किन्नौर के परीलोक से कुंजुम—रोहतांग के खौफनाक मंज़र तक!
दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सड़क यात्राओं में शुमार है शिमला से किन्नौर—स्पीति—लाहुल होते हुए रोहतांग दर्रे के उस पार बसे मनाली तक का सफर। अब सर्वश्रेष्ठ के मायने कुछ भी हो सकते हैं, मगर मैं साफ कर दूं कि मेरे लिए यह आज तक का सबसे ज्यादा रोमांचकारी, सबसे खतरनाक, सबसे दुर्गम और तमाम जोखिमों से भरा होने के बावजूद किसी सपने की खोह में से गुजरने जैसा था। 3 जुलाई, 2015 को दिल्ली में मंडी हाउस से हिमाचल टूरिज़्म (http://hp.gov.in/hptdc/) की वोल्वो से रवानगी के बाद शिमला की अगली सुबह कुछ यों दिखी थी।

कोटगढ़ में सेब के संसार से सतलुज घाटी की ओर
गर्मियों में स्पीति के सफर का एक बड़ा फायदा यह था कि शिमला से मनाली तक का पूरा सर्किट देखने का मौका मिल जाता है। शिमला से नारकंडा, फागू और थानेधार से गुजरना नियति हो तो जुलाई-अगस्त में सेब के दरख्तों पर बहार देखते ही बनती है।

थानेधार-कोटगढ़ में सेब-नाशपति-खुबानी के बागानों में इन दिनों फलों से लदे पेड़ दिखते हैं या फिर तुड़ान करते हिमाचली। सेबों के इस संसार में सत्यानंद स्टोक्स का जिक्र अपने-आप चला आता है। अमरीकी सैमुअल स्टोक्स 1904 में हिमाचल में कुष्ठ रोगियों के साथ काम करने भारत आए और फिर कभी लौटे नहीं। सैमुअल स्टोक्स ने एक हिमाचली महिला से ही विवाह कर लिया और फिर सत्यानंद स्टोक्स बन गए।

स्टोक्स ने ही अमरीकी नस्ल के सेबों की पौधों को हिमाचल के इस इलाके में उगाया और इस हिमालयी राज्य में समृद्धि की एक नई इबारत लिखी। आप बारीक निगाहों को लेकर इस इलाके से गुजरेंगे तो इस इबारत को कदम-कदम पर पढ़ सकेंगे।

प्राचीन हिंदुस्तान – तिब्बत मार्ग पर पलटिए इतिहास के पन्ने
थानेधार की सीमा छोड़ते-छोड़ते सतलुज की धारा आपके साथ सफर में हो लेगी और फिर ऐसे संग चलेगी जैसे कोई करार हुआ हो आप दोनों के बीच!

यहीं से वो ऐतिहासिक प्राचीन हिंदुस्तान-तिब्बत मार्ग (अब NH 22) भी गुजरता है जिसे कभी ब्रिटिश गवर्नर जनरल डलहौजी ने उन्नीसवीं सदी में बनवाया था। डलहौजी ने अपनी नाजुक सेहत के चलते चिनी (कल्पा) को अपना नया ठिकाना बनाया था और ब्रिटानी हुकूमत की गर्मियों की राजधानी शिमला से यहां तक आने-जाने में सुविधा के लिए ही इस नए सड़क मार्ग के निर्माण का भी आदेश दिया। उस जमाने में यह सड़क मार्ग किसी वरदान से कम नहीं था क्योंकि सतलुज घाटी का ऊपरी इलाका अपने बीहड़पन और खतरनाक पहाड़ी रास्तों के कारण राहगीरों को मौत के साए की घाटी के नाम से आतंकित किया करता था। उस जमाने में यह संकरा लेकिन काफी महत्वपूर्ण मार्ग ठियोग से नारकंडा और कोटगढ़ से रामपुर-सराहन होते हुए वांग्तू सेतु को पार कर चीनी (कल्पा) तक पहुंचता था।

कल्पा के बाद सतलुज के किनारे-किनारे यही सड़क खाब (सतलुज और स्पीति का संगम यहीं होता है) तक पहुंचती है और फिर शिपकिला दर्रे के रास्ते भारत-तिब्बत सीमा पार जाया जा सकता है।
किन्नौर के जादुई संसार में प्रवेश
रामपुर में पुरानी बुशहर रियासत के नामों-निशान के तौर पर बचे रह गए पद्म महल होते हुए हम सरहान पहुंच चुके थे। यहां भीमाकाली मंदिर के विशाल अहाते में से मुख्य मंदिर में पहुंचे। बुशहर राजघराने की कुलदेवी भीमादेवी को समर्पित यह मंदिर शक्ति पीठ भी है। उस दिन बादलों की आपाधापी से आसमान घिरा हुआ था वरना इसी मंदिर के अहाते से श्रीखंड महादेव पर्वत श्रृंखला के दर्शन भी होते हैं।

सरहान प्राचीन बुशहर रियासत की राजधानी थी और यही किन्नौर का प्रवेश द्वार भी है। किन्नौर – यानी हिमालय की बर्फीली श्रृंखलाओं से घिरा परीलोक। इसी किन्नौर की सांग्ला घाटी को हमने अपने पहले पड़ाव के तौर पर चुना था।

सांग्ला का सौंदर्य आपको अपने मोहपाश में बांध लेता है। यहां उफनती बस्पा नदी के किनारे Banjara Camp & Retreat – Sangla, Kinnaur District, Himachal (http://bit.ly/1Tw8E7N) में पारंपरिक सिल्क स्कार्फ से आद्या स्वागत के लिए दरवाजे पर मौजूद थी। बड़ौदा की आद्या हाल में इंग्लैंड से पढ़ाई कर स्वदेश लौटी है और अब सांग्ला वैली में वॉलन्टीयरिंग कर रही है। ट्रैवल और वॉलन्टीयरिंग के इस मेल पर ट्रैवल इंडस्ट्री की पीठ थपथपाने को जी चाहता है। इस तरह की पहल युवओं को दूरदराज तक के कोनों की यात्राओं के साथ-साथ जिम्मेदारी का अहसास भी कराती हैं।

इस बौद्ध स्कार्फ ने याद दिलाया कि आगे का संसार बौद्धमयी होने जा रहा है। हालांकि इससे पहले भीमाकाली मंदिर तक हिंदू परंपराओं का संसार था। और अब किन्नौर घाटी में यह बदलाव साफ दिखायी देने लगता था, हरे बॉर्डर वाली किन्नौरी टोपी ‘थेपांग’ लगाए चेहरों के फीचर्स बदलते दिखते हैं। आर्यन फीचर्स मंगोलियाई फीचर्स में और हिंदू रवायतों की जगह धीरे-धीरे बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ता जाता है। अब पुलों पर से गुजरते हुए रंगीन पताकाओं की उड़ान दिखने लगी थी।

थानेधार से सांग्ला वैली तक डेढ़ सौ किलोमीटर का रास्ता नाप चुके हमारे तन भी शाम घिर आने तक निढाल हो चुके थे। इस खूबसूरत वादी में अगले दो दिन ठहरने का वादा चुपचाप उस शाम के साथ किया और अपने टैंट के बगल से बहती बस्पा के शोर को सुनने में मग्न हो गए। अगली सुबह का एजेंडा रात के अंधेरे में ही तय हो गया था – बस्पा से मिलने उस वादी में उतरेंगे।

बंजारा कैंप के साथ रुकने का सबसे बड़ा सबब भी यही था कि रिवर क्रॉसिंग और ग्लेशियर या विलेज वॉक के टूरिस्टी तामझामों को आजमाएंगे। मन ही मन उत्साहित थे कि अगला दिन सांग्ला की उस मनमोहक घाटी में गुजरेगा जहां से इस सफर में पहली बार पहाड़ी दर्रों और ग्लेशियरों का दीदार भी होगा।

कल्पा की सुरमई शाम और किन्नौर कैलास का रजत उजास
दो दिन सांग्ला में रुकने के बाद स्पीति से मिलने की बेताबी बढ़ने लगी थी। लेकिन हमारे और स्पीति के मरुस्थल के बीच कल्पा की वादियां और जादुई पहाड़ियां बाकी थीं। डलहौजी के उस जर्जर बंग्ले को भी देखना था जो चीनी में इस ब्रिटिश गवर्नर जनरल का बसेरा हुआ करता था। सांग्ला से रेकॉन्ग पियो होते हुए कल्पा की 13 किलोमीटर चढ़ाई पर बढ़ने से पहले कुछ देर किन्नौर के इस जिला मुख्यालय में रुके कि शायद कुछ खास यहां होगा। यहीं से डीसी कार्यालय से शिपकिला दर्रे के लिए परमिट भी बनवाना था, लेकिन दिल ने कहा अब स्पीति से सीधा मिलेंगे नाको—ताबो—काज़ा में जाकर, बीच में कुछ नहीं। लिहाजा, रेकॉन्ग पियो के बाज़ार से राजमा, काला जीरा, चिलगोज़े खरीदे। आदतन ऐसा करती हूं ताकि घर लौटने पर कुछ दिनों तक तो सफर की महक साथ बनी रहे! किन्नौरी शॉल और थेपॉन्ग का लालच भी हावी था, इस बार मन ने कहा कुछ दिन क्यों कुछ बरसों तक यादों को बकाया रखना हो तो इन्हें साथ ले चलो! हम कब मन की अनसुनी करते हैं, उन्हें भी साथ रख लिया, अब यादों की फेहरिस्त बढ़ती जा रही है ..

दोपहर बाद कल्पा में डेरा जमा चुके थे। भव्य The Grand Shamba-La (http://on.fb.me/1NdhYIG) उस रोज़ लगभग खाली था, और ऐसे में हमें तीसरी मंजिल पर ठहराने का कारण कुछ अटपटा सा लगा। उखड़ती सांसों ने दो मंजिल बाद ही जवाब दे दिया, हमने वहीं ठहर जाने की इच्छा जतायी तो मैनेजर का भोला सा जवाब मिला — ‘किन्नौर रेंज के बैस्ट व्यू वाला कमरा आपको दे रहे हैं, थोड़ी मेहनत कर लीजिए .. ‘

शम्बाला में पहुंचकर कुछ देर के लिए आप भूल जाते हैं कि किन्नौर में हो या तिब्बत में। होटल के कमरों की सज्जा आपको रह-रहकर बौद्ध प्रभाव में सराबोर दिखती है और सबसे उपर की मंजिल पर बने एटिक में तो जैसे मिनी तिब्बत ही है।

बुद्ध के उपदेशों की अनूदित धार्मिक प्रतियां कंग्यूरों से लेकर तिब्बती धर्म गुरुओं की तस्वीरें उस कोने में सजी हैं। ओम मणि पदमे हूम् के मंत्रोच्चार की ध्वनियों से गूंजते उस एटिक में बौद्धमयी शाम धीरे धीरे गहराती हुई रात में बदल रही थी। उस रात अपने कमरे से सटी बालकनी में चुपचाप देर तक किन्नर कैलास की पहाड़ियों को देखती रही। बादलों को धकेलकर कई-कई बार चांद ने पूरी पहाड़ी को उजास से भरा, देर तक अंधेरे में टकटकी लगाए बैठी रही। मेरे सामने ही किन्नर कैलास, बायीं तरफ शिवलिंग और दायीं तरफ जरकॉन्दॉन की चोटियां थी। उस अंधेरे में यों तो चोटियों का दीदार मुमकिन नहीं था, लेकिन पिछली शाम की तस्वीरें ताज़ा थी और फिर कल्पनाओं के घोड़े तो दौड़ते ही रहते हैं!
स्पीति की ओर

कल्पा ने एक यादगार दिन इस सफर में जोड़ा था। अगली सुबह पूह—खाब होते हुए हम नाको के लिए रवाना हुए। अब सफर काफी एडवेंचर से भरपूर होने जा रहा था। इस मार्ग पर कभी पहाड़ से टूटते पत्थरों का खतरा रहता है तो कहीं सड़क के बंद हो जाने का जोखिम भी मंडराता है। एनएच—5 पर से गुजरते हुए सीमा सड़क संगठन के बोर्ड आपको लगातार बताते रहते हैं कि आप दुनिया के सबसे दुर्गम मार्ग पर हैं। रोमांच की एक लहर ऐसे हर बोर्ड को देखकर आपकी काया में तैर जाती है।
इस बीच, मीलों से साथ चल रही दहाड़ती—कूदती सतलुज का प्रवाह भी बार—बार अपनी तरफ बुलाता है। अब सतलुज को अलविदा कहने की घड़ी नज़दीक थी। खाब में स्पीति से इसका मिलन होता है और यहां से यही कोई 30 किलोमीटर दूर तिब्बत सीमा पर शिपकिला दर्रा है जहां से कैलास पर्वत से उतरी सतलुज हिंदुस्तान में प्रवेश करती है।

हमने इसकी बजाय नाको की सड़क पर गाड़ी मोड़ दी थी। यानी अब सतलुज की सहयोगी स्पीति हमारी हमसफर होगी। और उन अनाम धाराओं—नालों की गिनती भी अब छोड़ दी थी जो कहीं किसी चोटी से फिसलते हुए या किसी पिघलते ग्लेशियर से इन बड़ी नदियों में अपनी आहुति दे रहे थे। कहीं—कहीं सड़क पर ही नालों का तेज बहाव था और उस पर धीमे—धीमे सावधानी से गुजरना था। सड़क लगातार पतली होती रही थी और कहीं-कहीं तो लगा कि सामने से किसी वाहन के आने पर हम कहां जाएंगे! और ये क्या, अगला मोड़ मुड़ते ही बिल्कुल सिर पर पहाड़ टंगा था। यानी अब सड़कों का रूप ठीक वैसा होता जा रहा था जैसे कभी तस्वीरों में या फिल्मों में दिखता है। सड़क का यह सफर इतना रोमांच से भर जाएगा, मुझे अंदाज़ा नहीं था।

एक तरफ स्पीति की घाटी में बीच—बीच में मकानों के सिलसिले बताते थे कि कोई गांव गुजरा या कस्बा साथ हो लिया। किसी कमजोर पुल पर गुजरती गाड़ी से नीचे झांका तो स्पीति के शोर में जैसे सारा रोमांच धुल गया। और कहीं सड़क घाटी के लैवल पर से गुजरती तो नदी की काया को छूने का मोह संवरण करते नहीं बनता था।

पुलों और फ्लाइओवरों की शक्ल में सड़क इंजीनियरिंग के विशालकाय नमूने बेशक यहां कहीं नहीं दिखते लेकिन दिल ही दिल में इस सड़क पर रह-रहकर बीआरओ के इंजीनियरों और उन सैंकड़ों अनाम मजदूरों को सलाम किया हमने जो पूरे साल कभी तीखी धूप में तो कभी बर्फानी मंजरों के बीच इन रास्तों की पहचान खोने नहीं देते।
स्पीति की फुहार में भीगते पहाड़ और हमारा मन

स्पीति के पहाड़ों में भूरेपन से कहीं ज्यादा लाल रंग दहक रहा था। ये बलुआ पहाड़ थे, मिट्टी भी निरी रेगिस्तानी थी.. बारीक कंकड़ों से भरपूर। सड़कें नहाकर चुकी थीं, शायद बारिश आयी थी कुछ देर पहले। बादलों का नाटक आसमान में जारी था ही और कुछ देर में वो बरसने भी लगे। मरुस्थल में बारिश की उम्मीद तो नहीं थी लेकिन आसपास सब कुछ भीगता कब बुरा लगा है। और फिर स्पीति में बारिश देखना तो किसी अचंभे से कम नहीं था। जबसे स्पीति को जाना था यही सुना था कि यह शीत रेगिस्तान है, मानसूनी बादलों की हिम्मत भी इतनी दूर तक आते—आते टूट जाती है। शायद हम वक़्त के दूसरे मुहाने पर आ पहुंचे हैं जहां सब कुछ उलट रहा है, कच्छ से लेकर स्पीति तक में यही तो सुनते आ रहे हैं कि हर जगह रेगिस्तानों को बारिश भिगोने लगी है!
ताबो मोनैस्ट्री में सिमटा है मिट्टी का बेशकीमती संसार
बूंदा-बांदी ताबो में भी जारी थी। यहां हजार साल पुराने ताबो मठ की मिट्टी की काया पर पानी की बूंदे कहर से कम नहीं हैं। मठ ही क्या, पूरा स्पीति बारिश को सहने के लिहाज से तैयार ही नहीं है। कुदरत के बनाए पहाड़ भी ऐसे नहीं हैं कि पानी के बहाव को सह सकें, उन पर घास या पेड़-पौधे तो उगते नहीं जिनकी जड़ें उनकी काया को बांध सकें। अगर ज्यादा पानी बरसा तो पूरे पहाड़ उखड़ने-बहने लगेंगे। और यही हाल यहां के मिट्टी के पारंपरिक घरों का है, विरासत का है।
ताबो मठ के बड़े से अहाते से घुसकर मिट्टी के बने इसके मंदिरों को भीतर से देखकर खुद को एक बार यकीन दिलाना पड़ा था कि हम मिट्टी की कोठरियों में ही घुसे थे। अंदर दीवारों पर भगवान बुद्ध और बोधिसत्वों के जीवन की कथाओं को दर्शाने वाले सालों पुराने चित्रों की जैसे लड़ी पिरोयी थी। इन आकृतियों के रंग बीते सैंकड़ों वर्षों में फीके जरूर पड़ने लगे थे लेकिन चित्र शैलियों का आकर्षण कहीं से कम नहीं हुआ था। बाहर बरसती बूंदों से इन मंदिरों की दीवारों को कब तक बचाकर रखा जा सकता है, कहा नहीं जा सकता।

नजदीकी पहाड़ी की हल्की चढ़ाई चढ़ने के बाद गुफाओं को देखे बगैर ताबो का सफर अधूरा ही है। “हालांकि गुफाओं में कुछ खास ऐसा नहीं है जिसका बयान किया जाए लेकिन अहसास करने को यहां काफी कुछ है।” शिमला यूनीवर्सटी के टूरिज़्म विभाग में प्रोफेसर डॉ चंद्रमोहन परशीरा ने स्पीति के सफर की रूपरेखा बनाते हुए मुझसे यही कहा था और ठीक उसी अहसास को वहां पाया मैंने।
गुफाओं की चौकसी के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने दो चौकीदार भी रखे हैं। गुफा की दहलीज़ पर बैठे हुए उन्हें देखकर सिर्फ यही महसूस होगा जैसे पूरे कस्बे की निगहबानी का जिम्मा उन्हें मिला हो! ठीक उस जगह से ताबो का विहंगम नज़ारा देखे बगैर जाना भी घुमक्क्ड़ी के एक पहलू को अधूरा छोड़ देना होगा। सामने कस्बाई घरों, सैलानियों के लिए होटलों, और एकाध स्कूल की इमारत के पीछे मिट्टी के अपने अस्तित्व के बावजूद पुरजोर मौजूदगी दर्ज कराती ताबो मोनैस्ट्री दिखायी देती है। और एकदम आखिर में स्पीति चुपचाप बहती गुजर जाती है। उसके पीछे खड़े हैं वही पहाड़ जो कभी टेथिस सागर में डूबे थे और कालांतर में उठते चले गए। समुद्र के नीचे की उन संरचनाओं को आज हवाएं दुलराती हैं। स्पीति के किसी भी कोने, किसी भी मोड़ को पार करते हुए यह अहसास कहीं न कहीं बना रहता है कि आप एक वक़्त में पहाड़ और समुद्र दोनों से मुखातिब हैं। धरती के इस अजीबोगरीब व्यवहार पर आप चौंककर रह जाते हैं कि कैसे समुद्र की गहराइयों को उसने पर्वतों की ढलानों और बुलंदियों पर रख दिया है!
स्पीति के पहाड़ कभी समंदर के नीचे दबे थे इस धारणा को पुष्ट करने के लिए स्पीति के दूर—दराज के ऊंचाई वाले गांवों में चले आइये। काज़ा से 14 किलोमीटर दूर लांग्ज़ा गांव की ढलानों पर छोटे बच्चों ने मुझे घेर लिया था। उन नन्हें हाथों में शालिग्राम ठुंसे थे जिन्हें वो औने—पौने दाम में पर्यटकों को बेचते रहते हैं। भूविज्ञान में ये जीवाश्म हैं और आस्था ने उन्हें विष्णु के प्रतीक बना दिया है। खरीदूं या न खरीदूं की उहापोह से गुजरती रही थी, अंडमान के कोरल याद आए जिन्हें वहां के टापुओं से उठाकर ले जाना एकदम वर्जित है। पोर्टब्लेयर के अड्डे पर बाकायदा तलाशी होती है और पकड़े जाने पर बड़ा हर्जाना भी चुकाना पड़ता है। तो क्या स्पीति की मिट्टी में दबे—छिपे इन खास बनावट वाले पत्थरों को ले जाना भी गलत होगा? वर्जनाओं को धता बताने में कभी—कभी आनंद की अनुभूति होती है और उसी आनंद को महसूस करने के लिए दो शालिग्राम ले आयी हूं। और यह आनंद एकतरफा नहीं था। नोर्बू और सोनम के नाक चुहाते चेहरों पर भी इसकी छाप देखी थी मैंने। हालांकि यह चिंता भी कहीं न कहीं जागी थी कि समुद्रतट से 4400 मीटर ऊपर बसे लांग्ज़ा के उन नन्हें बाशिन्दों ने सैलानियों के पदचिह्नों की आहट को अभी से पढ़ना शुरू कर दिया है।

“की” मोनैस्ट्री देखने के बाद “की” गांव से आगे बढ़ते हुए हिक्किम और कोमिक तक जाना एकदम टूरिस्टी एजेंडे की तरह है। कल्पा में The Grand Shamba-La (http://on.fb.me/1NdhYIG) के मालिक पृथ्वी ने कुछ पोस्टकार्ड मुझे दिए थे, हिक्किम के पोस्ट आफिस से अपने दोस्तों को भेजने के लिए। दुनिया के सबसे ऊंचे डाकघर में जाकर इस रवायत को निभाने का बच्चों जैसा उत्साह खुद में महसूस किया भी लेकिन पिछले सात दिनों की बारिश ने वहां जाने के कच्चे रास्ते पर कीचड़ भर दी थी और उस पर गाड़ी चलाना भारी जोखिम था। दुनिया के सबसे ऊंचे मोटरेबल गांव कोमिक और उसके गोम्फा तक जाने की राह भी गाड़ी से जाने लायक नहीं बची थी। और मैं चौदह हजार फुट से अधिक ऊंची उन पहाड़ियों पर ट्रैकिंग का हौंसला लेकर नहीं आयी थी इस बार। फिर लौटूंगी इस अधूरी कहानी को पूरा करने, हिक्किम के डाकघर से पोस्टकार्ड भेजने, कोमिक के गोम्फा में सवेरे की प्रार्थना सुनने, और स्पीति की ढलानों पर ट्रैकिंग करते हुए किसी दर्रे के उस पार निकल जाने और स्पीति की बर्फ देखने। जल्द ही..
ये सफर अभी जारी रहेगा. अगली कड़ी में काज़ा से आगे के रोमांचक सफर पर चलिए मेरे साथ…
Ati uttam. Padh ke maza aya. yaadein taza ho gayi 🙂
यही तो मज़ा है ट्रैवल ब्लॉगिंग का, अपनी यात्राओं को फिर—फिर दोहराने का मौका मिल जाता है
amazing… i was in Kaza on 30th July, 2015. I can understand ur excitment.
यात्राएं इसी तरह चौंकाती हैं, रोमांचित करती हैं। उम्मीद है आपका सफर भी कुछ ऐसे ही अनुभवों से भरपूर रहा होगा।