चीनी कहावत है ’’दस हजार पोथियों से बेहतर है दस हजार कदमों का सफर” (Walking ten thousand miles of the world is better than reading ten thousand scrolls.) और यही इस दास्तान-ए-घुमक्कड़ी की प्रेरणा भी है। हालांकि मुझे नहीं लगता था कि इस बार इतनी जल्दी सफर पर निकल पाऊंगी, नागालैंड के मिथकों को सुनकर अभी पिछले महीने ही तो लौटना हुआ था लेकिन पैरों में ही शनिच्चर पड़ा हो तो कौन-कब रुका है। इस बार मंजिल भी कहीं आसपास नहीं बल्कि हिमालयी पर्वतश्रृंखलाओं से घिरी काठमांडौ घाटी बनी, और बहाना भी घुमक्कड़ी नहीं बल्कि काम बन गया। यानी एक बार फिर सूटकेस लाद लेना अपराध बोध को जन्म नहीं देने वाला था!
नेपाल के त्रिभुवन अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर कुंग्फू नन हमारे इंतज़ार में थीं, अध्यात्मिकता की खुराक के साथ-साथ मेहमानों को लेने या विदा करने के लिए वे अक्सर इस हवाईअड्डे तक आती-जाती रहती हैं। हमें देखते ही मिग्युल ने अपने स्मार्टफोन को अपने मैरून चोगे की जेब में डाला और सिल्क के स्कार्फ हमें पहनाने में जुट गई। विदेशी सरजमीं पर ऐसा स्वागत हमें अभिभूत कर गया!
अमिताभ ननरी, काठमांडौ , नेपाल में मुझे बार-बार कुछ नाम सुनायी दे रहे थे – जिग्मे, देचिन, वांग्चुक, मिग्युल … और इस ननरी में 36 घंटे गुजारने के बाद यह साफ हो गया था कि ये महज़ नाम नहीं थे बल्कि उस ननरी में ’कर्म चक्र‘ को घुमा रही वो युवतियां थीं जो जिंदगी की आगे की राह को लेकर किसी किस्म की पसोपेश में नहीं थीं। 10 से 60 साल तक की इन ननों के लिए द्रुकपा लीनिएज के प्रमुख परमपूज्य ग्वालयांग दु्रकपा ने अमिताभ माउंटेन में यह खास रिहाइश बसायी है।

आम धारणा से अलग ये नन सिर्फ धर्म शिक्षा नहीं ले रही हैं बल्कि कुंग-फू भी सीखती हैं। तिब्बती के अलावा अंग्रेज़ी भाषा भी उनकी पढ़ाई का हिस्सा है और कंप्यूटर शिक्षा तथा दर्षन भी उन्हें पढ़ाया जाता है।
यानी उनका सफर है मेडिटेशन से मार्शल आर्ट तक, अध्यात्म से सेवा-सत्कार तक जिसे सवेरे 3 बजे से रात 11 बजे तक उनके कोमल हाथ और मजबूत हौंसले अंजाम देते रहते हैं।

वे इस ननरी के बैकयार्ड में बगीचे की कमान संभालती हैं तो अगले भाग में सुविनर शॉप और कैफे का संचालन भी करती हैं। यहां तक कि ननरी में ही क्लीनिक और गैस्ट हाउस की पूरी देख-रेख का जिम्मा भी उनके कंधों पर है।
