बस्तर में उस गहराती शाम के सन्नाटे का रोमांच आज भी ताज़ादम है। कांगेर वैली नेशनल पार्क में तीरथगढ़ जलप्रपात को देखकर अकेली लौट रही थी। सर्पीले मोड़ काटती सड़क पर भूले भटके एक वनवासी धनुष-बाण लिए जाता दिखा, उससे आंखे चार हुई, मुस्कुराहटों का आदान-प्रदान हुआ और मैं अपनी राह, वो अपनी … जुबानें फर्क थीं तो क्या, हमारे पास संवाद के कई-कई आयाम होते हैं। उस रोज़ बेजुबान रहकर भी बहुत कुछ कहा-सुना गया था। वो शायद शिकारी रहा होगा, हाथ में बांस की एक कमज़ोर-सी टोकरी में छोटे-बड़े दो—चार पंछी औंधे पड़े थे, आंखों में चमक थी और उस दिन का भोजन जुटा लेने का जोश उसके पैरों की गति में उतर आया था। मैंने गाड़ी रुकवाई, उसे दूर तलक जाते हुए देखने के लिए।
इस बीच, ड्राइवर की बेचैनी देखने लायक थी, बस्तर में सफेद सेडान चलाने का डर उसके दिलो-दिमाग पर हावी था। उसे मेरा रह-रहकर यों रुकना असहज बना रहा था, वो फर्राटा दौड़ लगाने के हुनर में लाजवाब और मैं स्लो-ट्रैवल की आदी! वो उस ‘खतरे के गढ़’ से जल्द-से-जल्द बाहर निकल जाना था और मैं अपनी सांसों में उसकी हवा को भरपूर उतार लेने पर आमादा!
जिस संकोच, डर और शक को लेकर निकली थी वो वहीं किसी नदी-नाले में दफन हो चुका है। बीते दिनों में पूरे 96 घंटे और 1300 किलोमीटर का सफर बस्तर में तय करने के बाद मैं इतना तो समझ ही चुकी थी कि बस्तर की बस्तियों में एक अकेली शहरी औरत वैसा नमूना नहीं होती जैसी वो अपने महानगर में होती है। बारसूर के जंगल से गुजरते हुए किसी शिकारी से आमना-सामना होने पर मुस्कुराहटों के सिलसिले दोनों तरफ से आगे बढ़ते हैं, किसी हाट बाज़ार में महुआ शराब बेचती आदिवासिन उसके सुरूर में डूब जाने के लिए आपको आमंत्रित करती है – और आप भी बेखौफ होकर उसका निमंत्रण हाथों-हाथ लपक लेने को आतुर होते हैं। दंतेश्वरी के मंदिर में फूलों की लड़ियां लेकर घूमती आदिवासिन वृद्धा अपनी मोहक मुस्कान से आपका दिल लूट लेती है।
लोहांडीगुड़ा का हाट बाज़ार दिलो-दिमाग पर किसी विजुअल टेपेस्ट्री की तरह छा जाता है।
रायपुर से एक दौड़ता हाइवे पहुंचता है बस्तर के जिला मुख्यालय जगदलपुर तक। शहरी हदों के निपट जाने के बाद असली सफर शुरू होता है। और ये असली वाला सफर कांकेर के बाद ही मिलता है। कांकेर का नाम सुनकर दिलों की धड़कनें बढ़ना लाज़िम है । अकेले होने का अहसास और शिद्दत से महसूस किया वहां मैंने। दुकानों के अनगढ़ सिलसिले सिमटने लगे थे, बसों की पौं-पौं और ट्रकों के हॉर्न फीके पड़ रहे थे और एनएच 43 जैसे भागते-दौड़ते हाइवे पर मैंने एकाएक खुद को घने जंगलों से घिरा पाया। केशकाल घाट के बाद मोड़-दर-मोड़ मुड़ती सड़क और भी घने जंगल के बीच से गुजरती है। अब आपकी शहरी सभ्यता की निशानी के तौर पर साथ चल रहे स्मार्टफोन की स्क्रीन पर सिग्नल की रेखाएं भी धुंधलाने लगती हैं। दिल के किसी कोने में हल्की-सी चिंता की लकीर उठती है, आखिर आप माओवादियों के गढ़ में हैं और फोन-इंटरनेट तक से महरूम हो चुके हैं। कहीं कुछ जरूरत आन पड़ी तो? कुछ घट गया तो ?
ऐसी ही सवालों से जूझते हुए आप कोंडागांव आ लगते हैं। हाइवे के किनारे अब जिंदगी जीती दिखती है। बस्तर आर्ट, शिल्पग्राम, कुम्हारपारा जैसे नाम चौंकाते हैं। ज़रा ठहरकर इस शहर से बातें कीजिए, इसकी धड़कनों को सुनिए, इसके अंदाज़ को समझने का थोड़ा-सा ही सही, मगर जतन जरूर कीजिए। हाइवे की सड़क से उतरिए और किसी भी गांव में मुड़ते मोड़ पर बढ़े चलिए। एक से एक शिल्प, मैटल आर्ट – डोकरा के उम्दा नमूने, टेराकोटा की लाजवाब कृतियां आपको दंग कर देंगी। उन्हें बनाने वाले हाथ और चेहरे देखकर आप हैरत में पड़ जाएंगे। इंद्रावती नदी किनारे की चिकनी मिट्टी से कुम्हारपारा के कुम्हार टेराकोटा शिल्प में जैसे अपनी कल्पनाओं के रथ दौड़ाते हैं। बस्तर के ये आदिवासी अपनी मस्तहाल जिंदगी का जश्न मनाते हुए हौले-हौले, गुनगुनाते हुए कभी शिल्पों पर चित्र उकेरते हैं तो किसी पल माटी या धातु की आकृतियों को जीवंत बनाने में रमे होते हैं। इन शिल्पियों के साथ पिछले 25 बरस से काम करते आ रहे एनजीओ ”साथी” ने महसूस किया कि बाज़ार की दौड़ और गति से इन आदिवासियों का कोई वास्ता ही नहीं है। वो तो जैसे मौसम की रवानी की तरह अपनी ही मस्त चाल से काम करते हैं!
बस्तर की इसी मस्ती को जिया इस बार मैंने। ट्राइबल और बैकवर्ड कहलाने वाले आदिवासियों के इलाके में प्रकृति की लय–ताल के साथ जीते उस वनवासी समाज के बीच मैंने अपने औरत होने का जश्न जी–भरकर मनाया। उस महानगरीय आतंक से मुक्त होकर जो यहां अपने शहर में कभी बस स्टैंड पर तो कभी सूनी–अंधेरी सड़कों पर घेर लेता है। न बींधती नज़रें, न जिस्म टटोलते किरदार, न जबर्दस्ती नज़दीकी बनाने को आतुर चेहरे … बस एक सीधी–सच्ची जिंदगी का जश्न मनाता ट्राइबल समाज। उसी मस्ती को जीकर लौटी हूं छत्त्तीसगढ़ से.. मध्य भारत के उस इलाके से जिसे माओवादियों से घिरा समझकर हम कभी अपनी ट्रैवल आइटनरी का हिस्सा नहीं बनाते। कितने मुगालते में जीने के आदी हैं हम! कुछ टटोलने से पहले ही उसके बारे में राय बनाने के हुनर में माहिर! कुछ जानने से पहले ही अपने फैसले सुनाने में अव्वल! कुछ समझने से पहले अपनी राय कायम कर लेने के उस्ताद …
Alka Buster kab gaie.likhne msin to timhara koi szni hai nahi.jitna boa jaye wahi kam hai.
बहुत बढ़िया वृतांत
बस्तर के ऐसे ही और भी कई दिलचस्प अनुभव जल्द आपके लिए इस ब्लॉग पर आ रहे हैं, पढ़ते रहिए, बताते रहिए कैसे लगे !
ये आपके लिए 🙂
http://blogsinmedia.com/2014/11/life-in-transit/