Photo Essay on Kailash-Mansarovar Pilgrimage
तिब्बत में कैलास मानसरोवर हमारा मुकाम है, बीच के पड़ाव कोई मायने तो नहीं रखते लेकिन अंतिम मंजिल तक पहुंचने की कड़ियां उनसे ही बुननी है। पिथौरागढ़ के धारचूला में तवाघाट पर धौली और काली के उफनते संगम को पार कर पांगला पहुंचाया है जीप ने। यहां से आगे का सफर पैदल तय करना है। निकल पड़े हैं ..

आज ट्रैक का पहला ही दिन है, मन में उत्साह है और पैरों में पंख लगे हैं। अभी कई किलोमीटर दूर चलकर जाना है
सत्तर बरस के बलदेव भी चल दिए हैं कैलास की राह … इसे जज़्बा ही कहेंगे न!
पहाड़ों के गृहस्थों की इस साधना को देखकर नतमस्तक हुए बिना नहीं रहा जा सकता
धूपीले रास्ते में घनपातल के इस जंगल की छांव ने जाने कितने ही कैलास तीर्थयात्रियों को सहारा दिया होगा, उस रोज़ मेरी भी थकान इन घने पेड़ों की ओट में जैसे कहीं गुम ही हो गई।
रास्तों में पेड़ की छांव हो या इन पहाड़ी बच्चों का घेराव, पैरों को कहां शिकायत करने का मौका मिलता है ..
अगली सुबह ने जैसे फिर कहा — चरैवेति चरैवेति ।
और हमें उत्साहित करता हमार पोर्टर पहाड़ी राह पर यों दौड़ चला …
इन राहों पर यात्रियों के सैलाब न सही, मगर हौंसलों की ऐसी मिसालें जरूर दिख जाती हैं
रास्ते ऐसे बियाबान से गुजरते हैं जो, यकीनन निर्वाण की तरफ ले जाते होंगे।
उस परम सत्ता से संवाद के लिए ऐसी राहों से गुजरना होगा। ये मार्ग भी एकांतिक साधना से अलग कहां हैं, कोलाहल से दूर, प्रकृति की सुरम्य संगति में चढ़ते—बढ़ते हुए चलते जाना भी तो बस ध्यान में डूब जाने जैसा ही था ।
राहों की निर्जनता बढ़ गई है, इतना तो महसूस हुआ मगर अब इस बेचारे को भी यों ही अकेले चलना होगा
रास्ते अब खौफजदा हो चले हैं। इस बीच, खेतों, घरों, बागानों, और सभ्यता से नाता कटने लगा था, अब सिर्फ पहाड़ों, नदियों, झरनों, घाटियों और आगे दर्रों का ही साथ रहने वाला है।
शुद्ध, सात्विक, पोषक भोजन के लिए मार्गों में बीते दौर की चटि्टयों की तरह का सा इंतज़ाम इस यात्रा के मिजाज़ के पूरी तरह अनुकूल ही होता है।
तीसरे दिन से काली नदी साथ हो लेती है सफर में। कभी किसी खाई से पतली लकीर सी दिखने वाली काली गाला से बुधि के मार्ग में महाउत्पाती दिखती है।
इन कठिन, दुर्गम, जोखिमभरे मार्गों पर ध्यानावस्था सचमुच बड़े काम की चीज़ है!
इन झरनों—नालों पर वो एक मजबूत हाथ बहुत काम आता है
मगर मुश्किलें हैं कि अभी खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहीं, पत्थरों को काटकर भले ही रास्ता सीढ़ीनुमा बना है, मगर तीखी, फिसलन भरी उतरान बहुत धैर्य मांगती है।
मुश्किलों को पार करते—कराते अगली मंजिल ऐसी हो तो किसे थकान याद रहती है !
और मतवाले राही फिर बढ़ चलते हैं अनजान राहों पर
चौथे दिन बुधि से गुंजी की राह पर बढ़ रहा है यात्रियों का कारवां। पहले तीन किलोमीटर खड़ी चढ़ाई है। नमज्युंग पर्वत की बुलंदियों पर ग्लेशियर की एक लकीर दिखी है, और तलहटी में काली की एक पतली धार है, सारी शैतानियां भूलकर, एक स्तब्ध धार की तरह है काली बुधि में।
इस तीखी, खड़ी चढ़ाई पर घोड़ों ने ही नैया पार लगायी बहुत से तीर्थयात्रियों की। घोड़े की सवारी करते हुए कई बार सोचा कि किस जन्म का कर्जा है जो ये इस तरह उतार रहा है? है भी या नहीं, कहीं हमारी सोच ही है ये, घोड़े बेचारे को इससे क्या लेना—देना !
थकान से बेहाल हमारे कदम कहीं ढीले न पड़ जाएं, हौंसले कहीं कमज़ोर न हो जाएं … शायद इसीलिए ये संदेश होंगे, हैं न? रास्तों की थकान हर लेते हैं ऐसे पत्थर भी …
और कुछ दूरी के बाद शुरू हुआ फूलों की घाटी का मोहक संसार। न कोई चढ़ाई, न उतरान, न खाई, न गड्ढे … छियालेख में जड़ी—बूटियों की महक और फूलों की इन बस्तियों ने हमारा जी—भरकर स्वागत किया।
यहीं हमारे पासपोर्ट भी पहली बार जांचे गए, अब लगता है अपना देश जल्द ही छूटने वाला है …
और हम भी अकेले कहां थे, यों आगे-पीछे ले जा रहे थे हमारे बोझ ढोते ये खच्चर, जैसे राह की मुश्किलों से इन्हें कुछ फर्क ही नहीं पड़ता हो ..
इन अनजान राहों पर यों यात्रियों का मिल जाना, वो तिब्बत से कैलास दर्शन कर लौट रहे थे, उनकी आंखों में तसल्ली की बड़ी—बड़ी क्यारियां खड़ी थीं और हमारे दिलों से लेकर आंखों तक में सिर्फ उत्सुकता टंगी थी …
अगली मंजिल है Garbhyang, जमीन में धंसता, अपनी हस्ती को लगातार खो रहा गांव। हालांकि, बीती दो सदी में भी कैलास—मानसरोवर के प्राचीन यात्रियों के लिए भी यह गांव बहुत महत्वपूर्ण रहा है। यहीं से वे आगे के सफर के लिए राशन जुटाते थे, पोर्टर का प्रबंध किया करते थे और घोड़े-खच्चरों का इंतज़ाम भी यह गांव कर देता था। हमारी यात्रा में प्राचीनता का वो पुट तो नहीं रहा, क्योंकि केएमवीएन ने हमारे लिए ये सारे इंतज़ाम धारचूला में ही कर दिए थे, मगर हमने इसे ‘समोसा प्वाइंट’ के तौर पर पहचाना। भूखे-प्यासे पेट, पिछले कई घंटों से चल रहे यात्रियों का हमारा पूरा दल यहां समोसों पर टूट पड़ा..
और फिर से पासपोर्ट की जांच, फिर हमारे नाम दर्ज करने की प्रक्रिया, वाकई बहुत व्यवस्थित है कैलास—मानसरोवर यात्रा
और एक बार फिर घोड़ों पर लद गए हैं, ऐसे सीधे—सपाट रास्ते बहुत कम हैं जिन पर घोड़े की सवारी में डर न लगे। वरना तो पूरे रास्ते अपनी काठी टेकते, पैरों को उठाते, सांस समेटते, काया को संभालते हुए ही लाना पड़ा है
गुंजी तक के इस रास्ते तक पहुंचते—पहुंचते हम भी चलने में माहिर हो गए हैं और हमारी काया भी अभ्यस्त हो चली थी।
चलना ही जैसे मूलमंत्र था, चलना ही मुझे मेरी मंजिल तक ले रहा था…
शेष यात्रा अगली पोस्ट में ……