संसार के उस पार का संसार
कुल्लू कभी ‘कुलूत’ था यानी सभ्यता का अंतिम पड़ाव और मान लिया गया था कि उसके आगे संसार खत्म हुआ जाता है। और वो जो बर्फ की खोह में बसता था लाहुल-स्पीति का संसार, अलंघ्य और अविजित रोहतांग दर्रे के उस पार उसका क्या? वो हमारे-आपके साधारण संसार से पार था अभी कुछ साल पहले तक। मौत के दर्रे से गुजरकर जाना होता था वहां, कौन जाता? सिर्फ वही जिसे कुछ मजबूरी होती या कोई अटलनीय काम। तब भी व्यापारी लांघा करते थे उस 13,050 फीट उंचे दर्रे की कई-कई फीट बर्फ से ढकी दीवारों को! ये व्यापारी कशगर, खोतां, ताशकंद तक से आते थे और कुल्लू-मनाली, पंजाब, चंबा-कांगड़ा जैसे देसी ठिकानों से भी। घोड़ों पर और पैदल पैर किया करते थे उस जानलेवा दर्रे को। लाहुल-स्पीति से निकलकर इस ओर आने वाले सिर्फ वही लोग थे जिन्हें नौकरी या व्यापार की मजबूरी खींच लाती थी। गर्मियों के महीनों में जब दर्रे की बर्फ पिघल जाती और यह आराम से राहगीरों को रास्ता दे दिया करता था तब भी लाहुल से इस तरफ के संसार में आने में लोगों को 3 से 4 दिन लगते और सर्दियों में यही सफर बर्फ की दीवारों को लांघते-टापते हुए 5 से 6 दिन में पूरा हुआ करता था।

मगर अब टूरिज़्म है। सैलानी हैं जो टैक्सियों में भर-भरकर रोहतांग दर्रे तक हर दिन आते हैं, और फिर यहीं से लौट भी जाते हैं। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने हाल में रोहतांग दर्रे तक जाने वाले टूरिस्ट वाहनों की संख्या सीमित करने का आदेश जबसे सुनाया है, मनाली के चौराहे पर दिन भर ये टैक्सी वाले परमिट लेने की आस में घंटों लाइन में गुजारते दिख जाते हैं।

कुछ दुस्साहसी सैलानी अब इस दर्रे से उस पार भी उतरने लगे हैं। उस पार की दुनिया के दरवाजे इस पार वालों के लिए खुल गए हैं। हालांकि दर्रे से नीचे उतरने पर अब भी उबड़-खाबड़ संसार फैला है, हिमालय की ऊंची चोटियों के बीच चंद्रा नदी के तेज बहाव को धता बताता एकदम सुस्त पथरीला रास्ता आगे चला गया है।
सड़क की उम्मीद में जो यहां आते हैं उन्हें भारी निराशा मिल सकती है, यह रास्ता क्या है बस बड़े-बड़े चट्टानी पत्थरों पर से वाहनों के गुजर जाने से खुल गई एक राह भर है। बीच-बीच में बड़े-छोटे नाले हैं जो ठंड से रात में भले ही सिकुड़ जाएं लेकिन दिन की धूप के साथ उनमें ग्लेशियरों का पानी तेजी से भरने लगता है।

यानी वाहनों को लेकर उनके आर-पार जाना गर्मियों के मौसम में भी आसान नहीं होता। नीचे भागती-दौड़ती नदी साथ होती है और साथ होते हैं वो ग्लेश्यिर जो पहाड़ों की चोटियों से भागते चले आते हैं। मीलों के फासले अकेले ही तय करते हैं आप, आखिर किसी हाइवे से तो गुजरते नहीं हैं जो ढाबे आएं या चाय-पकोड़े के स्टॉल मिलें। अलबत्ता, बीच-बीच में, वो बाइकर्स और साइकलिस्ट जरूर दिख जाते हैं इस राह पर पर एडवेंचर खुराक अपने फेफड़ों में उतारने आते हैं।

एक समय था जब लोग बड़ी-बड़ी टोलियों में रोहतांग के इस पार बसे संसार के लिए निकला करते थे। यह दर्रा अपनी भयावहता के कारण इतना कुख्यात था कि एक परिवार के ही दो आदमियों का एक साथ निकलना लगभग वर्जित था और इसका कारण यह था कि दर्रे पर अक्सर बर्फानी तूफानी बरपा हुआ करते थे, चिंघाड़ती हवाओं का रौद्रगान चलता था और दर्रा जब-तब इसे पार करने वाले लोगों-पशुओं की बलि लेने से चूकता नहीं था। तब बड़े-बुजुर्गों ने यह तय कि एक घर से एक वक्त में सिर्फ एक ही आदमी इसे पार किया करेगा ताकि किसी दुर्घटना की स्थिति में एक घर का कम से कम एक ही चिराग बुझे।

भोटी भाषा में रोहतांग के मायने हैं रोह – ‘शव’ और तांग – ‘ढेर’ या स्थान। यानी ऐसा स्थान जहां शवों के ढेर हों। बीते सालों में इस दर्रे से गुजरते हुए जाने कितने ही कारवां उजड़े और कितने ही रेवड़ इसकी बर्फ में दफन हुए। इसके हिम शिखरों पर से गड़गड़ाहट के साथ जाने कितने एवलांच धड़धड़ाते हुए नीचे आते हैं और अपने रास्ते में सब कुछ लील जाते हैं। फिर यह बर्फीला संसार एकदम चुपा जाता है, सन्नाटे में डूब जाता है, ध्यानमग्न योगी की तरह .. जैसे फिर एक और तूफान के लिए अपनी ऊर्जा जुटा रहा हो..

रफ्तार क्या होती है इसे भुलाने का मंत्र चाहिए तो रोहतांग दर्रे से आगे निकलना ही होगा। 15 हजार फुट से अधिक ऊंचे कुंजुम दर्रे को भी लांघना होगा, लाहुल और स्पीति की उस दुनिया में जाना होगा जिसे कभी रुडयार्ड किपलिंग ने ”हमारी दुनिया के भीतर एक दुनिया” कहा था!

सरकारें और प्रशासन इन दूरदराज की जगहों पर ज़रा देर से ही करवटें लेते हैं। हिमालय के उस पार का यह संसार शायद इसी वजह से अपने तिलिस्म को बचाकर रख पाया है।