्रीट फूड की बहार है और स्वाद ऐसा कि भोजन हजम होने के बाद भी जीभ पर उसकी याद चिपकी रह जाती है।
हम अपनी जिंदगी अगले चार-पांच रोज़ खालिस राजस्थानी व्यंजनों के नाम लिख चुके थे। पहला अड्डा भवानी दाल-बाटी था। सोचा तो था कुछ हल्का लंच रहेगा मगर इसके साथ भी अचार, चटनी और छाछ की जुगलबंदी चली आयी थी। एक भारी-भरकम लड्डू भी इठलाता हुआ थाली के बराबर आ बैठा था। मां अन्नपूर्णा की कृपा जारी थी।
ब्लू सिटी में थमी—थमी सी है जिंदगी
न मालूम क्यों मुझे महानगरों की हदों से दूर बसे शहरों से खास लगाव है। उनकी खुद में खोए-खोए, कुछ उंघते-अलसाए रहने की फितरत जैसे हम शहर वालों से बस यही कहती है कि थोड़ा रुककर, संभलकर जी भी लो, कुछ तो ऐसा कर लो कि तुम्हारी सांसों को मलाल न रह जाए कि किस फर्राटा दौड़ते जिस्म से बंध गई थीं! मारवाड़ का यह हिस्सा भी अपनी तमाम अलमस्ती में, अपनी सुस्ती में और रफ्ता-रफ्ता सरकते दिन और सांझ के बीच भरपूर जिंदगी जी लेता है। जैसे हम जी रहे थे मरुथल की रेत से ठिठुराती रातों और झुलसाते दिनों के दरम्यां अटके रह गए वक्फों को। दिन में बाज़ार की रौनकों को अपनी यादों में समेटकर मैं होटल लौट उन पर चादर तानकर सो गई थी। अगले कुछ रोग रतजगा जो करना था – जोधपुर रिफ की महफिलों का हिस्सा बनने की खातिर।
ब्लू सिटी में पहली ही शाम रिफ की खास महफिल ‘लिविंग लेजेंड्स’ में शामिल होने पहुंच गई थी। महरानगढ़ के चोकालाव बाग में राजस्थान की लोक गायकी के आकाश के चमकदार सितारे उतरे थे ज़मीं पर। जैसलमेर के स्वर्ण किले की सुनहरी दीवारें जिस कमायचा के सुरों को बरसों से सुनती आयी हैं उसी के तराने लेकर खुद दापू खान जोधपुर चले आए थे। छोटी-सी काया में सिमटे दापू खान राजस्थान के लोक संगीत की दुनिया के उस वाद्य को जिंदा रखे हैं जिसे बजाने और बनाने वाली उंगलियों को अब चंद उंगलियों पर गिना जा सकता है।

मारवाड़ के उस दुर्ग की वो शाम कालबेलिया, जोगी और मांगणियार धुनों में गुम हो रही थी। जब महफिल उठी तब तक सूरज किसी दूर देश का वासी बन चुका था, मगर डूबते दिन के संग-संग ही शरद के चांद ने अपनी लालटेन जला ली थी और दुर्ग रजत उजास में लिपटा इतरा रहा था।

अब संगीत के कद्रदानों ने मेन स्टेज का रुख किया और हांफते हुए मैं भी दुर्ग की पथरीली चढ़ाई पर बढ़ चली। हालांकि ऊपर पहुंचने के लिए एक लिफ्ट भी थी मगर हम सैलानियों के उत्साही कदमों ने कम से कम एक बार उसे ठेंगा दिखाने की ठान ली थी। मेहरान कैफे और म्युजि़यम जैसे आकर्षणों को उस दिन मुझे अनदेखा करना पड़ा था। इस बीच, ज़नाना ड्योढ़ी को पार कर सजे मेन स्टेज से कश्मीरी सुफियाना धुनें मचलने लगी थीं। यह ‘अलिफ’ बैंड था और संगीत के बहाने रूहानी अहसास से भिगो रहा था। फिर ईरानी वाद्ययंत्र ‘ टार’ की तारों पर छिड़ी धुनों और ईरान के सूफी गायक की दिलफरेब आवाज़ पर सवार होकर रूमी के लफ़्ज़ दीवाना बनाते रहे। उस रोज़ सात सुरों पर थिरकता मेरा मारवाड़ी राग आधी रात तक जारी रहा था। वैसे भी जोधपुर में मेरी जिंदगी एक अलग ही ढर्रे पर बढ़ रही थी जिसमें शामें और रातें सुरों को समर्पित थीं और दिन में कदमों ने शहर की खाक छानने की जिद पकड़ ली थी।
इश्किया मंदिर से खिचिया पापड़ की दौड़
राजस्थान मुझे विरोधाभासों का गढ़ लगता है। परंपराओं में लिपटा ऐसा प्रदेश जिसके आकर्षण में विदेशी पर्यटक बरसों से बंधे चले आ रहे हैं। पश्चिमी राजस्थान में बसे जोधपुर में खड़ा है भव्यता की पराकाष्ठा का प्रतीक बन चुका उमैद भवन जिसमें शादी रचाने कभी एलिज़ाबेथ हर्ले पहुंचती है तो इन दिनों प्रियंका-निक की शादी की यहां चर्चा है। और इसी जोधपुर में है इश्किया गजानंद मंदिर जहां प्रेमी जोडि़यां जन्म-जन्मांतर के रिश्ते में बंधने की आस लिए हर बुधवार हाजिरी लगाती हैं। प्रेममग्न जोड़ों के लिए यह गणेश जी का खास मंदिर है जोधपुर में तो सैक्स गॉड भी यहां हैं। नवचौकिया चौक में विराजमान इलोजी लोक देवता को ही गॉड ऑफ सैक्स का दर्जा हासिल है और नवविवाहित जोड़े सुखद वैवाहिक जीवन के लिए इलोजी देवता का आशीर्वाद लेते हैं। मंदिरों की रेल-पेल का समां कुछ ऐसा है नीली नगरी में कि गली-गली में मंदिर है। कहीं दीवार पर उग आए पीपल पूजने के लिए तो कहीं किसी लोक विश्वास की खातिर छोटा-बड़ा मंदिर खड़ा है। भोग और योग का ऐसा अद्भुत संगम बहुत कम दिखाई देता है।
जोधपुर में मंदिरों के साथ-साथ साल भर उत्सव हैं। और है खान-पान की समृद्ध विरासत। मंदिरों के बाद हमने इसी विरासत को टटोलने का मन बनाया था और जा पहुंचे जिप्सी ढाबे पर। यहां की जोधपुरी थाली का लुत्फ लिए बगैर लौटना सरासर गुनाह है। जोधपुरी खिचिया और चक्की की सब्जी का स्वाद लेना न भूलें। और अभी घंटा घर पर मिसरीलाल की जोधपुरी लस्सी भी बाकी थी। शाम की चाय संग चौधरी के मिर्ची बड़े भी दिमाग में अटके हुए थे। हमें भी अगले दो दिन कुछ और नहीं करना था – दिन में खानी-पीनी राग और शाम से रात तक संगीत राग!
महफिल-ए-थार से प्रभाती राग तक
मैं तो जोधपुर सिर्फ और सिर्फ इसी एजेंडा के साथ आयी थी कि लंगा-मांगणियार और कालबेलिया कलाकारों को उनकी ही धरती पर सुनूंगी फिर चाहे इसके लिए रतजगा ही क्यों न करना पड़े। और आंखों में नींद की उधारी लिए ब्रह्ममुहूर्त में जगने का सौभाग्य भी तो लूटना था? महरानगढ़ से सटे राव जोधा पार्क में आधी रात को जब महफिल-ए-थार उठी तो दो-चार घंटे की नींद चुराकर मैं अलस्सुबह फिर जग चुकी थी। अब जसवंत थड़े पर सुरनाई, सिंधी सारंगी और कमायचा की जुगलबंदी मुझ सरीखे रसिकों को अपने मोहपाश में बांध चुकी थी। भोर के रागों के साथ प्रभातवेला के सजने की साक्षी बनी थी मैं उस रोज़।
और मैंने अपनी आंखों से देखा कि जोधपुर के बाल सूर्य को जब लय-ताल-सुरों की बंदिशें दुलराती हैं तो वो कैसे किसी दूर देश से मटकता चला आता है। इधर ब्लू सिटी जग रही थी और उधर जोधपुर के इस इंटरनेशनल म्युजि़क फेस्टिवल में प्रात:कालीन पारी सिमटने को आयी थी।
यों रात और दिन के पहर आपस में गड्मगड हो रहे थे और करीब तीन-साढ़े तीन सौ कलाकारों के जाने कितने स्वरों में डूबती-उतराती रही थी जिंदगी। तो क्या अगर नींद की उधारी लेकर सूर्य नगरी से लौटी हूं, ऐसी सुबहों और शामों पर कौन बार-बार वार नहीं जाएगा!