बीते साल जम्मू से श्रीनगर जाने के लिए मुगल रोड पकड़ी थी। यह वही सड़क थी जिस पर मुगल बादशाह जहांगीर अपने लाव—लश्कर के साथ लाहौर से कश्मीर आया-जाया करता था। और यहीं इसी सफर में कश्मीर से लाहौर लौटते हुए उसका इंतकाल भी हो गया था। बहरहाल, वो किस्सा फिर कभी। अभी तो राजौरी में चनाब पर पुल से गुजरते हुए सुबह का यह नज़ारा याद आ रहा है।

अखनूर से निकलते ही हम राजौरी में दाखिल हो चुके थे। माहौल में धुंध थी, और पूरे माहौल में एक असहज चुप्पी पसरी हुई थी। सिर्फ हमारे दिल की धड़कनों का शोर उस चुप्पी को भंग कर रहा था। सहमना क्या होता है, इसका अहसास उस रोज़ मुझे बखूबी हुआ था …. और ठीक उस घड़ी पूरब में धुंध की चादर को धीमे से उठाते हुए सूरज की यह अठखेली दिखायी दी … दुनियाभर में जाने कहां कहां के सूर्योदय और सूर्यास्त के बखान सुने हैं अब तक, लेकिन चनाब पर से उगता सूरज भी इतना हसीन दिखता होगा, किसी ने नहीं बताया …
