चंबल की घाटियां बुला रही हैं तुम्हें!
जनवरी की उस दोपहर चंबल की वीरानी को तोड़ने के लिए जाने कहां-कहां से दौड़ती-भागती कार-जीपें और हर आकार-रंग की एसयूवी गुबार उड़ाती हुई एक-दूसरे को पीछे छोड़ने में जुटी थी। मिट्टी के टीलों से घिरी सड़कों पर एक से एक रंगीन कारों का कारवां कहीं फर्राटा दौड़ रहा था तो कहीं सरक रहा था। गांव के बच्चे-बूढ़े-जवान हैरत में सड़कों के किनारे जमा थे, उन तेज-तर्रार मशीनों की भागमभाग देख रहे थे।
खेतों में सरसों फूली खड़ी थी और पॉन्टून पुल पर से रेंगती कारों को जैसे मजबूरन उस नज़ारे को देखने के लिए धीमे होना पड़ा था।
यह नज़ारा आगरा कार रैली का था जिसे उत्तर प्रदेश पर्यटन ने ‘आगरा बियॉन्ड ताज’ को प्रचारित करने के मकसद से आयोजित किया था।

इटावा की लायन सफारी से कारों ने हुंकार भरनी थी। हमें इन मशीनों में दिलचस्पी कम लायन सफारी की दीवारों के पीछे बंद शेरों से मिलने की बेताबी ज्यादा थी। मगर वो मुमकिन नहीं हुआ उस रोज़। लायन सफारी के दरवाजे फिलहाल दर्शकों के लिए बंद थे और उन बंद दरवाजों-दीवारों के पीछे से उठती सिंह की दहाड़ सुनकर ही हमें संतोष कर लेना पड़ा था।
आगरा में ताज और आगरा के किले का आकर्षण बेशक कभी फीका नहीं पड़ने वाला लेकिन उसके आगे के संसार को टटोलने की ख्वाहिश लेकर मैं हमेशा लौट जाया करती थी। उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य का यह इलाका सिर्फ मुहब्बत की निशानी तक सिमटा कैसे रह सकता है, यह सवाल मुझे अक्सर परेशान करता था। बीते कुछ महीनों में हेरिटेज आर्क के जिक्र के बहाने आगरा फिर टूरिस्टी मानचित्र पर छाया रहा, लेकिन इस बार वो सिर्फ ताज नगरी नहीं रह गया था। आगरा से आगे भी घुमक्कड़ी की मंजिलें खुल चुकी थीं और मैंने अपने ताजा सफर में इन्हें ही टटोला था।
कार रैली से उत्साहित तो थी लेकिन रैली का रूट चंबल की उन बदनाम घाटियों से होकर गुजरेगा जो कभी डाकुओं की बंदूकों और फिरौतियों के चलते थर्राया करती थी, यह मेरी कल्पना में दूर-दूर तक नहीं था। विलेज और इको-टूरिज़्म ने अब यह कमाल भी कर दिखाया है। और कार रैली के बहाने तो एडवेंचर टूरिज़्म तक की गूंज चंबल में सुनी जा सकती है।

चंबल — डकैती से सफारी की राह
चंबल की घाटियां ढलते सूरज की बची-खुची रोशनी समेट रही थीं, कीकर की बारीक पत्तियों से छनती धूप चंबल नदी के पानी पर ठहरी थी, और ठीक उस पल मैंने महसूस किया कि लाख बदनाम सही चंबल लेकिन हिंदुस्तान की सबसे खूबसूरत नदियों में से एक है। और साफ-उजली तो इतनी कि गंगा-यमुना लजा जाएं। हम घड़ियाल सैंक्चुरी देखने आए थे नदी के किनारे, दूर तलक चंबल का ठहरा पानी, मिट्टी के ढूहों-टीलों से पटी घाटियों से घिरा था। इस बीच, सूरज ने नीचे उतरना शुरू कर दिया और पानी पर काली छाया तैरने लगी। लहरों का पानी से कैसा नाता होता है, यह उस रोज़ नहीं जाना जा सकता था क्योंकि पानी में एक भी हलचल नहीं थी। ऐसे में घड़ियाल के दिखने की उम्मीद तो बढ़ गई थी लेकिन इस लुप्तप्राय: जंतु की कृपा दृष्टि हम पर नहीं पड़ी।
‘अपवित्र’ माने जाने वाली चंबल नदी में डुबकी लगाने की प्रथा न सही, लेकिन मगर-घड़ियालों की इस बस्ती ने आज चंबल के वीराने को इको-टूरिज़्म के मानचित्र पर ला खड़ा किया है।
जनापाव की पहाड़ियों से उतरकर चंबल नदी राजस्थान, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में करीब साढ़े नौ सौ किलोमीटर का सफर तय कर इटावा में आकर यमुना में खुद को समो देती है। नदी के अपवित्र होने के बारे में कथा है कि राजा रंतिदेव ने यज्ञ में सैंकड़ों गायों की बलि थी, उनके खून से ही इस नदी का उद्गम माना जाता है। गायों के रक्त/चर्म से उत्पन्न नदी चर्मण्वती कहलायी और इसीलिए अपवित्र मानी गई। लोगों ने इसे अपवित्र मानकर इससे कोई नाता ही नहीं रखा और नतीजा यह हुआ कि जीवों को इसमें फलने-फूलने का मौका मिला। फिर एक समय वो भी आया जब चंबल की घाटियों में डाकुओं की महफिलें सजने लगी और यह नदी उनके लिए जीवनदायी बन गई।
चंबल राष्ट्रीय अभयारण्य में सफारी
चंबल नेशनल सैंक्चुरी 1979 में गठित की गई और तभी इसे सुरक्षित अभयारण्य घोषित किया गया। चंबल के किनारे—किनारे लगभग चार सौ किलोमीटर और घाटियों में 2—6 किलोमीटर तक का इलाका इस सैंक्चुरी के दायरे में रखा गया। उत्तर प्रदेश वन विभाग की देखरेख में सैंक्चुरी वन्यजीवों का सुरक्षित ठौर बनी रही। घड़ियाल, मगर, कछुओं की कुछ विशेष प्रजातियों की बढ़त के लिए चंबल का पानी वरदान साबित हुआ। यहां तक कि गेंजेटिक डॉल्फिनों ने भी चंबल में शरण लेनी शुरू कर दी। कहते हैं ये डॉल्फिन पानी की स्वच्छता का पैमाना होती हैं। चंबल के प्रदूषण रहित पानी और उस पर शहरी हस्तक्षेप से मुक्त इस अभयारण्य ने अपने दुर्लभ जीव-जंतुओं को सुरक्षित पनाह दी।
चंबल नेशनल सैंक्चुअरी उत्तर प्रदेश के अलावा मध्य प्रदेश और राजस्थान तक में फैली है। उत्तर प्रदेश में आगरा और इटावा जिलों में इसके सिरे टिके हैं और आगरा के दक्षिण पूर्व में महज़ 80 किलोमीटर दूर फतेहाबाद रोड से इस चंबल नेशनल सैंक्चुरी का दीदार कर सकते हैं। आगरा से निकलकर महज़ एक-डेढ़ घंटे में हम चंबल किनारे खड़े थे। सामने से हमारी तरफ बढ़ रही नाव को ठहरे पानी में हौले-हौले ठुमकते देखकर रोमांच बढ़ने लगा था।

यहां चंबल का पाट उतना चौड़ा नहीं है कि नाव को हम तक पहुंचने में वक़्त लगता, लेकिन दायीं तरफ चंबल आगे से एक घुमाव लेती हुई गुम हो गई थी। हमें लेने के बाद हमारी नाव भी नदी के उस गुम हो गए सिरे की तरफ ही घूम गई थी। अब हम मिट्टी के उन उंचे टीलों को नदी में से देख सकते थे जिनके गिर्द झाड़ियों और पेड़ों ने ओट कर रखी थी। नाव का ठुमकना जारी था और एक के बाद एक कई टीलों-घाटियों को पार कर चुकने के बाद भी हमें पानी में किसी जीव ने दर्शन नहीं दिए। अलबत्ता, तरह-तरह के पंछियों ने अपनी परवाज़ से हमें उलझाए रखा था। उलझाना इसलिए महसूस हुआ था क्योंकि एक भी पंछी जाना-पहचाना नहीं था। हमारे गाइड ने बताया कि सर्दियों में यहां दुनियाभर के कई ठंडे इलाकों के पक्षी पहुंचते हैं, नदी समेत राज्यभर में जगह-जगह खड़े सरोवर-झीलों के किनारे जमीन या झाड़ियों अपने घोंसले बनाते हैं और फिर वहां उनकी एक नई दुनिया सजती है। चंबल की वो घाटियां वाकई पक्षियों का बसेरा लगी थीं उस रोज़।
हम पश्चिम की तरफ ही बढ़ रहे थे, इसलिए सूरज का गोला देर तक साथ देता रहा और फिर चंबल के दूसरे सिरे में मुंह घुसाकर अलविदा कह गया। एकाएक हवा में ठंडक घुल गई थी, उस पर नदी को छूकर बहने वाली हवा ने किटकिटाहट भी बढ़ा दी थी। चंबल नदी पर नौका विहार पूरा कर हमने नदी के किनारे—किनारे कुछ दूर पैदल घड़ियालों से मुलाकात की हिम्मत जुटायी। ‘अब कल धूप सेकने ही बाहर निकलेंगे, कल आना आप लोग’, गाइड की सलाह समझ में तो आ रही थी लेकिन निराश करने वाली थी। लेकिन वन्यजीवन का यही सौंदर्य तो हमें बार-बार जंगलों तक लाता है, जहां अनिश्चितता होती है, अनपेक्षित कुछ भी घट सकता है और जिस उम्मीद में टकटकी लगाए घंटों गुजारते हैं वो कई बार क्या बार-बार लौटने पर भी पूरी नहीं होती। घड़ियालों और मगर और डॉल्फिनों से अगली मुलाकात का वायदा कर हम लौट गए।

बटेश्वर से सूर सरोवर और पटना पक्षी विहार तक फैला पंछियों का संसार
चंबल में किस्से हैं, कहानियां हैं, कई-कई मिथक हैं और वो कम पड़ जाएं तो डाकुओं के रौंगटे खड़े कर देने वाले कारनामों का जिक्र है। जब इस इलाके से गुजरते हैं तो ड्राइवर से लेकर गाइड तक आपको यह बताना नहीं भूलता कि फलां गांव किसी कुख्यात डकैत का ‘मायका’ था या कहां ‘एंकाउंटर’ आम थे या किसने किसे पनाह देकर बदले में मदद पायी थी। यकीनन, देश के दूसरे किसी भी इलाके में घुमक्कड़ी से एकदम जुदा था चंबल घाटी का पर्यटन। जैसे ठहरी—ठहरी फिज़ा में रोमांच का घोल! और फिर चंबल से निकलकर आसपास के कुछ और ठिकानों को टटोलने बढ़ चले थे हम।

अब चंबल नदी का किनारा हमसे छूट चुका था और हम यमुना के किनारे खड़े बटेश्वर तीर्थस्थल पर पहुंच चुके थे। यहां एक-दो नहीं बल्कि डेढ़-दो सौ मंदिरों के समूह थे। बटेश्वर नाथ मंदिर के अलावा भीमेश्वर, नर्मदेश्वर, रामेश्वर, मोटेश्वर, जागेश्वर, पंचमुखीश्वर, पातालेश्वर और यहां तक कि केदारनाथ, बदरीनाथ मंदिरों को यहां कतारबद्ध देखना आपको विस्मित कर देगा। मंदिरों के इन सिलसिलों को देखते हुए ही हम यमुना के घाट की तरफ बढ़ चले थे। सामने का दृश्य देखकर अवाक् रह गए।

यमुना यहां वैसी नहीं है जैसी आपकी कल्पना में हो सकती है, एक किनारे मंदिरों और दूसरे पर हरियाली से घिरी यमुना को देखना यहां सुखद अहसास से भर देता है। और पानी पर तैरते, परवाज़ भरते किस्म-किस्म के पक्षियों-बत्तखों को देखकर यह मुगालता होना लाज़िम है कि हम किसी पक्षी विहार में हैं। बटेश्वर होगा दुनिया के लिए तीर्थ, सर्दियों में बर्ड-वॉचिंग के लिहाज से बेहतरीन अड्डा बन जाता है। जो जीव-जंतु प्रेमी हैं उनके लिए इसी बटेश्वर में हर साल एक पशु मेला भी आकर्षण का केंद्र है।
आगरा को केंद्र बनाकर हमने उसके इर्द-गिर्द इस बार एक नया संसार टटोला था। इस बार इस धारणा को तोड़ने में भी कामयाबी मिली थी कि आगरा सिर्फ ताज नगरी नहीं है, कि आसपास का मतलब सिर्फ सिकंद्रा या फतेहपुर सीकरी नहीं है, और यह भी कि उत्तर प्रदेश का यह इलाका सिर्फ इतिहास और स्मारकों तक ही सीमित नहीं है। यहां कुदरती नज़ारे भी हैं, वन्य जीवन है, पक्षी विहार हैं, चंबल अभयारण्य में नाव और उंट सफारी है। पैदल भी चंबल की खाक छानना न सिर्फ सुरक्षित है बल्कि जहां मुमकिन हो इसी तरह चंबल से संवाद करें। और हमारी ही तरह आप भी महसूस करेंगे कि हिंदुस्तान के नक्शे की जो सीमाएं दिखती हैं, वास्तव में, उनके भीतर रहकर भी हर कोने, हर मोड़ से गुजर जाने के लिए एक जीवन कम है!
चंबल और आसपास
# चंबल राष्ट्रीय अभयारण्य/ दूरी 80 किमी
# बटेश्वर
मंदिर समूह और पशु मेला/ दूरी 70 किमी
# सूर सरोवर (कीठम झीलम) पक्षी विहार/ दूरी 23 किमी
# पटना पक्षी विहार/ दूरी 57 किमी
# इटावा लायन सफारी/ दूरी 57 किमी
(सभी दूरियां – आगरा से)
Wow, I haven’t even heard of this place before. Gorgeous photographs!
Thank You for stopping by. All these places of interest are within a hundred kilometers of Taj and I have always recommended visiting these lesser frequented destinations.