मणिपुर- सूरज की पहली किरण से चांदनी की पहली धमक तक का उत्सव
देश के पूर्वी छोर की बांह जहां समाप्त होने को होती है, उसी पूर्वोत्तर की मुटि्ठयों के बीच मणिपुर किसी हरियाले घोंसले की तरह अपना बसेरा बसाए हुए है। भारत की हृदयस्थली की धडकनों से कहीं दूर बसे इस प्रदेश की आवाज दिल्ली के आसपास बहुत कम ही सुनाई देती है, शायद तब जब वहां कोई उपद्रवी संगठन धमाका कर देता है या शर्मिला इरोम के उपवास के जब साल दर साल पूरे होते हैं। और तब भी जब वहां कि लौह महिला मैरी कॉम देश का नाम रोशन कर रही होती है। बाकी बहुत कुछ इस पूर्वोत्तर के मुकुट-मणि का अनजाना ही है। लेकिन अगर मणिपुर से सीधे मुलाकात हो जाए तो उसका रूप निराला है।
सुदूर पूर्वोत्तर में मणिपुर पहुंचने के लिए हवाई सफर के अलावा एक और तरीका है जो काफी दिलचस्प भी है। यह है पड़ोसी राज्य नागालैंड में दीमापुर तक रेलमार्ग से पहुंचना और वहां से सड़क मार्ग से आगे की यात्रा करना। हमने इसी दूसरे विकल्प को चुना और 216 किलोमीटर दूर इम्फाल तक की दूरी टैक्सी से नापी। दीमापुर की धूल-मिट्टी से पटी हुई सड़कों को जल्द से जल्द पीछे छोड़ देने की टैक्सी ड्राइवर की बेचैनी उसकी फर्राटा दौड़ती बोलेरो के स्पीड यंत्र पर लगातार बढ़ती दिख रही थी। एनएच 39 पर रोलर-कोस्टर राइड के बाद दो-ढाई घंटे में हम कोहिमा पहुंचे तो कुछ राहत मिली क्योंकि हिचकौले खाती सड़क पर दौड़ने से पीछे रखा सामान तो क्या हमारे खुद के अंजर-पंजर भी ढीले हो गए थे। हो भी क्यों न, आखिर जिन सड़कों पर 20 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार पकड़ते ही लगने लगे कि आप “ब्रेक नैक” स्पीड पर दौड़ रहे हो, उन पर इतनी देर में एकाध नहीं बल्कि पूरे 74 किलोमीटर नाप लेना किसी रिकार्ड की बराबरी कर लेने जैसा ही था। नॉर्थ ईस्ट के प्रवेश द्वार की तरह है दीमापुर और उसके आगे सड़कों का यह हाल देखकर थोड़ी तकलीफ जरूर हुई। बहरहाल, उम्मीद यह थी कि एक बार नागालैंड की सीमा से बाहर हो लें तो शायद हालात बदलेंगे। “नहीं, नहीं वहां भी कुछ नहीं बदलने वाला, ऐसा ही है मणिपुर सारा का सारा”, हमारे नागा ड्राइवर ने मिनट पर भी मुगालते में जी लेने का मौका हमें नहीं दिया!
तो इस तरह पूर्वोत्तर राज्यों के हमारे सफर की एडवेंचरस शुरूआत हुई। लेकिन सच तो यह है कि देश के पूरब में बसे इलाकों का यह बस एक मामूली पहलू भर है। दीमापुर की गलियों को पीछे छोड़ते ही पहाड़ियां साथ हो लेती हैं, और पथरीले, सर्पीले रास्ते में हर मोड़ पर जंगलों में छिपे जाने कितने ही कीटों-पतंगों का समूह गान तरह-तरह के ऑर्केस्ट्रा की ध्वनियों का मेल लगता है। कहते हैं पहाड़ मनमौजी होते हैं, और घुमक्कड़ों के लिए तो ये रास्तों का ऐसा जाल बुनते हैं कि तलहटियों से गुफ्तगू करते-कराते, एक से दूसरे और जाने कितने ही पहाड़ों को लांघकर यात्री कहीं-से-कहीं पहुंच जाते हैं।
कोहिमा पीछे छूट गया था और जखामा होते हुए अब हम मणिपुर के सेनापति जिले में थे। हवा में ठंड की पकड़ ढीली पड़ चुकी थी, रास्ता भी पहाड़ी नहीं रह गया और कटोरे जैसी मणिपुर घाटी की समतल सड़क पर अब स्पीड से दौड़ना भी उतना खतरनाक नहीं लग रहा था। हम इरोम शर्मिला और मैरी कॉम की सरजमीं पर थे, यह अहसास कुछ अलहदा जरूर था, और खास भी। हाइवे के किनारे लगे बिलबोर्डों पर मेरी कॉम घूसा ताने दिखने लगी थी, शर्मिला तो कहीं नहीं दिखी अलबत्ता, असम राइफल्स के मुस्तैद जवान चप्पे-चप्पे की निगहबानी करते जरूर दिखे। सड़क के किनारे दूर तक धान की सुनहरी फसल पसरी हुई थी और विशालकाय खेतों की सीमारेखा बनाते हरे-नीले पहाड़ उस कैनवस को विशिष्ट बना रहे थे। पूर्वोत्तर के राज्य उन तमाम कारणों से चर्चा में रहते हैं जो “खबरीली” तो होती हैं लेकिन यहां की जमीन, आबो-हवा और फितरत के साथ न्याय नहीं कर पातीं। मणिपुर भी सूदूर पूर्व में वक्त की गोद में छिटका, ठिठका हुआ ऐसा ही एक राज्य है जो टूरिज़्म के मुहावरे को लेकर अभी कुछ सहमा-सहमा सा है।
हाइवे के किनारे कुछ-कुछ देरी के बाद गांव दिख जाते थे, खूबसूरत स्ट्रेट बालों वाली युवतियां और फैशनेबल बालों में अल्हढ़ अंदाज़ में घूमते युवाओं को देखकर कतई नहीं लगता कि नॉर्थ ईस्ट का यह राज्य मुख्यधारा से इतनी दूर है। अक्सर चटकीले पारंपरिक परिधानों में यहां का समाज बेहद सहज रूप में सामने आता है। किसी झरने, नल पर कपड़े धुलते हुए, सिर पर टंगी बांस की टोकरियों में जाने क्या-क्या ढोते हुए या पीठ पर बच्चों को बांधकर रास्ते नापती माएं अपनी धुन में मगर, जैसे कुछ गुनगुनाते हुए गुजर जाती हैं। हरेक के होंठ रंगे हैं, पान चबा रहा है हर कोई और लगा कि पान की लाली ने किशोरों से लेकर बड़ों-बूढ़ों तक सभी को अपने मोहपाश में कस रखा है। गांवों को देखकर भी साफ हो जाता है कि उनका सामाजिक-आर्थिक स्तर यूपी-बिहार के गांवों से यकीनन ऊपर है। इस ज़मीन पर आकार कई ढर्रे टूटते दिखे और कई तिलिस्म भी उखड़ने लगे हैं।
संगाई फेस्टिवल – 21 से 30 नवंबर 2013 तक मणिपुर के शर्मीले, चुलबुले हिरण संगाई के नाम पर हर साल पर्यटन विभाग इस सांस्कृतिक उत्सव का आयोजन करता है। राज्यभर में अलग-अलग स्थानों पर नृत्य-संगीत, एडवेंचर स्पोर्ट्स, स्थानीय खेलों की प्रस्तुतियों के जरिए मणिपुर की सांस्कृतिक विरासत को सहेजने-समेटने और सामने लाने की यह पहल सैलानियों के लिए भी आकर्षण है। इसे देखने, इसमें भाग लेने के लिए देश के कोने-कोने से और यहां तक कि सिंगापुर, थाइलैंड से भी प्रतिभागी पहुंचते हैं। ईमेल – manipurtourismdept@gmail.com वेबसाइट – www.sangaifestival.gov.in कैसे पहुंचें – मणिपुर के लिए रेल, सड़क और हवाई संपर्क की सुविधा है। इम्फाल में नॉर्थ ईस्ट का दूसरे सबसे बड़ा हवाईअड्डा तुलिहाल है जो एयर इंडिया, इंडिगो, जेट कनेक्ट से नई दिल्ली के अलावा कोलकाता, दीमापुर, अगरतला, गोवाहाटी, आइजोल, सिलचर से जुड़ा है। रेलहैड – दीमापुर (नागालैंड) से एनएच 39, सिलचर (असम) से एनएच 53 होते हुए सड़क मार्ग से इम्फाल पहुंचा जा सकता है। कब होता है मौसम अनुकूल – सितंबर से अक्टूबर तक मौसम सुहाना रहता है और नवंबर से जनवरी-फरवरी तक सर्दी का मौसम भी घूमने के हिसाब से |
इम्फाल अब 42 किलोमीटर दूर रह गया है, माइलस्टोन पर यह ऐलान मन में कुछ-कुछ भाव पैदा कर रहा है। स्कूल में मणिपुर की राजधानी के तौर पर इस नाम से बावस्ता हुए थे पहली बार लेकिन अचरज होता है कि सैर-सपाटे की हमारी मंजिल इतनी देरी से क्यों बन रहा है ? इम्फाल ही क्या, नॉर्थ ईस्ट का कोई भी राज्य टूरिस्ट सर्किट में राजस्थान-मध्यप्रदेश की तरह कब शामिल हो पाया है। पूरे देश ने इस इलाके को संघर्ष और उपद्रवग्रस्त क्षेत्र के रूप में तो देखा, लेकिन एक ओट सदा बनी रही जिसने यहां के आदिवासी जनजीवन को लेकर कई कपोल-कल्पनाओं को जन्म दिया और सच्ची तस्वीर को देश के बाकी हिस्सों के साथ शायद ही कभी साझा किया। हालांकि इधर माहौल ने बदलने के कुछ संकेत दिए हैं। टूरिज़्म को बढ़ावा मिलने से लगने लगा है कि सरकारें भी अब यहां “धुंध” को हटाने लगी है। यों रफ्तार धीमी है लेकिन संगाई फेस्टिवल जैसी सालाना गतिविधियां उम्मीद बढ़ाती हैं।
हम अब मंत्रिपुखरी में असम राइफल्स के गैस्ट हाउस में पहुंच चुके थे जो इम्फाल से आठ किलोमीटर पहले था। आज दिन भर के सफर के बाद रुकने का यह मौका बेहद जरूरी लगा। वैसे भी आगे की यात्रा पहाड़ी रास्तों से होनी है और उस पर पूरब की इस बस्ती में सूरज ने अभी से अस्त होने की तैयारी कर ली थी। शाम के चार बजे थे और कुछ ही देर में अंधेरा घिर जाएगा, इसका संकेत हमें मिल गया था। पूर्वोत्तर के राज्यों में शाम ढलते-ढलते जीवन सिमटने लगता है और अंधेरे के बाद तो गतिविधियां लगभग थम जाती हैं। शहरों की तरह भागते चले जाने की आदत और मजबूरी से ऊपर है नॉर्थ ईस्ट का समाज।
इम्फाल नदी के किनारे बसा है इम्फाल शहर लेकिन शहर भर में उसके दर्शन आसानी से नहीं होते। शहर की हद से बाहर निकलने पर थोबाल जिला शुरू होता है और वहीं इस नदी की हल्की–सी झलक भी मिलती है। मणिपुर में अलसायी नदियों के अलावा झीलों का अद्भुत संसार भी है और ऐसी ही एक अजीबोगरीब लोकटक झील राजधानी इम्फाल से करीब 50 किलोमीटर दूर बिश्नुपुर जिले के मोइरांग कस्बे में है। इस झील का अनूठापन इस बात में छिपा है कि इस पर उगी हरियाली का संसार (बायोमास) हर दिन हवा के झोंको के साथ तैरता रहता है और झील हर सुबह आपको एक नयी तस्वीर दिखाती है।

लोकटक झील पर उग आयी वनस्पति पर ही मछुआरों के घर भी खड़े होते हैं और वो भी हर दिन सफर करते हैं। दुनिया में अपनी तरह की यह इकलौती ऐसी झील है जो फ्लोटिंग लेक के नाम से मशहूर है। नजदीक ही केबुल लेमजाओ नेशनल पार्क है जो संसार में एकमात्र फ्लोटिंग अभयारण्य है। इसी नेशनल पार्क में डान्सिंग डियर यानी संगाई हिरण की दुर्लभ प्रजाति रहती है। अलस्सुबह जब सूरज अपनी आंखे खोलता है तब इस नेशनल पार्क में भी पंछियों की तरह-तरह की प्रजातियों और संगाई हिरण की कुलांचे देखने का सबसे उपयुक्त समय होता है। यह शर्मीला हिरण अगर आपको दिख जाए तो वाकई इस नन्हे से नेशनल पार्क में आना सार्थक होगा। इस पार्क में यों तो वाहनों को लेकर जाने की आजादी है लेकिन बेहतर होगा कि आप पैदल ही इस जंगल की सैर के लिए आएं, करीब दो किलोमीटर का कच्चा ट्रैक फ्लोटिंग नेशनल पार्क की बढ़िया झलक दिखाता है और शर्मीले, संकोची जानवरों की “साइटिंग” की संभावनाएं भी बढ़ जाती हैं।
मोइरांग में ही आईएनए मेमोरियल है जो इस लिहाज से ऐतिहासिक है कि इस परिसर में 14 अप्रैल, 1944 को इंडियन नेशनल कांग्रेस द्वारा देश का तिरंगा पहली बार फहराया गया था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस का अंग्रेजी हुक्मरानों को चकमा देकर विदेश भागने के मार्ग के मानचित्र से लेकर हिटलर से मुलाकात का दुर्लभ चित्र भी इसी म्युजियम में प्रदर्शित है और जापान सरकार द्वारा जारी आईएनए की बैंक मुद्राओं को भी यहां संजोया गया है। मोइरांग जैसे सीमावर्ती कस्बे में आजादी की लड़ाई के ये दुर्लभ दस्तावेज इस बात के साक्षी हैं कि मणिपुर जैसा राज्य भले ही आज सुदूर पूर्वोत्तर में छिटका, मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ गया है लेकिन एक समय था जब आजादी के मतवालों का रंगमंच इसी सरजमीं पर सजा था।

पूर्वोत्तर के दूसरे राज्यों की ही तरह मणिपुर में भी औरतों की सक्रियता अधिक है। वे घर की देहरी तक सिमटी नहीं हैं और राजधानी इम्फाल में तो इमा मार्केट (इमा अर्थात मां यानी औरतों द्वारा चलाया जाने वाला बाजार) जैसे आर्थिक केंद्र की संचालक भी हैं। करीब 3000 इमाओं के इस बाजार में पुरुष खरीदार तो हो सकते हैं लेकिन दुकानदार नहीं। पर्यटकों के लिए इस बाजार में आना और पारपंरिक मणिपुरी पोशाक में सिमटी औरतों को मांस-मछली, जीरा, नून-तेल से लेकर हस्तशिल्प तक की बिक्री करते हुए देखना एक अलहदा अनुभव है। कहते हैं पिछले करीब पांच सौ वर्षों से इमा बाजार की परंपरा मणिपुर में कायम है। किस्म-किस्म के रंगों, गंधों से सराबोर इमा मार्केट में माताओं के स्नेह की इबारत को पढ़ना बेहद आसान है।

अगले दिन, इम्फाल से गुजरते हुए कुछ ठहरे-ठहरे लम्हों को अपनी यादों में कैद कर लेने के बाद हमने करीब 110 किलोमीटर दूर भारत-म्यांमार सीमा पर बसे शहर मोरेह की खाक छानने का मन बनाया। एनएच 39 पर पालेन तक करीब पहले एक घंटे का सफर इम्फाल घाटी की सीधी-सपाट सड़क पर से होकर गुजरता है, नज़ारों को आंखों में बंद कर लेने की कवायद फिजूल है क्योंकि अभी अगले करीब तीन घंटे तक एक से बढ़कर एक दृश्यों की कतार इंतज़ार में है। इम्फाल से निकले हुए करीब एक घंटा हुआ था और बायीं तरफ खोंगजुम युद्ध स्मारक की मीनार ने हरियाली की रवानी को थोड़ा तोड़ा। बड़ी-बड़ी चिमनियों से निकलता धुंआ पहाड़ी पर जमा धुंध से एकाकार हो रहा था। इस नज़ारे को रुककर देखना ही होगा। हम गाड़ी से बाहर निकल आए हैं, हवा में हरियाली की मिठास घुली है और दूर-दूर तक कैनवस देखकर किसी विदेशी भूमि पर होने का भ्रम होना स्वाभाविक है। घाटी के दोनों तरफ अभी धान की हरियाली टिकी है, आसमान में बादल हैं कि तरह-तरह की बतरस में उलझना-उलझाना चाहते हैं और एक यह पागल मन है जो आकाश में उड़ते-तिरते कपासी गुच्छों को देखकर बदहवास हुआ जाता है

भारत से बर्मा और उससे आगे दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों की सरहदों को सड़क मार्ग से पार करने का ख्वाब इस बेकाबू मन ने पिरो लिया है। आज उसी की पहली कड़ी पर दौड़ पड़ा है।
घाटी पीछे छूट गई थी और पहाड़ी घुमावदार रास्तों की अठखेलियां बढ़ने लगी थीं। हवा कुछ ठंडी हो आयी थी और रही-सही कसर बारिश ने पूरी कर दी थी। एक स्वेटर-शॉल होता तो मज़ा आ जाता, लेकिन हम तो इम्फाल का तापमान 20 डिग्री देखकर सूती कपड़ों में चले आए थे। यह भी नहीं सोचा कि पहाड़ी रास्ते के सफर में मौसम कभी भी शरारत पर उतर सकता है। इस बीच, हमारी गाड़ी का इंजन भी घर्राने लगा है और यह इस बात का इशारा है कि ऊंचाई लगातार ऊंची उठ रही है। कुहासे की एक जो पतली झालर अभी तक दूर पहाड़ी पर टंगी थी अब घनी हो चली है और सड़क पर हमें घेरने की तैयारी में है। लग रहा है बादलों को चीरते ही जाना होगा। बारिश, धुंध और बादलों का यह षडयंत्र जैसे काफी नहीं था, बारिश भी बढ़ती जा रही है। इम्फाल से लगभग 38 किलोमीटर दूर ऊंचाई पर बसे तिंगनोपाल गांव की सरहद में ऐसा स्वागत होगा सोचा नहीं था, ठंड से किटकिटी बंधी देखकर ड्राइवर ने दिलासा दिया कि बस कुछ ही देर में हम ठंड के इस इलाके से निकल जाएंगे, आगे मोरेह में मौसम गरम मिलेगा।
सुनसान, बियाबान इन सरहदी सड़कों पर अब चौकसी भी बढ़ गई है, असम राइफल्स के जवान अपने तिरपालनुमा रेनकोट में सड़कों पर जगह-जगह तैनात हैं, वाहनों को रोक-रोककर पूछताछ का सिलसिला बारिश के बावजूद थमा नहीं है। सूरज न निकले न सही, डेढ़ फुटी टॉर्च की रोशनी में वाहनों की जांच चल रही है। पूरे साल भर तिंगनोपाल में यही हाल रहता है। आगे उतरान है और लोकचाओ ब्रिज पर से गुजरते हुए याद आया कि पत्थरों पर से अठखेलियां करता हुआ लोकचाओ का पानी बर्मा चला जाता है। कुछ दूरी पर खुदिंगथाबी चेकपोस्ट है और उसे पार करने के बाद म्यांमार की काबा घाटी का खूबसूरत नज़ारा मन मोह लेता है।

यह वही काबा घाटी है जो कभी मणिपुर के कब्जे में थी और आज भी कई राष्ट्रवादी मणिपुरी इसे मणिपुर का हिस्सा ही मानते हैं। यहां उतरकर कुछ यादगार पलों को स्मृतियों और डिवाइसों में कैद कर लेने का ख्याल बुरा नहीं है। कुछ दूरी पर मोरेह का टिनटोंग बाज़ार है और सड़क पर रौनक बयान है कि यह इलाका मणिपुर का कितना प्रमुख कमर्शियल हब है।

मोरेह मैतेई, नेपाली, सिख, बंगाली, मारवाड़ी, तमिल, बिहारी से लेकर कुकी, नागा सरीखी नस्लीय आबादी का गढ़ है और शायद ही किसी धर्म का धार्मिक स्थल होगा जो यहां नहीं है! मोरेह की हद पार कर हम बर्मा की गलियों में घुस गए हैं, फ्रैंडशिप ब्रिज के उस पार बसे बर्मा की फितरत बदली-बदली सी है, हवाओं में नमी है, बारिश बस अभी होकर गुजरी है यहां से। अमूमन अक्टूबर तक बारिश लौट जाती है अपने देश लेकिन इस बार महीने के अंत तक अटककर रह गई थी। सोया-खोया सा, कुछ गीला-गीला-सा यह बर्मी कस्बा दिन के दो बजे भी ऊंघ रहा था।

कुछ आगे बढ़ने पर तामू की दुकानों से घिर गए हैं हम। शॉपिंग का इरादा तो नहीं था लेकिन बांस की बनी टोकरियों, टोपियों और पता नहीं किस-किसने मन पर जैसे डोरे डाल दिए हैं। माण्डले में बनी छोटी-बड़ी यही कोई चार-पांच टोकरियां और थाइलैंड से आयी एक हिप्पीनुमा हैट अब मेरी हो चुकी है। नुक्कड़ वाली पान की दुकान पर खूबसूरत मुस्कुराहटों की ओट में एक बर्मी युवती पान बनाने में मशगूल है, यों उसके कत्थई रंग में रंगे दांतों को देखकर लगता नहीं कि वो कुछ बेच भी पाती होगी ! यहां भी बाजार पर औरतों का कब्जा है, ज्यादातर वे ही दुकानदार हैं और खरीदार भी। एक तरफ खिलखिलाहटों की चौसर बिछी दिखी तो मेरे कदम उधर ही उठ गए। यहां लूडो की बिसात सजी है, सोलह साल की युवती से लेकर सत्तर बरस की अम्मा तक गोटियां सरकाने में मशगूल है, पान की लाली ने हरेक के होंठ सजा रखे हैं। बाजार मंदा है और समय को आगे ठेलने के लिए लूडो से बेहतर क्या हो सकता है!
अपनी ही धुन में खोया-खोया सा दिखा तामू। दो रोज़ पहले एक बम विस्फोट से सहमने के बाद अब ढर्रे पर लौटने की जुगत में है यह कस्बा। हालांकि बाजार नरम था, खरीदारों की चहल-पहल शुरू नहीं हुई थी, सो हमने एक-एक दुकान पर खरीदारी कम और गपशप ज्यादा की और वो भी एक ऐसी जुबान में जो शब्दविहीन थी। इशारा भी कुछ “इवॉल्व्ड” भाषा लगी क्योंकि हमारा सारा कारोबार सिर्फ मुस्कुराहटों के सहारे बढ़ा था।
नज़दीक ही पैगोडा है, वहां भी मुस्कुराहटों का खेल जारी था। बर्मी युवतियां अपनी बिंदास मुस्कुराहटों को छिपाने की कोशिश भी नहीं कर रहीं।
इस बीच, घड़ी ने तकाज़ा सुना दिया। हम रुकने के इरादे से नहीं आए थे तामू, वापस इम्फाल लौटना है आज ही, यानी करीब तीन-साढ़े तीन घंटे का वापसी सफर करना है। पूर्वोत्तर में दोपहरी में दो-ढाई बजते ही सूरज बाबा लौटने की तैयारी करने लगते हैं, चार बजते-बजते तो शाम एकदम गहरा जाती है और पांच बजे तक अंधेरा पूरी कनात टांग देता है। हमारे सामने पूरब के इस सूरज की आखिरी रोशनी के सिमटने से पहले पहाड़ी रास्तों को पार कर लेने की चुनौती है। हमारा ड्राइवर नदारद था, रिमझिम बारिश में भीगना बुरा तो नहीं लग रहा था लेकिन वापसी का लंबा सफर सोचकर बूंदा-बांदी से बचना भी जरूरी था। सामने से टिंबा लौटता दिखा, मुंह-हाथ झाड़ता-पौंछता मस्ती में चला आ रहा था और हमें इंतज़ार में देखकर सॉरी-सॉरी की धुन उसकी जुबान पर जैसे अटक गई थी। “वो मैडम जी, थोड़ी भूख लगी थी न इसीलिए कुछ खाने चला गया था। मकड़ा स्नैक मिला, 20 रु में 15 मोटे ताजे करारे मकड़े। बहुत स्वाद थे ……. ” म क ड़ा ……. वो भी कोई खाने की चीज़ हुई भला ……. हमारी हैरानगी देखकर उसकी हंसी फूट पड़ी है। “हां, मैडम जी, स्वाद स्नैक होता है मकड़ा, बस हल्का-सा भूना, नमक मिर्च मिलाया और मजेदार स्नैक तैयार ……. ।” हम अब कुछ नहीं खाएंगे यहां, वेजीटेरियन मन को समझा लिया है और एक बार फिर फ्रैंडशिप ब्रिज को पार कर मणिपुर के चांदेल जिले में लौट आए हैं। सीमा पर वाहनों का एक पूरा कारवां खड़ा है, जांच की रस्मो-अदायगी है, असम राइफल्स के जवान हैं जो एक-एक वाहनों की पड़ताल कर रहे हैं। उधर, सूरज की किरणों का कोण तेजी से नीचे झुकता जा रहा है, मन कुछ सहमा है कि कहीं अंधेरा घिरने से पहले चांदेल की हद से गुजरकर पालेल तक नहीं पहुंचे तो ? अंधेरा, पहाड़ी सड़क और उन पर दौड़ते वाहनों का गणित कभी-कभी दिनभर की घुमक्कड़ी को बड़े ही खुरदुरे धरातल पर ला पटकता है, कहीं आज ऐसा ही तो नहीं होने जा रहा ?
नीली पहाड़ियों के कंधों पर अंधेरे की सवारी लग चुकी है, चांदेल की पहाड़ी सड़कें बहुत ऊंचाई पर तो नहीं हैं, अलबत्ता घुमावदार काफी हैं और ऐसे-ऐसे गड्ढों से पटी पड़ी हैं कि चांद भी लजा जाए। बहरहाल, हमने फर्राटा दौड़ में समय को हरा दिया उस दिन …..
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