लिपुलेख (16730 फुट) की चढ़ाई
नाभिढांग (13,926 फुट) कैंप से सवेरे 3 बजे चल दिए हैं हम, बाहर निकलते ही हल्की चढ़ाई पार कर त्रिलोक अपने घोड़े के साथ हमारे इंतज़ार में खड़ा दिख गया। बिना सोचे-विचारे घोड़े की पीठ पर सवार हो गई हूं, दूसरे यात्री भी ऐसा ही कर रहे थे या कर चुके थे। आईटीबीपी के डाॅक्टरों, जवानों और केएमवीएन के गाइड के साथ मैं कारवां की ‘टेल’ का हिस्सा हूं। करीब 5 ‘स्टार्ड’ यात्रियों को टेल में चलने की सलाह गुंजी में डाॅक्टरों ने दी थी, कैलास दर्शन की इतनी मामूली शर्त का पालन करना उनके लिए कोई मुश्किल नहीं था। इस ‘टेल’ में उन्हें रखा गया था जो हाइ ब्लड प्रेशर या डायबिटीज़ जैसी चुनौतियों की वजह से इस निर्मम ऊंचाई पर कुछ खतरे में पड़ सकते थे। मेरे साथ आए मेरे पति इन्हीं ‘वीआईपी यात्रियों’ में शुमार थे, लिहाजा मैं भी उस ‘टेल’ से नत्थी हो गई।
लिपुलेख तक पहुंचने के लिए नाभिढांग से आगे आज 8.5 किलोमीटर का रास्ता नापना है, घोड़ों पर सवार, माथे पर हैडलैंप बांधे और पीठ पर जरूरत भर का मामूली सामान झोले में टांगकर हम निकल पड़े हैं। आसपास कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था, लेकिन उसके बावजूद अपने कैंप से बाहर आकर उस तरफ देखने का मोह संवरण नहीं कर पायी जिस ओर ओम पर्वत है। बादलों, धुंध और अंधेरे की परतों ने पूरा आसमान निगल रखा था, ऐसे में ओम पर्वत की झलक भी मिलना नामुमकिन था। ”कोई बात नहीं, लौटते वक़्त सही”, का दिलासा खुद को देकर चल पड़े हैं।
आज का सफर और दिनों से बहुत अलग होने वाला है, ब्रह्ममुहूर्त में कैंप छोड़ दिया है और सवेरे 6-7 बजे के बीच लिपु दर्रे पर हर हाल में पहुंच जाना है। सुना है कि उस ऊंचे दर्रे पर 8 बजे के बाद तूफानी हवाएं चलने लगती हैं और देखते ही देखते सांय-सांय इतनी बढ़ जाती है कि फिर उस बुलंदी पर से गुजरना नामुमकिन हो जाता है। सदियों से यात्री दर्रों को पार करने के लिए आधी रात से यात्राएं शुरू करते आए हैं ताकि सवेरे की रोशनी बिखरने तक बेरहम ऊंचाइयों से पार पहुंच जाएं। हमें भी आईटीबीपी ने इसी गणित को समझाकर सवेरे 3 बजे कैंप से बाहर निकलवा ही दिया। मेरे आगे 40-45 यात्रियों का कारवां है, उस गहरे अंधकार में जैसे रोशनियों का एक लंबा सिलसिला मेरे सामने चला जा रहा है, हरेक के पास टाॅर्च या हैडलैंप की रोशनी है, साथ चल रहे पोर्टर और पोनीवाले के टाॅर्च की रोशनी भी सामने के रास्ते पर लगातार गिर रही है। लगता है जैसे हम नहीं रोशनी का कोई कारवां आगे बढ़ा जा रहा है। उस अंधेरे में पूरी चुप्पी को भंग कर रही थी घोड़ों की पदचाप या दायीं ओर से लगातार सुनायी दे रहा पानी की धारा का शोर। घोड़ों के गले में लटकी घंटियां भी गुनगुना रही थीं। हम सबकी जुबान पर जैसे ताले लटके थे, जैसे हम ध्यानमग्न हो गए थे, सिर्फ चलना ही था, चलते ही जाना था …..
एकाएक कारवां रुक गया। अब यात्री और घोड़े अलग-अलग खड़े थे। ”मैडम जी, यहां उतरो … कुछ देर रुककर चलेंगे। वरना हम जल्दी पहुंच जाएंगे लिपु पर …. और वहां रुकने जैसा कुछ नहीं होता …. ” घोड़ेवाले की ताकीद पर उतरना ही था। उस स्तब्ध कर देने वाले सुनसान को भंग करती नदी की धारा का शोर अब और भी साफ सुनाई देने लगा था, बायीं तरफ एक टूटी-फूटी इमारत है, ठंड से बचने के लिए मैं तेजी से उसकी तरफ लपक ली हूं। हैडलैंप की रोशनी उस ओर डालने पर कुछ पोर्टर अंदर एक बड़े हाॅलनुमा कमरे में एक कोने पर बैठे दिखाई दिए। इतनी ऊंचाई पर अब कोहरे ने ओस की बूंदों के रूप में बरसना शुरू कर दिया, ऐसे में बाहर खड़े रहकर खुद को भिगोने की बजाय अंदर घुसने में ही भलाई थी। यह ज़ीरो प्वाइंट था, कभी आईटीबीपी का ठिकाना रहा होगा लेकिन अब हमारे जैसे ठंड से ठिठुरते यात्रियों के लिए एक अदद छत बनकर रह गया है। घोड़े की पीठ से उतरने पर मिला चैन था या ठंडी हवाओं से कुछ बचाव मिलने पर आयी गर्मी का अहसास कि मैं कुछ ही देर में ऊंघने लगी। बिना यह परवाह किए कि मैं कहां हूं, मेरे आसपास कौन लोग हैं और वो कैसे हैं। बहरहाल, ये सवाल बेमायने थे उस रोज़। कुछ यात्रियों ने यहां मेवे निकाल लिए हैं, कुछ शरीर को गर्मी देने के लिए अपने हाथों को रगड़ रहे हैं। मगर होंठों पर जो किटकिटाहट जमा हो गई थी वो अब अगले कुछ घंटे छूटने वाली नहीं थी। ये अलग बात है कि उस घड़ी हमें भी इसका अंदाज़ा नहीं था।
अब यात्रियों में खुसर-पुसर बढ़ गई है, सभी को लग रहा है कि अगर यहां रुकवाना ही था तो कैंप में ही रहने देते हमें, कम-से-कम वहां ऐसी तकलीफ तो नहीं थी। लेकिन आईटीबीपी का भी अपना हिसाब-किताब है, उन्हें हर हाल में हमें सवेरे छह-सात बजे तक लिपु टाॅप पर पहुंचाना है, तभी कैलास परिक्रमा कर तीर्थयात्रियों का पिछला दल तिब्बत से लौट रहा होगा, दर्रे पर उनके इस ओर आते-आते हमें उस ओर उतरना शुरू कर देना है। ठीक उसी समय चीनी इमीग्रेशन अधिकारी भी दर्रे पर आते हैं, इधर से जाने वाले यात्रियों के पासपोर्ट देखकर तिब्बत में दाखिल होने की इजाज़त ये लोग ही देते हैंं। यानी यह पूरी प्रक्रिया एक निश्चित समय के अंदर पूरी कर लेनी होती है क्योंकि फिर चीनी अधिकारी लौट जाते हैं और उधर टाॅप पर जंगली हवाओं का दबदबा बढ़ने लगता है।
एक बार फिर हम घोड़ों की पीठ पर लटक चुके हैं, रोशनी का सफर फिर शुरू हो गया है। पहाड़ी ऊंचाइयों-ढलानों पर ऊपर-नीचे पड़ रही हैडलैंप की रोशनी ने जैसे कोई राग सुनाया हो। इस बीच, इस रुकने और रुककर चलने से एक तस्वीर जो बदली वो यह कि हम ’टेल‘ की बजाय कारवां में काफी आगे हो गए हैं, हमारा घोड़ेवाला युवक बहुत फुर्तीला है, वो तेजी से घोड़े को हांककर ऐसे ले जा रहा है जैसे अब बची हुई दूरी उड़कर पार करने का कोई करार कर चुका है। कितने ही दूसरे घोड़ों को पछाड़कर हम बहुत आगे निकल आए हैं। एकाएक पीछे मुड़कर ’टेल‘ को देखने की कोशिश में हूं, अंधेरे में आंखे गढ़ाकर देखने का भी कोई फायदा नहीं हुआ। अलबत्ता, अब रोशनियों का सिलसिला दूर पीछे पहाड़ी के मोड़ तक दिखाई दे रहा है, ऊपर-नीचे हिचकोले खाती, तैरती, उठती-गिरती रोशनी… यही नज़ारा सामने भी है। एक कतार है रोशनी की जो बढ़ी चली जा रही है, अंधेरे को चीरती, पता नहीं किससे-कहां मिलने को आतुर ….
हम बड़ी देर से बायीं ओर की पहाड़ी से सटकर चले आ रहे हैं, फिर पत्थरों पर से गुजरती धार को मोड़ पर पार करने के बाद कुछ चैड़े रास्ते पर आ पहुंचे हैं। अब चट्टानी पत्थरों पर बीच-बीच में चांदनी के गुच्छे से बिखरे दिखने लगे हैं। कुछ छोटे-छोटे फूल भी खिले हैं मगर चांदी की उस घास को देखकर हैरत में हूं। अगले एकाध किलोमीटर तक उन चांदी की लकीरों को देखकर धीरे-धीरे अचरज भी खत्म होने लगा है, पोर्टर से पूछती हूं उसके बारे में। ’’यह राक्षस घास है’’ और इतना कहते-कहते उसने अपने पर्स में रखी वैसी ही घास का एक टुकड़ा मुझे पकड़ा दिया है। ”हम पहाड़ों के लोग हमेशा इस घास को अपने पास रखते हैं, जेब में, पर्स में, झोले में … यह हमें बुरी आत्मओं से बचाती है। भूत-प्रेत नहीं लगते उन्हें जिनके पास यह होती है ….”
पहाड़ के सीधे-सरल, भोले-भाले विश्वास को इतने करीब से देखना सुखद अहसास से भर जाता है।
बायीं ओर दूर हल्का उजाला दिखने लगा है। दायीं ओर अभी भी गहरा अंधेरा ही है और कहीं दूर से आती पानी की रवानी का शोर बता रहा है कि नीचे गहरा खड्ड या खाई है। कलाई पर घड़ी बंधी है मगर उस तक पहुंचने के लिए मुझे एक-एक कर कपड़ों की पूरी छह परतों को हटाना पड़ेगा, और दाएं हाथ को इस काम के लिए खाली करना भी क्या किसी चुनौती से कम था! पोनीवाले को घोड़े की रफ्तार धीमी करने को कहा है ताकि बिना किसी डर के तसल्ली से समय देख सकूं! सवेरे के पांच बज चुके हैं, और बायीं ओर का उजाला उस रोज़ के सूरज के उग आने की मुनादी पीट रहा है। दूर जैसे अंधेरे की चादर धीमे-धीमे सिमटने लगी और उजाले ने हाथ बढ़ाकर हमारी नज़दीकी पहाड़ी को भी छू लिया है।
अब रास्ता भी साफ दिखायी देने लगा है। अभी तक रास्ते का अनुमान सिर्फ कानों से लगाते आए हैं लेकिन अब मालूम हुआ कि जिस पगडंडी पर हम बेखौफ बढ़े चले जा रहे हैं वो मुश्किल से दो फुट चैड़ी भी नहीं है! उसी पर घोड़ा, घोड़े को हांकने वाला। उस संकरे पथरीले रास्ते पर दायीं तरफ एक तीखी ढलान है जो अगर ज़रा भी चूक हुई तो नीचे खाई में बह रही धार में ले जाकर सीधे पटकेगी। नज़रें फेर ली हैं मैंने इस तरफ से, घोड़े की पीठ पर और कसकर बैठ गई हूं … घबराहट की उस घड़ी में कोई मंत्र भी याद नहीं आया जिसके सहारे उस खतरे को पार करती। अब सिर्फ सूर्योदय का ही सहारा है, मगर पता नहीं किस पहाड़ी की किस ओट में सूरज की सवारी अटक गई है, पूरे आकाश में सलेटीपन दिख रहा है, वो गुलाबी आकाश या लाली यहां नहीं है जिसे हम अपने आसमान में देखने के आदी हैं।
कुछ देर में इस राज़ पर से भी परदा उठ गया है …. आसमान पर बादलों की मोटी परत चढ़ी है। सूरज दिखे भी तो कहां से? ओह, कहीं बरसात न होने लगे अब, दर्रे के नज़दीक पहुंच रहे हैं हम, यही कोई एक किलोमीटर दूर होंगे अपनी मंजि़ल से। और अगर बारिश ने अपना रंग दिखाया तो ?
पहाड़ों में और वो भी दर्रों के आसपास एक किलोमीटर कब सचमुच का एक किलोमीटर होता है ? अभी इस दूरी को नापने में भी एक घंटा लगेगा, या कुछ ज्यादा भी लग सकता है क्योंकि जितनी हिम्मत बटोरकर सवेरे निकले थे वो कभी की निपट चुकी है, अब तो अब पोनीवाले और पोर्टर की मदद का सहारा है। आईटीबीपी के जवानों की हौंसलाअफज़ाई है वरना खुद का तो हाल पूरी तरह बेहाल है! फेफड़ों ने भी अपनी पूरी जान लगा दी है लेकिन सांस है कि कहीं अटक-अटक जाती है। ठंड से हौंसले पस्त हैं, किसी से कुछ बोलते नहीं बन रहा। लगता है जैसे किसी सम्मोहनवश हम आगे बढ़ रहे थे, किसी और ही शक्ति से खिंचे चले जा रहे थे, किसी और ही के आकर्षण से हमारे पैर उठ रहे थे …..
साढ़े छह बजते-बजते हम दर्रे पर पहुंच चुके थे। यहां बोलने की रही-सही ताकत भी जाती रही थी, बदन पर जितनी भी परतों को लादकर यहां तक आए थे, वो नाकाम लग रही थीं। ठंड से किटकिटाते दांत, अकड़ता बदन, हिलते हाथ-पैर और उस पर कंपा देने वाली उस सर्द बुलंदी पर बिना किसी छत-दीवार के जाने कब तक खड़े रहने की मजबूरी बहुत उबाऊ थी। जब तक चीनी तरफ से नीचे से भारतीय यात्रियों का दल नहीं लौटेगा तब तक हमें दर्रे की इस खतरनाक ऊंचाई पर यों ही इंतज़ार करना होगा। धीरे-धीरे हिम्मत जुटाकर दूसरे यात्रियों का हाल-चाल मालूम करने आगे बढ़ती हूं। हैरत में हूं कि हर किसी का हाल कमोबे’ा मुझ जैसा ही है, किसी-किसी महिला यात्री को तो रोते भी देखा, आंसुओं से ज़ार-ज़ार … जैसे खुद से खुद ही शिकायत कर रही हो कि क्यों यहां आ गयी? ठंड से हलकान जानकी की हालत औरों से ज्यादा खराब है, शायद उसने गरम कपड़ों से खुद को ढकने में थोड़ी ढिलाई की है। बहरहाल, आईटीबीपी के डाॅक्टर उसके हाथ-पैर रगड़कर उसकी देखभाल में जुटे हैं। उसे कितना सुकून मिला मालूम नहीं, मगर आईटीबीपी की मुस्तैदी पर मैं सिर्फ नतमस्तक हूं।

आईटीबीपी (#ITBP) ही क्या उत्तराखंड पुलिस, मेडिकल सर्विस, कुमाऊं मंडल विकास निगम लिमिटेड (#KMVN) और भारत सरकार के विदेश मंत्रालय (#MEA, Indian Govt) ने इस यात्रा को संभव बनाने में काफी अहम् भूमिका निभायी है। उन सभी के प्रति आभार!

कैलास-मानवरोवर के रहस्यमय लोक में सात दिन
”मानसरोवर में स्नान करने देवतागण स्वयं उतरते हैं, ब्रह्ममुहूर्त में आसमान से तारों के पुंज सरोवर में उतरने देखे जा सकते हैं जो सरोवर के जल में डुबकी लगाकर फिर वापस हो जाते हैं। … ”
”कैलास के ललाट पर भोले बाबा और पार्वती माता की छवि दिखती है, भक्तों के मन में आस्था हो तो उनके चेहरे साफ दिखायी देते हैं …. ”
ऐसे ही किस्से-कहानियों को सुनते-सुनाते, दुर्गम हिमालयी पहाडि़यों और दर्रों, नदियों, गधेरों, नालों और बीहड़ों को पार कर पंद्रह अगस्त की सुबह हमने तिब्बत के तकलाकोट में हाजिरी दी। यहां तक पहुंचे हैं लिपुलेख दर्रे पर बिछे जाने कितने ही अनगढ़ पत्थरों को पार करते हुए। आगे बढ़ते हर कदम के साथ हवा लगातार पतली हो रही थी, लगता था सांस लेने से बड़ा उपक्रम जीवन में और कोई नहीं है और तब भी धमनियों को पूरी आॅक्सीजन कहां मिल पा रही थी! हथेली में बंधी कपूर की नन्ही पोटली को सूंघकर किसी तरह उखड़ती सांसों को काबू में रखने का प्रयत्न जारी था। पैरों में जैसे पत्थर बंध गए थे और अपनी ही काया को ढोना नागवार लग रहा था। कैलास दर्शन की आस कुछ पल के लिए कहीं किसी कोने में दुबक गई थी, तन और मन की पूरी श क्ति सिर्फ उस दर्रे को किसी तरह से पार कर लेने में लगी थी। मेरी खस्ताहाल चाल देखकर सामने की तरफ से ऊपर बढ़ी चली आ रही चीनी गाइड डाॅल्मा ने मेरे कंधे पर लटका कैमरा बैग मुझसे ले लिया, कोहनी के पास से मेरी बांह पकड़ी और आगे बढ़ा ले गई। पांच मिनट बीते होंगे और हमें लेने आयी जीपें खड़ी मिली, अपनी थकेहाल काया को किसी तरह जीप की सीट पर लादा और दर्रे से नीचे उतरने की यात्रा शुरू हुई। पूरे सप्ताह भर के बाद किसी गाड़ी को देखा था, बीते छह दिन भारत के उत्तरी प्रांत उत्तराखंड के उच्च हिमालयी बियाबानों को लांघते-पार करते हुए इस धुर कोने तक पहुंचे थे। पिथौरागढ़-तिब्बत सीमा का प्रवेश द्वार – लिपुलेख, 16 हजार 730 फुट की ऊंचाई पर यह दर्रा कैलास यात्रियों की कड़ी परीक्षा लेता है। वो तो हम खुशकिस्मत थे कि उस रोज़ न बारिश थी, न आंधियां, न बर्फबारी और न सांय-सांय चिंघाड़ती हवाओं का रौद्र गान! भारतीय सीमा में 13,926 फुट की ऊंचाई पर स्थित नाभिढांग से लिपुलेख की इस ऊंचाई पर पहुंचने में हमने 2,804 फुट की ऊंचाई महज़ पांच घंटे में हासिल की थी।
तीन किलोमीटर जीप के सफर के बाद आगे तकलाकोट तक करीब 19 किलोमीटर की दूरी बस से नापनी है। भारतीय सीमा के भीतर दुर्गम ट्रैकिंग रूट से एकदम 180 डिग्री उलट था तिब्बत में तीर्थयात्रा का मार्ग। तराई के इस इलाके में वनस्पति नदारद है, फर्राटा दौड़ते हाइवे हैं और सड़कों के दोनों तरफ दूर-दूर तक सिर्फ रेगिस्तानी बियाबान है। कुछ आगे बढ़ने पर ल्हासा जाने वाला हाइवे दिखता है जो हिंदुस्तान से आए हम यात्रियों हतप्रभ करता है। चीन ने तिब्बत के इस दुर्गम इलाके में भी सड़कों का जाल बिछा दिया है और पुराने व्यापारिक कस्बे तकलाकोट (पुरंग) में भी पुराने के नाम पर कुछ नहीं दिखता।

तेजी से दौड़ती बस ने अचानक ब्रेक लगा दी है, हमारे तिब्बती गाइड ने हमें नीचे उतरने को कहा है। ‘आगे करनाली पर पुल कमज़ोर है, हमें चलकर उसे पार करना होगा’, तिब्बती इलाके में हिंदी में दिया निर्देश अच्छा लगता है। करनाली ही क्या आसपास हर जगह निर्माण होता दिखता है, विकास है, नयापन है और कहीं-कहीं एक्सप्रेसवे जैसी अत्याधुनिक सड़कें भी हैं। कुछ देर के लिए हम भूल ही जाते हैं कि हम कैलास-मानसरोवर के प्राचीन तीर्थयात्रा मार्ग पर से गुजर रहे हैं। भारत के पाले में जहां यात्रा मार्ग वैसा ही पुराना कायम है जैसा दशकों पहले था, वहीं तिब्बत में सब कुछ बदला जा चुका है।
करीब घंटे भर के सफर के बाद हम इमीग्रेशन दफ्तर में थे, हमारे सामान के साथ-साथ हमें भी जांच पैनलों से गुजरना होगा, तेज-तर्रार चीनी इमीग्रेशन अधिकारियों की मौजूदगी से माहौल में तनाव था, हालांकि यह ठीक वैसा ही था जैसे दुनिया के किसी भी एयरपोर्ट पर इमीग्रेशन या कस्टम अधिकारियों से सामना होने पर होता है। इस औपचारिकता को पूरा करने में घंटा भर लगा होगा, अब थकान और भूख हम पर हावी होने लगी थी। हालांकि बस में बैठते ही सेब और फ्रूट ड्रिंक से तिब्बती गाइडों ने हमारा स्वागत किया था, लेकिन पिछली रात 1 बजे से उठे हमारे बदन अब अकड़ने लगे थे। थकान लाजि़म थी। हालांकि अब हम उतरकर 12930 फुट पर आ चुके थे और लिपुलेख के मुकाबले यहां थोड़ी राहत भी थी।
तकलाकोट में
बस एक बार फिर चल दी है, करीब आधा किलोमीटर दूर पुलान होटल में हमें लाया गया। यहां दो दिन ठहरना है, कल तक हमारे पासपोर्ट जंचकर आएंगे और तभी शुरू होगी आगे की यात्रा। हर कोई जल्दी-जल्दी नहा-धोकर, खा-पीकर आज आराम फरमाने के मूड में है। उठकर तकलाकोट शहर से भी मिलना है। इस बीच, गाइड एक बार फिर हमसे मुखातिब थे। तकलाकोट बेशक, पुराना व्यापारिक कस्बा रहा है लेकिन अब चीनी सेना और पुलिस का अड्डा ज्यादा दिखता है। जगह-जगह चीनी सैनिक और सीसीटीवी कैमरों की निगहबान आंखों से घिरे हैं हम। हमें सैनिक ठिकानों, पुलिस चैकियों जैसी संवेदनशील इमारतों वगैरह की फोटो नहीं लेने के बारे में हिदायतें दी जा रही हैं। यों तीर्थयात्रियों को सेना-वेना से क्या काम, तो भी कहीं हम अनजाने में संवेदनशील जगहों को कैमराबंद न कर लें, इस गरज से हमें एक लंबा-चैड़ा लैक्चर सुनाया गया। बेशक, हमें तिब्बत में आधुनिक सुविधाएं रास आ रही थीं मगर चीनी तेवर कुछ असहज बना रहे थे। और ठीक उस पल हम खुद को अपने देश और परदेश के हालातों की तुलना करने से नहीं रोक पाए। अपने देश में बेशक शारीरिक तकलीफ थी मगर आत्मा की गहराइयों तक आजादी का अहसास था। और यहां, वो अहसास जैसे तिब्बत की तीखी धूप में भाप का गोला बनकर आसमान में कहीं गुम हो चुका था!
अश्व वर्ष में कैलास कुंभ
अगले दिन हमारे पासपोर्ट लौट आए थे, उन पर कोई मुहर चस्पां नहीं थी क्योंकि पूरे ग्रुप को सामूहिक वीज़ा दिया गया था। अब अगले दिन से यात्रा का वो हिस्सा शुरू होने वाला था जिसके लिए हम पिछले ग्यारह दिनों से सफर में थे। आज बारहवें दिन हमें कैलास के दर्शन होने हैं, नहाने-धोने से निपटकर सुबह सात बजे ही हम बसों में लद गए। यहां से दारचेन जाना है, ठीक कैलास की जड़ में। तकलाकोट से दारचेन तक के रास्ते में तिब्बती, नेपाली तीर्थयात्री दिखने लगे हैं। हमें मालूम है यह चीनी ‘हाॅर्स ईयर’ यानी अश्व वर्ष है। हर बारह वर्ष में एक बार आने वाले अश्व वर्ष में तिब्बत में कैलास कुंभ होता है और तिब्बती धर्मग्रंथों के अनुसार इस वर्ष कैलास और मानसरोवर की एक परिक्रमा ही अन्य वर्षों में की गई कुल तेरह परिक्रमाओं जितनी फलदायी होती है। हम संयोगवश इस पुण्य के भागी बने हैं।
कुछ देर में हाइवे से एक नीली झिलमिलाहट दिखायी देने लगी और तभी एक साथ यात्रियों की चीख गूंजी – कैलास का धवल विस्तार उस नीली झील के पार अपनी पूरी आभा के साथ उपस्थित था। बस दाएं-बाएं मुड़ रही है और उसी के हिसाब से कैलास के दर्शन भी कभी दायीं तो कभी बायीं तरफ की खिड़की से हो रहे हैं। उत्साह में मैं अपनी सीट से उठकर बस के अगले भाग तक दौड़ गई हूं, सामने की विंडस्क्रीन से कैलास की झलक नहीं पूरे दर्शन हो रहे हैं। इस बीच, बस रुक चुकी है। नीली झील का विस्तार सामने पसरा है, उसके नीलेपन में एक भी लहर नहीं उठ रही, बिल्कुल शांत, निस्तब्ध, स्थिर! यह राक्षसताल या रावणहृद है।

वही झील जिसके किनारे कभी लंकापति रावण ने कैलासवासी शिव को प्रसन्न करने के लिए वर्षों तपस्या की थी। झील काफी नीचे है, तिब्बत के उस पठार पर हम सांसों को संभालना अभी सीख भर रहे हैं, इसलिए नीचे ढलान पर उतरने से खुद को किसी तरह रोक लिया है। झील के किनारे जगह-जगह याक के सींग ज़मीन में गढ़े हैं। तिब्बती में ”ओम मणि पद्मे हुम्म” के संदेश इन सींगों पर खोदे जाते हैं और रंग-बिरंगे रेशमी स्कार्फों से इन सींगों को सजाया जाता है। लाल पथरली जमीन पर चारों तरफ सिर्फ ऐसे ही सींग हैं और उनको घेरे परम शांति है।
सम्मोहक कैलास सामने है। मैं अटल कैलास को देख रही हूं, आंखे अब तक लबालब भर चुकी हैं, इतनी कि सामने का दृश्य धुंधलाने लगा है …. मेरी दायीं तरफ छिंदवाड़ा से आए कैलाश अग्रवाल खड़े हैं, हाथ जोड़े, आंखें मूंदे और उनके गालों पर भी अविरल धार बहती देख रही हूं। पूरे 48 तीर्थयात्रियों का आस्थामय समूह मेरे इर्द-गिर्द है, अपने-अपने आस्था के कैलास को निहारते हुए ….
रावणताल के बाद अगली मंजिल दारचेन है। आज यहीं रुकना है। तकलाकोट से दारचेन तक पूरे 102 किलोमीटर का फासला तय कर पहुंचे हैं और 15320 फुट की ऊंचाई पर आ गए हैं। लगता है जैसे कैलास के आंगन में पहुंच चुके हैं। दारचेन में एक तिब्बती बाज़ार है, कुछ यात्री दारचेन की उन गलियों को खंगालने पहुंच चुके हैं और कुछ तिब्बती औरतें अपनी मोती-मालाओं के साथ दारचेन में हमारे गैस्ट हाउस में ही बाज़ार लगाने आ गयी हैं। हमने आज दारचेन के बाज़ार में रेस्तराओं को तलाशने में अपनी दोपहर लगा दी है, वेजीटेरियन भोजन की तलाश इतनी आसान जो नहीं होती! मगर सिर्फ तलाश ही काफी नहीं है, अब रेस्तरां में ‘आॅर्डर’ करना दूसरी चुनौती है। मैं सोच रही थी पहाड़ी दर्रों को किसी तरह थकेहाल बदन पार कर ही लेते हैं, लेकिन इन भाषायी दीवारों को लांघना कितना मुश्किल पड़ता है!
बहरहाल, खुशकिस्मती से एक चीनी युवती हमारी इंटरप्रेटर की भूमिका निभाने के लिए वहां पहले से मौजूद थी, मैन्यू कार्ड और तिब्बती बैरे के साथ हमारी संवादहीनता को भांपकर वो अपनी टेबल छोड़कर हमारी टेबल पर पहुंच गई। और उस रोज़ दोपहर का सी वीड सूप, वेज नूडल्स उसकी मेहरबानी से मिले हमें।
दारचेन से कैलास परिक्रमा (तीन दिन, 52 किलोमीटर)

दारचेन से बस में 5 किलोमीटर की दूरी तय कर यम द्वार पहुंचते हैं। यहां से आगे लगभग 52 किलोमीटर कैलास परिक्रमा पथ शुरू होता है। यम द्वार की जैसी मेहराबदार तस्वीरें देखी थीं वैसी वहां नहीं है, बल्कि रंग-बिरंगे प्रार्थना ध्वजों से यम द्वार ढका था। कहते हैं इस तोरणद्वार से गुजरकर जाने वाले यात्रियों को मृत्यु का भय नहीं रह जाता, हम किसी तरह तिब्बती आस्था प्रतीक उन ध्वजों के बीच से यम द्वार की राह तलाशते हैं, एक छोटी-सी कोठरीनुमा जगह है जहां पुराने कपड़े, सींग, सिक्के बिखरे पड़े थे। तिब्बती तीर्थयात्रियों का एक रेला मेरे आगे से गुजर जाता है, चुपचाप, हाथ में मनकों की माला लिए, बुदबुदाते होंठों पर प्रार्थनाओं को सजाए। उस तोरणद्वार से निकलकर कुछ यात्रियों ने यमद्वार की परिक्रमा की और आगे बढ़ गए।

हमें अभी कुछ इंतज़ार करना है, तिब्बती घोड़े और पोर्टर यहीं से हमारे साथ होंगे। हमारा समूह बड़ा है, लिहाजा हरेक के साथ जाने वाले घोड़े और पोर्टर के चुनाव में समय ज्यादा लगना स्वाभाविक ही था। हरेक यात्री द्वारा पोर्टर के लिए 450 युआन (1 युआन त्र लगभग 10@रु) और पोनी$पोनी हैंडलर के लिए 1390 युआन का भुगतान एडवांस ही किया जा चुका है। तिब्बती पोर्टर भारी सामान उठाने में आना-कानी करते दिखे तो लाटरी से हरेक का नाम निकाला गया। मैंने जो पर्ची उठायी उसमें दर्ज लिखावट मेरी समझ से परे थी, हमारे तिब्बती गाइड गुरु ने न्यंगमा का नाम पुकारा और एक दुबली-पतली, चुस्त युवती मेरे नज़दीक आ गयी। उसने आते ही मेरी तरफ हाथ बढ़ाया, अगले तीन दिन निभने वाले रि’ते की दोस्ताना शुरूआत ने मुझे चैंका दिया था। लिपुलेख के इस तरफ महिला पोर्टरों को देखकर चैंकना बनता था, कुछेक औरतें तो पोनी हैंडलर की भूमिका में भी थी।

इस बीच, पैदल परिक्रमा करने वाले यात्री निकल पड़े हैं। कुछ देर में हम घुड़सवार यात्रियों ने भी आगे बढ़ना शुरू किया। हम दायीं ओर से परिक्रमा करते हैं, यानी परिक्रमा के वक्त हमारा दायां भाग कैलास की तरफ होता है … क्लाॅकवाइज़, जबकि सामने से आ रहे बोनपा बायीं ओर से परिक्रमा करते दिखे। इस परिक्रमा पथ पर भीड़ न सही लेकिन एकांत भी नहीं है। बराबर कोई न कोई हमसे आगे निकल रहा है या सामने से लौटता हुआ मिल रहा है। कैलास कुंभ का नज़ारा यहां साफ दिखता है। रास्ता चारों तरफ से ऊंची बलुई चट्टानों से घिरा है, कुछ आगे कैलास की दिशा से एक पतला झरना नीचे आ रहा है और दूर बायीं ओर की चट्टानों पर चुकू गोम्फा है। इसी रास्ते पर कुछ भोटिया चेहरे भी आते-जाते दिखते हैं जो यात्री जैसे नहीं लगते, शायद गोम्फा में रहते हैं। लगभग यहीं से ल्हाछू नदी की धार को पार कर आगे बढ़ना है, घोड़े पर अकड़े बदन को सुस्ताने के लिए अब हम पैदल चलते हैं। पहला पड़ाव 19 किलोमीटर दूर डिरापुक में है। पैदल चलना आसान है, रास्ता कमोबेश समतल है और फिर पिछले कई दिनों से पहाड़ी रास्तों पर चढ़ते-बढ़ते हमारे तन एक्लीमेटाइज़ भी हो चुके हैं।

डिरापुक (16,600 फुट) में चीनी सरकार ने यात्रियों के ठहरने के लिए कैंप बना रखा है, हालांकि उस कैंप के अंदर कोई रुकना नहीं चाहता। दरअसल, यहां कैलास की स्थिति ऐसी है कि लगता है हाथ बढ़ाकर उसे छुआ जा सकता है। कुछ यात्री पहले से बाहर बैठे हैं, मैं भी अपने लिए एक पत्थर का ठौर तलाशकर कैलास को ताकने लगी हूं। कैलास को घंटों देखकर भी मन नहीं भरता है। न ही ऐसा करना थकाता है। मौसम एकदम साफ है, बादलों की एक लकीर भी आसमान में नहीं है, ऐसे में कैलास को देखते चले जाने का मोह संवरण मैं नहीं कर पाती हूं। सोच में पड़ गई हूं कि आखिर वो कौन-सा आकर्षण है जो इस पर्वत तक मुझे खींच लाया है!

आधी रात को आंख खुली तो खिड़की के बाहर देखकर चैंककर बैठ गई। लगा आसमान के सारे सितारे नीचे जमीन पर उतर आए हैं। ऊंचे पहाड़ी इलाकों में अक्सर यह भ्रम हो जाता है कि आसमान नीचे उतर आया है, लेकिन डिरापुक में तो सचमुच लगा कि सितारों की बारात गुजर रही है। कमरे का दरवाज़ा खोलकर बाहर आयी, कैलास को रात की विराट चुप्पी में देखना कैसा अनुभव होगा ? आधी रोटी जैसा चांद आसमान पर टंगा था, कैलास रजत चांदनी को ओढ़े चुपचाप खड़ा था। पल भर को भ्रम हुआ कि कैलास अब दिन से भी ज्यादा नज़दीक आ गया है, और नीचे उतर आया है, जैसे हाथ बढ़ाकर उसकी काया पर बिखरी चांदनी को मुट्ठी में भर सकती हूं! अभिभूत हूं, रात के ढाई बजे ऐसा साक्षात्कार, शिव से, शिवधाम में … स्तब्ध हूं, ठिठककर सिर्फ एकटक कैलास को देख रही हूं।

डिरापुक से डोल्मा-ला : परिक्रमा पथ की सबसे कठिन डगर
दूसरे दिन सुबह 5 बजे घोड़ों की सवारी सज चुकी थी, आज डिरापुक से 27 किलोमीटर की दूरी नापनी है, दूरी के साथ-साथ सबसे अधिक ऊंचाई (डोल्मा-ला 18,600 फुट) पर भी पहुंचना है। कैलास परिक्रमा की अब तक की यात्रा का यह सबसे कठिन भाग है। डिरापुक से संकरी चढ़ाई पर बढ़ना शुरू किया लेकिन नज़रें सिर्फ कैलास पर टिकी हैं, यहां के बाद अगले दो रोज़ कैलास के दर्शन नहीं होंगे। इस बीच, पूरब से सूर्य रथ भी बढ़ा चला आ रहा है, कैलास के शीर्ष ने अब सुनहरा होना शुरू कर दिया है। यह जादुई पल की तरह है, रजत-धवल कैलास धीरे-धीरे स्वर्णिम आभा में घिरने लगा है।

रुककर इस चमत्कारी पल को देखना चाहती हूं लेकिन पोनीवाला तेजी से आगे बढ़ा चला जा रहा है, रास्ता लंबा है, दुश्वारियों से भरा हुआ और चाल का औसत बिगड़ने से अगले पड़ाव पर पहुंचने का समय गड़बड़ा सकता है। इसलिए बिना कुछ बोले घोड़े की पीठ पर लदी हुई आगे बढ़ी चली जा रही हूं। पैदल यात्रियों को एक-एक कर पीछे छोड़ दिया है, मन ही मन उनकी हिम्मत को सलाम किया जो पहले ही दिन से पैदल दूरियों को नापते आ रहे हैं। सामने का रास्ता देखकर सिहरन की एक लकीर पूरे शरीर में दौड़ गई है।

दूर-दूर तक ऊंचे पहाड़ी विस्तार पर टेढ़े-मेढ़े पत्थरों को लांघते-टापते घोड़े ने कई बार खुद को और मुझको लुढ़कने से बचाया है। सामने की पहाड़ी यहां इतनी ऊंची हो गई है कि लगता है आकाश से जा मिली है! साल के इस समय बर्फ पिघल जाने से पहाड़ों की भूरी रंगत ही दिखायी दे रही है, कुछ आगे जाने पर तिब्बती पताकाओं के रंगों ने उस भूरेपन की एकरूपता को तोड़ा है।

”डोल्मा-ला”! तिब्बती पोनीवाला मुझसे पहली बार मुखातिब हुआ है। डोल्मा-ला की पवित्रता इतनी अभिभूत कर देने वाली थी कि संवादहीनता की इस स्थिति में भी उस वीराने में उसे अपने भीतर के उल्लास को मुझसे साझा करना पड़ा है। यहीं शिव स्थल है जिस पर से गुजरने वाले यात्री अपने पुराने कपड़े फेंककर जाते हैं। आगे डोल्मा (तारादेवी) की शिला है, दर्रा बेहद संकरा हो गया है और ढेरों यात्रियों के यहां रुककर पूजा-अर्चना करने के लिए होने की वजह से बहुत सघन भी।
तिब्बती तीर्थयात्री छोटे-छोटे झुंड बनाकर नीचे ही बैठ गए हैं और नाश्ता कर रहे हैं। याक के मक्खन कुछ शिलाओं पर लगे हैं, कुछ दीये हैं जो टिमटिमा रहे हैं और अगरबत्तियों से एक पूरा कोना महक रहा है। मैंने अपनी पीठ पर बंधे बैग से दारचेन से खरीदा प्रार्थना ध्वज निकाल लिया है, स्थानीय आस्था के मुताबिक डोल्मा-ला पर बंधी सैंकड़ों पताकाओं में एक मेरी पताका भी जुड़ गई। मन में एक अजब शांति-सुकून का भाव महसूस किया है, आस्था का यह कौन-सा आयाम होगा, यह मेरी समझ से परे है।

डोल्मा-ला पर कुछ देर रुककर आगे बढ़ चली हूं। इस बीच, मेरे ग्रुप के कुछ और यात्री भी आ मिले हैं और हम सब साथ ही नीचे उतरने लगे। बस दो-एक मोड़ काटते ही गौरी-कुंड है (18,400 फुट), कुंड का पानी बिल्कुल हरा है, उसकी ढलानों पर कहीं-कहीं बर्फ की हल्की-फुल्की निशानियां हैं। कुंड साल के इस समय दो-तीन भागों में बंटा हुआ था, कुछ यात्रियों ने अपने पोर्टर नीचे भेजे हैं गौरी-कुंड का जल लाने के लिए।
रास्ता इतना संकरा है कि उस पर देर तक रुकना मुनासिब नहीं लगा, लिहाजा हम सीढ़ीदार रास्ते से उतरकर आगे बढ़ गए। ग्लेशियरों के पिघल जाने के निशान आगे की ढलानों पर अभी भी मौजूद हैं। उनकी वजह से ही रास्ता फिसलन भरा, टेढ़ा-मेढ़ा और खतरनाक भी है। आसपास बिखरे बड़े पत्थरों पर तिब्बती मंत्र उकेरे हुए थे जो हमारी समझ से बेशक परे थे लेकिन उस वातावरण को पवित्रता से भर रहे थे। अब ढलान और तीखी हो रही थी, लगभग 90 डिग्री तक और जमीन भी ठोस की बजाय रेतीली, कंकड़ों से पटी हुई थी जिस पर पैर फिसलने का खतरा बढ़ गया था। यानी बर्फ हटी तो फिसलन भरी ढलान हमारी मुसीबत बढ़ाने के लिए मौजूद थी।
जैसे-तैसे कर इस ढलान को पार किया और सामने एक टैंट को देखकर उम्मीद बंधी कि शायद आराम करने की कोई जगह है। वो चीनी पुलिस का अस्थायी ठिकाना था, यानी हमारे रुकने की कोई सूरत वहां भी नहीं थी। किनारे खड़ी चट्टानों पर अपने साथी यात्रियों को बैठे देखकर मैं भी वहीं कहीं टिक गई हूं। कुछ दूर हमारे घोड़े भी रुके दिखे। यहां दोनों तरफ कुछ हरियाली दिखी है, घास है, कुछ फूलों के पौधे हैं और नज़दीक ही एक नदी की धार भी है।
चरैवेति-चरैवेति का स्वर कहीं भीतर गूंजता है और हम अगले ठिकाने जुटुलपुक (16,200 फुट) की तरफ बढ़ जाते हैं। हालांकि रास्ते की भयावहता अब खत्म हो चुकी है तो भी दूरियों को तो नापना ही है। किसी तरह दोपहर तक इस ठिकाने पर पहुंच जाते हैं। ज्यादातर यात्रियों ने पैदल इस दूरी को नापा है, कुछेक ने अपनी आस्था के सहारे तो कुछ ने घोड़ों और घोड़े वालों के आतंक से त्रस्त होकर।
जुटुलपुक से दारचेन
पिछले मार्गों की तुलना में अब पैदल परिक्रमा ज़रा भी चुनौतीपूर्ण नहीं बची। चैड़ी घाटियों से गुजरते मार्ग लगभग सपाट मैदान हैं जिन पर आसानी से टहलकर पार हो गए हैं यात्री। यही कोई पांच किलोमीटर चलने के बाद जुनझुइप से बसें लेने आ गयी हैं। और फिर वही फर्राटा हाइवे पर बसों की सवारी ने हमें दारचेन पहुंचा दिया है। यहां आज रुकना नहीं है, सीधे कुगू पहुंचना है – मानसरोवर के तट पर और अगले दो दिन वहीं रहेंगे। अब मन में कोई बेचैनी बाकी नहीं है, सभी के चेहरों पर संतोष और उपलब्धि का भाव है।

मानस की लहरों में ठिठके वो 48 घंटे
बरखा के विशाल मैदान को पार कर मानसरोवर झील के इलाके में पहुंचते हैं। झील की 88 किलोमीटर की परिक्रमा बस से पूरी कर ट्रुगो मठ में रहने आए हैं। मठ शायद कभी पारंपरिक रहा होगा, अब तो किसी शानदार होटल की तरह था। कमरे की खिड़की से मानस की लहरों का उल्लास और उसके उस पार कैलास का उजास अगले 48 घंटे हमारी आंखों के सामने लगातार टिका रहा।
मानसरोवर के किनारे सूर्यास्त तक बैठे रही हूं, उसकी लहरों का उन्माद उठने नहीं देता लेकिन शाम घिर आने पर अचानक बढ़ गई ठंड वहां बैठने नहीं देती। मानस के दूसरे किनारे के उस पार कैलास की भव्य उपस्थिति लगातार बनी हुई है।
हमारे पीछे गुरला पर्वत, सामने मानस और दूर हिमाच्छादित कैलास पर्वत। मानस का जल कई-कई रंग दिन भर में बदलता रहता है, कभी शांत और कभी लहरों का प्रचंड शोर बरबस अपनी तरफ आकर्षित करता रहता है। प्रकृति के इस विराट सौंदर्य को कैमराबद्ध नहीं किया जा सकता, उस अनन्य सौंदर्य को अपने मन में समेटकर लौट आयी हूं।
* My Journey to Shiva’s Abode – Kailas Mansarovar (Part I & II) was shared a few days back and is available under the categories – Trekking / Spiritual tourism
And here are the links –
Part I – http://wp.me/p2x9Ol-uw
Part II – http://wp.me/p2x9Ol-vs