रोशनी की राहगुज़र
जब माटी के दीये खरीदने निकले कदमों की मंजिल बन गया कुम्हार ग्राम
वो करीब साढ़े तीन दशक पहले सूखे और गरीबी से आजिज़ आकर अलवर (राजस्थान) में अपने घरों को छोड़कर अनजान मंजिल की तरफ बढ़ चले थे। उनके काफिलों में उनकी औरतों, बच्चों, कुछ बर्तन-भांडों, कपड़ों-लत्तों के सिवाय जो एक बड़ी चीज़ शामिल थी वो था उनका हुनर। पश्चिम से चले आ रहे उनके थके-मांदे काफिले राजधानी के पश्चिमी इलाकों में खाली जमीन देखकर ठिठक गए और तबसे आज तक उनके कारवां थमे हुए हैं। उनके चाक पर बने गमले, मटके, दीये और न जाने क्या-क्या सामान हम तक पहुंचता आया है, लेकिन हम शहरवालों ने कभी यह जानने की कोशिश तो क्या इस सवाल से जूझना भी नहीं चाहा कि मिट्टी की शक्लो-सूरत बदल देने वाले वो हाथ आखिर किन लोगों के हैं और वो कहां बसते हैं।

इमारतों के सिलसिलों और मैट्रो के दसियों स्टेशनों को पार हम पश्चिमी दिल्ली के हस्तसाल गांव के नज़दीक बसे इस कुम्हार ग्राम (कुम्हार कालोनी) की खाक छानने पहुंचे तो शुरू में कुछ निराशा हाथ लगी। सोचा था मटकों-सुराहियों के जखीरे सजे होंगे, गमलों-गुल्लकों की धूम होगी और कहीं टैराकोटा के गणेश-लक्ष्मी साक्षात् विराजे होंगे। लेकिन इनके उलट हमारे सामने पसरा था एक गांव। उस गांव की बची-खुची सड़कों की आबरू भी पिछली बारिश बहा ले गयी थी और अब उन गलियों में सिर्फ छोटे-छोटे मिट्टी के टीले थी, बहती नालियां और कुम्हारों का पूरा संसार जैसे घर के दालान और चहारदीवारी से रिसता हुआ बाहर गलियों में बिखरा था।
हर घर के बाहर कमोबेश एक-सा ही नज़ारा था, घर की बेटियां, बहुएं और माएं मिट्टी कूटती, छानती, गूंदती या हद-बे-हद घर के ‘मास्टर क्राफ्टसमैन’ की सहायक की भूमिका में थी। जम्हुई ने इसका कारण स्पष्ट करते हुए बताया कि औरतें चाक पर नहीं बैठ सकतीं, दरअसल, चाक मायने रोज़ी-रोटी कमाने का जरिया और हमारे रहते घर की औरत को कमाने की क्या जरूरत है? लेकिन यह भी सच है कि चाक के सिवाय इस पूरे कारोबार के हर पहलू से औरतें जुड़ी हैं। चाक से उतरा मिट्टी का पात्र धूप में सुखाने से लेकर उसके भट्टे से बाहर आने तक और फिर उस पर रंगों की कूचियां फिराने तक की हर कड़ी इन कुम्हारिनों के हाथों से ही होकर गुजरती है।
अलबत्ता, कुम्हार और गधे का आपसी रिश्ता इस गांव में अब कहीं नहीं दिखता। चिकनी मिट्टी की ढुलाई जब आसपास के इलाकों से की जाती थी तो गधे पॉटर इकनॉमी की अहम् कड़ी हुआ करते थे, लेकिन अब यहां हर चाक पर चढ़ने वाली मिट्टी हरियाणा के झज्जर से ट्रैक्टरों में लदकर पहुंचती है। यानी बेचारा गधा अब हाशिये पर तो क्या पूरी तरह खारिज हो गया है कुम्हार ग्राम से।
यहां का तैयार माल दिल्ली हाट जैसे फैशनपरस्त बाजारों में सजता हुआ जाने कितने ही ड्राइंग रूमों की शोभा बनता है। यहां तक कि बड़े-बड़े फ्लावार वास, सजावटी बर्तन, लडि़यों में पिरोए तोता-मैना समेत कई डेकोरेटिव आइटम हैं जो फाइव स्टार होटलों तक में पहुचंते हैं जबकि घरों को नज़र से बचाने के लिए लटकाए जाने वाले नजरबट्टू से लेकर दिवाली के दिये, व्रत-उपवास के अवसरों पर काम आने वाला करवा, मटकी या सकोरे, कुल्हड़ और अन्य मिट्टी के बर्तन आज भी शहरी-ग्रामीण जिंदगी में शामिल हैं।
शहरों के शहर दिल्ली में ऐसे भरे-पूरे गांव आज भी आबाद हैं, यह सुनकर एकबारगी तो यकीन नहीं होता। और सिर्फ गांव ही क्यों, एक पूरी परंपरा को जिंदा रखा है इस गांव ने। मशीनों की दौड़ के बावजूद मिट्टी की पूरी ठसक इस गांव में दिखती है। लेकिन जिंदगी भी बस मिट्टी-मिट्टी हुई जाती है यहां !
माटी की इस दुनिया ने एशिया के सबसे बड़े कुम्हारों के अड्डे के रूप में अपनी पहचान बनायी है, और राजस्थान के साथ उनका पुराना रिश्ता आज भी कायम है। शादी-ब्याह के लिए अपने पुश्तैनी इलाकों से वो नाता जोड़ते आए हैं, और कहते हैं कि इस गांव में हर कोई आपस में नाते-रिश्तेदार है, भले ही दूर का सही।
मिट्टी की सोंधी गंध वहां चारों तरफ बिखरी है और हर घर की मुंडेर पर धूप लूटते माटी के बर्तन हर राहगुज़र से जैसे थोड़ा रुककर, बतियाने का आग्रह करते हैं। जेठ की दुपहरी में जब प्यास हर शय पर हावी हो जाती है तो कुम्हार ग्राम में जैसे मटकों और सुराहियों की बारात निकलती है। वहीं दिवाली के आसपास दियों से जमीन पटी रहती है।
कौन कहता है कि वक्त को थमने की फुर्सत नहीं, कुम्हारों की इस बस्ती में तो वक्त ही नहीं पूरा एक युग जैसे ठिठका खड़ा है!