लैंसडाउन में वो नवंबर की महक आज भी याद है। वाकया पूरे 25 बरस पुराना है। यों ही, हां, बस यों ही लैंसडाउन की सड़क पर बढ़ चले थे हम। रोडवेज़ की खटारा बस की उस अदद सवारी को भी भूली नहीं हूं। पूरे दो घंटे का वो सफर, पहाड़ों पर गोल—गोल घूमते हुए, मटकते हुए, अटकते हुए पूरा हुआ था। रास्ते भर डीज़ल का धुंआ, उस पर कुछ पहाड़ी यात्रियों की उल्टियों से पूरा माहौल बदज़ायका हुआ जाता था। जल्द से जल्द अपनी मंजिल पर पहुंचने की बेताबी मेरे चेहरे पर फैली थी। मगर सफर तो सफर है, अपने वक़्त से ही पूरा होता है। ध्यान बंटाने के लिए बार-बार बाहर झांक रही थी, गढ़वाल हिमालय का अद्भुत नज़ारा घाटियों को चीरता हुआ जैसे सीधे हमारी बस की खिड़की से अंदर घुसा आता था। और हवा के झोंके के साथ पहाड़ी वनस्पति का पहला अहसास हुआ था। दूब-घास, बुरांश, बांज की पत्तियों की महक से सराबोर उस अहसास को आज तक नहीं भूल पायी हूं। उसके बाद जाने कितनी बार हिमालयी इलाकों के सफर पर हो आयी हूं, लेकिन वो सबसे पहली महक की तलाश हर बार बनी रहती है। उसमें कुछ खास था, मगर क्या खास था इसका बयान नहीं हो पाता।
शायद नवंबर की उस अलसायी दोपहरी में किटकिटाती सर्दी में धूप से छनकर आती उस हवा में पहाड़ी जड़ी—बूटियों की गंध के साथ-साथ कुछ गरमाइश भी मिल गई थी। यानी मोहक महक और तपिश का मिला-जुला सा अहसास था। बहरहाल, रोडवेज़ की बस की खर्रामा-खर्रामा सवारी ने लैंसडाउन पहुंचा ही दिया। अब हमें तलाश थी एक ठिकाने की। कहा न, यों ही चले आए थे इस तरफ, न कोई बुकिंग न ठौर। एक नन्ही-सी माल रोड एक रोमांटिक पोस्ट आॅफिस के सामने से गुजर गई थी, उसी पर बढ़ चले थे हम। दुकानों, बाजार, लोगों की भीड़ भाड़ को पीछे छोड़ते हुए अब एक घाटी में उतरते जा रहे थे। किसी ने बताया था वहां कोई रेसोर्ट ताज़ा-ताज़ा खुला है जहां की आबो—हवा बेहतरीन है। हमने अगले कुछ रोज़ के लिए उसे चुन लिया। जानते हैं क्यों, क्योंकि उस रेसोर्ट के आंगन में भी वहीं महक पसरी हुई थी जो रास्ते में मिली थी। मैं ठहरी नाक के मामले में बेहद सेन्सिटिव, ज़रा दुर्गंध महसूस होते ही सब कुछ पटक देने वाली। लिहाजा, उस रेसोर्ट में कदम रखते ही दीवानी हो गई।
ट्रैवल का मिजाज़ ही कुछ ऐसा होता है, कहीं भी नई जगह की पहचान उसके लोगों के पहनावे, उनकी रवायतों, उनकी चाल-ढाल के अलावा जिससे होती है वो होती है उस इलाके की गंध से! कम—से—कम मैं तो ऐसा ही मानती हूं। मेरे लिए स्मैल, टैक्सचर, फील, टच सभी कुछ मायने रखता है। और लैंसडाउन मेरे दिलो-दिमाग पर छा गया था इसी वजह से क्योंकि उसकी हवा में, उसकी फितरत में, उसके अंदाज़ में, उसके उजाले में, उसके अंधेरे में, उसकी सुबह में और शाम में एक खास मोहक सुगंध बसी रहती थी।
अगले रोज़ ट्रैक करते हुए पगडंडियों के किनारे—किनारे कुछ पत्तियों में से वैसी ही सुगंध महसूस हुई तो तोड़ लायी। कमरे में रखकर सो गए उस रात, अगले दिन उठे तो पूरा कमरा दिव्य महक से भरा था। एकदम ताज़ा पत्तियों की सुगंध, वनस्पति की महक, ताज़गी की महक, प्रदूषण और तनाव—दबाव से दूर बसी उस खास महक को आज भी ढूंढती हूं। यहां—वहां, कभी लंदन की सड़कों पर, तो कभी छत्तीसगढ़ी मानसून में, कभी गोवा के समुद्रतटों पर, तो बीते सप्ताह भागीरथी के तट पर। कहीं भी नहीं मिली वो सुगंध मुझे। वो ताज़गी कहीं खो गई है, शायद बीते पच्चीस बरसों की आपाधापी में मुझसे ही उसका अहसास कहीं बीत गया है, कुछ है कि गायब हो गया है।
तो क्या उसे दोबारा पाना मुमकिन नहीं। मेरे ख्याल से उस अहसास को न सही मगर उस सुगंध को दोबारा, कहीं किसी लैब में, किसी केमिकल से, किसी फार्मूले से, किसी किमियागिरी से पाया जा सकता है! किसी बोतल में बंद उस महक को मैं अपने हर सफर में ले जाने को लालायित हूं। ला सकते हो ऐसी कोई महक, वही लैंसडाउन में हिमालयी बर्फानी दीवारों को चीरकर आती हुई हवा में सराबोर, ताज़गी के जाने कैसे—कैसे, कितने—कितने प्रतिमान रचती हुई महक।
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