काठमांडू शहर जिंदा था उस रोज़, अपनी तमाम बेताबियों, आपाधापी और मसरूफियत के साथ …
तबाही और त्रासदी के मंज़र से जूझते काठमांडू शहर से मेरी वाकफियत उस वक़्त की है जब नेपाल के मायने हमारे लिए ‘फोरेन’ हुआ करते थे, जब हिप्पी कल्चर ने नेपाल को पूरी दुनिया में ‘फेमस’ कर दिया था, जब हम भी नेपाल के सफर को सात समंदर पार के सफर जैसा दर्जा दिया करते थे! वो नेपाल था अस्सी और नब्बे के दशक का, जब नेपाल में राजशाही कायम थी और सम्राट बिरेंद्र अपनी सम्राज्ञी महारानी ऐश्वर्य के संग अक्सर भारत पधारा करते थे।
और काठमांडू मेरे लिए पशुपतिनाथ धाम ही था। अपने पहले और इकलौते सफर में बागमती नदी के किनारे इस धाम पहुंची थी बिना कैमरे, स्मार्टफोन के साथ। मन और होंठों पर सिर्फ प्रार्थना गीत लिए… अपनी स्मृतियों में कैद कर ली थी वो पावन सुबह जब पैगोडा शैली में बने पशुपतिनाथ के द्वार पर नंदी की विशाल प्रतिमा से संवाद किया था, जब अपने आराध्य शिव से मिली थी, कैलास-मानसरोवर में शिवधाम जाने से ठीक पहले का वाकया था ये। और यह संयोग ही था कि एक के बाद शिवस्थलियों पर पहुंचने के क्रम में उस दिन पशुपतिनाथ भी पहुंच गई थी।
मंदिर के परिसर में शिवलिंगों का जैसे जादुई संसार था, और उसके गिर्द घूमते हुए परम शांति से गुजरी थी उस रोज़!
अगले दिन हमारी मंजिल थी स्वयंभू स्तूप। हमारे साथी जर्नलिस्ट अभी होटल में गहरी नींद में थे और हम दो उस अनजान शहर की गलियों में बढ़ चले थे। होटल के करीब ही था पहाड़ी पर बना स्वयंभू स्तूप। हांफते-थकते सीढ़ियां पार करते हुए जब स्तूप के परिसर में पहुंचे तो सवेरे के बाल सूर्य पहला संवाद हुआ था। तीर्थयात्रियों की रौनक से गुलज़ार था पूरा इलाका, कहीं मनकों की माला पर से गुजरती उंगलियां तो किसी कोने में ग्रीन टी पिलाता गोरखा थकेहाल जिस्मों की दुआएं बटोर रहा था। दूर तलक शहर की इमारतों का सिलसिला फैला था जिस पर तेजी से सूरज की किरणें उतर रही थीं।
अगला दिन काठमांडू शहर के दूसरे छोर पर एक पहाड़ी पर बने अमिताभ मठ में बीता। यहां कुंग फू भिक्षुणियों से मिलने की बेताबी थी। ग्वालवांग द्रुक्पा ने मठ की इन साधिकाओं को मार्शल आर्ट की शैली सीखने के लिए प्रेरित किया जिसे सीखने की उन्हें मनाही थी।
उस रोज़ इन भिक्षुणियों से मिलकर लौटे तो दरबार स्क्वायर की तरफ बढ़ चले। काठमांडू का सबसे चहल-पहल भरा इलाका, सबसे ज्यादा टूरिस्टी भी।काष्ठमंडप देखा, वही जिसके नाम पर काठमांडू का नामकरण हुआ है। इस पूरे स्कवायर में काठ निर्मित मंदिरों की कतार थी।
काठमांडू की बिंदासी को जिया उस रोज़। पुराना राजमहल देखा, उसका संग्रहालय और फिर बाहर चौकस खड़े इस गुरखा गार्ड से भी मिले।
दरबार स्क्वायर पर जैसे जादुई संसार फैला था। यहां से वहां तक मंदिरों की भीड़ थी और अचरज की बात थी कि ज्यादातर मंदिर बंद थे। साल में सिर्फ एक रोज़ किसी खास अवसर पर खुलने वाले उन मंदिरों के बंद दरवाज़ों को देखकर लौटा लाए कदम।
और कुछ आगे बढ़ने पर नेपाल की उस बरसों पुरानी परंपरा से रूबरू हुई जिसकी सिर्फ चर्चा सुनी थी, कभी नज़दीक से देखने-जानने का मौका नहीं मिला था। हम पहुंच चुके थे कुमारी मंदिर के अहाते में जहां कुमारी देवी के दर्शन देने का समय बस कुछ ही पलों में होने वाला था।
काठमांडू के थामेल इलाके में टिके थे हम, पूरा बाज़ार नॉर्थ फेस के जैकेटों से पटा पड़ा था। ट्रैकिंग बूट थे, रेनकोट थे, आइसएॅक्स और क्रैम्पोन बेचती दुकानें थीं और हर तरफ सैलानियों का मेला था। इसी मेले के लिए कैसिनो-बार भी सजे थे। काठमांडू जिंदा था उस रोज़, अपनी तमाम बेताबियों, आपाधापी और मसरूफियत और मासूमियत के साथ …