सफर में रहने का सिलसिला जारी है और देश के दूर-दराज के ठिकाने मेरी ‘बकेट लिस्ट’ को लगातार बड़ी और भारी बना रहे हैं। इस साल के शुरू प्रयाग में महाकुंभ में डुबकी क्या लगायी जैसे आस्था का साल शुरू हुआ। अगले दो महीने में ही कैलास मानसरोवर का बुलावा हाथ में आ गया। भारत का विदेश मंत्रालय इस महायात्रा का आयोजन हर साल करता है, लॉटरी से नाम निकाला जाता है, जाहिर है इस ड्रॉ में इस बार हम भी भाग्यशाली साबित हुए। और तैयारियों का एक लंबा अभियान अप्रैल 13 में ही शुरू हो गया। लंबी सैर, थोड़ी जिम बाजी भी और नियंत्रित खान-पान के साठ दिन पूरे होते-होते भरोसा हो गया था कि तिब्बत तक कैलास-मानसरोवर की कठिन, जी हां, हर मायने में न सिर्फ कठिन बल्कि बेहद चुनौतीपूर्ण लेकिन संसार की सबसे महान यात्राओं में से एक के यात्री हम बन सकते हैं। और तभी जैसे इरादों पर विश्राम लगा … उत्तराखंड में तबाही का मंज़र फैल गया, एकाएक सारे तीर्थ जैसे हमसे रूठ गए …. चार धाम यात्रा बंद हो गई और कैलास यात्रा का मार्ग भी प्रभावित होने के चलते इस यात्रा को इस बरस रोक दिया गया। केवल पहला बैच ही सौभाग्यशाली रहा, यात्रा सफलतापूर्वक पूरी कर आए, हम 11वें बैच के यात्री, आंखों में कैलास और मानस के दर्शन की आस लिए सिर्फ तरसते हर गए।
उत्तराखंड में ही एक और हिमालयी कुंभ – नंदा जात यात्रा भी इसी भाद्रपद में होनी है इस बार, पूरे बारह बरस बाद यह कुंभ गढ़वाल का संभवत: सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन है। लेकिन अनिश्चितता के बादल अभी छंटे नहीं है। पता नहीं हमारे हिस्से इस यात्रा का प्रसाद आएगा…
बहरहाल, प्राकृतिक विनाश के इन परिणामों ने बेलगाम पर्यटन से हांफते हिमालय की पीड़ा को उभारा है। और हम महसूस कर रहे हैं पहाड़ों के छलनी हुए सीने पर जगह-जगह दर्ज ‘’प्रलय’’ की इबारत को। इस तकलीफ ने याद दिलाया कि 2013 ”आस्था का साल” (Year Of faith) बन सकता था, बशर्ते हमारे लालच बीते वर्षों में कुछ कम होते, प्रकृति के प्रति हमारे अपराध कुछ हल्के रहे होते और हमारी जरूरतें सुरसा का मुंह न बनी होतीं। इस पीड़ा के अहसास के साथ हिमालयी तीरथ के बारे में जो कुछ महसूस किया उसे आपके लिए बयान कर रही हूं। सफरनामा नहीं है यह, अलबत्ता, कुछ सफर जो नहीं हो सके उनकी पीड़ा से उपजा जरूर है।
हो सकता है आपको बहुत कुछ पुरानी सोच से प्रभावित लगे, लेकिन क्या पुराने, पारंपरिक ढर्रे से सोच लेना गलत होता है ? जरूरी नहीं, ऐसा मेरा मानना है। और अगर हिमराज को बचाने की खातिर हम कुछ पुरातन, पिछड़े बन भी जाएं तो कोई मलाल नहीं …
इसे विडंबना ही कहेंगे कि इस साल 16-17 जून की रात केदार घाटी समेत उत्तराखंड के कई जिलों में नदियां कहर बरपा रही थी और उसके ठीक दो रोज़ बाद ही केंद्रीय पर्यटन मंत्रालय ने हिमालयी क्षेत्रों में सैर-सपाटे को बढ़ावा देने के लिए एक नया अभियान ‘777 डेज़ ऑफ द इंडियन हिमालयाज़ ’ शुरू करने की घोषणा की। यानी एक तरफ हिमालयी भूमि की कराह थी और दूसरी ओर उसे पूरी तरह अनसुना कर पूरी दुनिया के सैलानियों को हिमालय आने का न्योता हम भेज रहे थे। तो क्या टूरिज़्म और पर्यावरण के फलसफे धुर विरोधी हो गए हैं या फिर दोनों के बीच कहीं कोई तालमेल बरतते हुए रास्ता निकाला जा सकता है ?
सैलानियों के बढ़ते कदम और बिज़नेस की रेल-पेल से डगमगाया तंत्र
पिछले 12 साल में उत्तराखंड में पर्यटन लगभग 168 फीसदी बढ़ा है और राज्य के जीडीपी में इसका योगदान 27 प्रतिशत यानी करीब साढ़े छब्बीस करोड़ तक पहुंच गया है जिससे साफ है कि राज्य की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा सैलानी जुटाते हैं। और इस बेरोकटोक पर्यटन ने पर्यावरण को कितना कुरूप बना दिया है, यह किसी से छिपा नहीं है। कभी साठ के दशक में बदरीनाथ की जो यात्रा साठ-सत्तर दिनों में लोग पूरी किया करते थे (तब संभवत: मोटरमार्ग न होने की वजह से कोटद्वार या ऋषिकेश से पैदल इस धाम तक जाया जाता था) उसे जैसे धता बताते हुए पूरी चार धाम यात्रा को अब टूर ऑपरेटर आठ-नौ दिनों में निपटा देते हैं। 2008 में उत्तराखंड पुलिस ने चार धाम यात्रा को दस दिनों में पूरा करने का नियम बनाया था जिसके पीछे तर्क यही था कि लोग धीमी रफ्तार से हिमालयी क्षेत्र में आगे बढ़ें और ड्राइवरों को भी सुस्ताने और नींद लेने का भरपूर वक्त मिले। लेकिन शहरों से ‘वीकेन्ड गेटवे’ और ‘पैकेज टूर’ का सबक सीखकर आया टूरिस्ट पहाड़ में आकर भी सहज नहीं हो पाता। वो खुद भागा-दौड़ा आता है और ड्राइवर को साथ लिए अपनी बड़ी-बड़ी एसयूवी भी भगाता फिरता है। और लालची टूर ऑपरेटर उसकी इस ख्वाहिश को झटपट पूरी करने में जुट जाते हैं क्योंकि इस सरपट तीर्थयात्री से उन्हें दाम खरा-खरा मिलता है और महीने में एकाध फालतू ट्रिप लगाने का मौका भी हाथ आता है।
लालच के इस गणित ने आज समूचे हिमालयी क्षेत्रों में विस्फोटक पर्यटन की एक भयावह तस्वीर खड़ी कर दी है। बीते वर्षों में उत्तराखंड जैसे राज्य की सड़कों पर ही सैंकड़ों नहीं बल्कि लाखों यात्री बेराकटोक उमड़ते रहे हैं, टूरिज़्म की इस आंधी ने स्थानीय आबादी को बेशक तात्कालिक तौर पर बहुत सहारा दिया और दूर-दराज तक के गांवों के लोगों को सीज़न में रोज़गार के ऐसे अवसर दिए जिनके चलते वे चार-पांच महीनों में ही पूरे सालभर की कमाई कर लिया करते थे। फौरी विकास का यह सुर-ताल सभी के हित में था, टूर ऑपरेटर को उसका मुनाफा साल-दर-साल बढ़कर मिल रहा था, स्थानीय बाशिन्दों को भी यात्रियों के लिए रेनकोट-छतरी बेचने से लेकर ढाबे-रेस्टॉरेन्ट और होटलों के जरिए अच्छी कमाई सुहाने लगी थी। तीर्थयात्राओं के मार्गों पर कमजोर, लाचार और वृद्ध यात्रियों को घोड़ों-खच्चरों, कंडियों, पालकियों पर ढोकर ले जाने वाले भी इस बहती गंगा में हाथ धो रहे थे। लेकिन इस भागमभाग और यात्रियों के रेले के बीच यहां के नाजुक पहाड़ों ने बरसों पहले दम तोड़ना शुरू कर दिया।
देवभूमि में हमें कितना धर्म करना है और कितना अधर्म, इसका कोई पैमाना बेशक नहीं है लेकिन बीते वक्त की प्राकृतिक दुर्घटनाओं ने दो टूक जरूर बता दिया है कि राज्य में विकास और धरम-करम के नाम पर जो कारोबार फैला है उसके नतीजे आगे और भी भयानक होने वाले हैं। इस साल जून में केदारनाथ में मानसून की मनमानी के वक्त उस दुर्गम ऊंचाई पर हजारों तीर्थयात्रियों का फंसा होना इस बात का बयान है कि हम या तो तीरथ के मायने गलत लगा रहे हैं या मास टूरिज्म को धार्मिक पर्यटन से जोड़ने की भारी भूल कर रहे हैं। सच्चाई चाहे जो हो, अब समय आ गया है अपनी भूल सुधारने का। उत्तराखंड से लेकर हिमाचल, कश्मीर तक के संवेदी हिमालयी इलाकों में विकास के मुहावरे वो नहीं हो सकते जो मैदानों में आम हैं, और इसी तरह इन क्षेत्रों में पर्यटन का वही गणित सही नहीं ठहरता जो देश के दूसरे भागों में चलता है।
लेकिन हम लगातार भूलते रहे कि तीर्थयात्राओं का जोड़-घटा बड़े पैमाने पर होने वाले टूरिज़्म से एकदम फर्क होता है। आम टूरिस्ट को जहां सुख-सुविधाओं की दरकार होती है वहीं तीर्थयात्री बहुत थोड़े में काम चलाता है। तीरथ की भावना भी यही है कि शारीरिक कष्ट भोगते हुए पावन स्थलों की यात्रा कुछ इस प्रकार से हो कि रास्ते भर अपने आपको जानने, अपने मन को पहचानने का अवसर मिले और ईश्वर से साक्षात्कार के लिए फुरसत और समय भी। इस तरह, वह पर्यावरण को कम-से-कम प्रभावित करते हुए इन स्थलों की पिछले कई बरसों से यात्रा करता आया है। उत्तराखंड में बदरीनाथ-केदारनाथ हो या यमुनोत्री-गंगोत्री जैसे धाम, उन तक आने-जाने के पारंपरिक मार्ग नदियों-पहाड़ों के किनारों से होते हुए गुजरा करते थे और गिने-चुने तीर्थयात्रियों की आवाजाही उनके मूल स्वरूप को नष्ट नहीं होने देती थी।
इसके उलट, मॉडर्न तीर्थयात्री को तो अपने चुने हुए धर्मस्थल के द्वार तक पहुंचाने वाली पक्की सड़क चाहिए। और स्थानीय प्रशासन भी आनन-फानन में जो सड़कें बनाता आया है उनसे पहाड़ों का भारी नुकसान ही हुआ है। कंज्यूमर टूरिज़्म ने सड़कों के किनारे बसावट बढ़ायी है और सड़कें भी नदियों से सटकर गुजरने लगी हैं। ऐसे में जब कोई आपदा आती है, जैसा कि पिछले दिनों हुआ तो, ये घर और दुकानें बह जाती हैं।
हाल में दायर आरटीआई के जरिए यह खुलासा हुआ है कि अकेले उत्तराखंड में ही पिछले पांच साल में 20 हजार किलोग्राम डायनामाइट और 10 हजार डेटोनेटर का इस्तेमाल किया गया है। कहीं सुरंगों को खोदने के लिए पहाड़ों के सीनों को डायनामाइट से छलनी किया गया तो कहीं नदियों को पुलों, बांधों की हदों में बांधने की कवायद ने भी पहाड़ों में असंतुलन बढ़ाया। भूस्खलन और चट्टानें खिसकने की घटनाएं लगातार बढ़ती गई हैं। उस पर सड़क निर्माण में भी पूरी लापरवाही बरती गई, न ढलानों का ख्याल रखा गया और न ही जल निकासी की परवाह किसी ने की। हां, इस बीच महानगरीय और विदेशी टूरिस्ट की मांग का ख्याल रखते हुए केदार घाटी में भी हेलिकॉप्टर पहुंचा दिए गए। तमाम प्राइवेट कंपनियों के मशीनी पंछी अब इन संकरी घाटियों में हुंकार भरते देखे जा सकते हैं। कुछ साल पहले तक ज्यादातर तीर्थयात्री सिर्फ बदरीनाथ और यमुनोत्री पहुंचा करते थे क्योंकि सिर्फ यहां तक ही मोटर गाड़ी पहुंचती थी, लेकिन इधर केदारनाथ और गंगोत्री जैसे दुर्गम तीर्थ भी अछूते नहीं रह गए हैं। और तो और, लगभग 15 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित हेमकुंड साहिब तक भी जहां कुछ दशक पहले तक सिर्फ 5-6 हजार श्रद्धालु ही पहुंचते थे अब वहां हर साल 5-6 लाख यात्रियों का कारवां पहुंच जाता है। दरअसल, फूलों की घाटी तक पहुंचने वाले प्रकृति प्रेमी और रोमांच पसंद ट्रैकर एक और मंजिल को छू लेने की हसरत को पूरा करने की खातिर इस धर्मस्थल तक भी चले आते हैं। और ऐसे में इन दोनों दुर्गम स्थलों के बेस कैंप यानी गोविंदघाट का नज़ारा पीक सीज़न में किसी शहरी बस अड्डे से कोई अलग नहीं रह जाता। शहरों से ऊबा हुआ यात्री हमारे खूबसूरत मगर कमजोर पहाड़ों पर भारी निशानदेही करता चलता है।
जर्मन पर्यावरणविद कैरिन जोधा फिशर, जो बीते कई बरसों से कश्मीर घाटी को अपना घर बना चुकी हैं, कहती हैं कि पर्यटन को बढ़ावा देने की अंधी दौड़ में बीते सालों में सरकारों ने जैसे यह भुला ही दिया है कि हिमालयी प्रकृति इस बेतरतीब विकास से दरक रही है। फिशर कहती हैं हमें पहाड़ों में होटलों के अंधाधुंध निर्माण की बजाय होम स्टे जैसी योजनाओं को बढ़ावा देना चाहिए, ऐसा कर स्थानीय अर्थव्यवस्था को सहारा मिलेगा और सैलानियों को भी स्थानीय संस्कृति की झलक करीब से देखने को नहीं मिलेगी।
उत्तराखंड की सरजमीं पर पले-बढ़े स्थानीय पत्रकार जय सिंह रावत कहते हैं कि इको-टूरिज़्म, रूरल टूरिज़्म, कल्चरल टूरिज़्म, रिलीजियस टूरिज़्म जैसी श्रेणियों को मास टूरिज़्म समझने की भूल हमें नहीं करनी है। इसी तरह एडवेंचर गतिविधियों के नाम पर हमें पहाड़ों में बड़े-बड़े स्टेडियम या मैदान नहीं खड़े करने हैं, उन स्थानों पर प्रकृति ने जो जुटाया है उसी के सहारे एडवेंचर टूरिस्ट की दरकार पूरी करनी है। वे कहते हैं कभी पीक सीज़न में, यानी मानसून शुरू होने से पहले तक, बदरीनाथ में अधिकतम 12-14 हजार और केदारनाथ में हद-बे-हद 4-5 हजार तीर्थयात्री ही पहुंचा करते थे लेकिन आज यातायात क्रांति और पर्यटन विस्फोट के चलते केदारनाथ जैसे दुर्गम तीर्थ तक ही सीज़न में 5 लाख तक यात्री पहुंचने लगे हैं। नवंबर में कपाट बंद होने तक इनकी संख्या कितनी होती होगी यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। और सावन में कांवड़ लाने वाले श्रद्धालुओं की हिम्मत तो देखिए कि जो कभी हरिद्वार-ऋषिकेश से जल लेकर लौट जाते थे वो बीते कई वर्षों से गंगोत्री और यहां तक कि अब तो सीधे गोमुख से गंगा जल लाने की जिद पूरी करने लगे हैं। रावत कहते हैं, हमारे पहाड़ों की सहनशक्ति अब जवाब दे चुकी है, वो जब-तक दरकने लगे हैं, नदियों में मलबा और गाद जमा होने से उनका पानी आए दिन अपनी हदें तोड़ने लगा है और अक्सर बादल फटने या सामान्य से कहीं ज्यादा बारिश से भी हिमालयी इलाकों में कहर बरपा होना धीरे-धीरे आम होता जा रहा है।
तीर्थयात्रा को पर्यटन समझने की भूल से बचना होगा
पिछले कुछ दशकों के बेलगाम विकास और पर्यटन की आक्रामक नीतियों ने पहाड़ों की कमर तोड़ दी है। लेकिन इसके बावजूद क्या हमने बीती आपदाओं से कोई सबक लिया है ? अब सवाल उठता है कि क्या तीर्थयात्रियों की आवाजाही को नियंत्रित करना होगा, या फिर देवभूमि जैसे संवेदी क्षेत्रों में यात्राओं पर कोई टैक्स लगाना होगा ताकि बेहिसाब यात्रियों के काफिले यहां न पहुंचे ? ऐसे में यह भी देखना होगा कि इस वसूली से वो आम यात्री प्रभावित न हो जिसके पास कई बार सिर्फ तन पर कपड़ा और दो वक्त पेट भरने का सामान होता है। सरकारें इस बात को लेकर दुविधा में हैं कि एक तरफ धार्मिक यात्राओं पर रियायत दी जाती है तो क्या ऐसे में तीर्थयात्रियों से पंजीकरण शुल्क वसूलने की बात लोगों के गले उतरेगी या पर्यावरण को नुकसान पहुंचने पर दंड की व्यवस्था कारगर साबित होगी।
पर्यावरणवादी कबसे कहते आ रहे हैं कि चार धाम तीर्थयात्रा का गणित नए सिरे से गढ़ने की जरूरत है ताकि इन पावन स्थलों की मूल आत्मा बची रहे और पर्यटन के रटे-रटाए समीकरण को भी पलटा जा सके। एक मांग यह भी उठी कि चार धाम यात्रा को भी उसी तरह से नियंत्रित किया जाए जिस प्रकार सरकार कैलास मानसरोवर और अमरनाथ यात्राओं का संचालन करती है। इसी तरह, दुर्गम पहाड़ों में तीर्थ की आकांक्षा रखने वाले लोगों की चिकित्सा जांच अनिवार्य की जाए। इस साल केदारनाथ में हुई त्रासदी के बाद ऐसे कई मामले सामने आए जब यह पाया गया कि बेहद निर्बल और अक्षम किस्म के यात्री भी वहां थे, जो इस तरह की आपातकालीन परिस्थितियों में राहत कार्यों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनते हैं। मगर जिस देश में तीर्थ जीवनशैली का हिस्सा हो, और जहां धार्मिक स्थलों का सफर एक बड़ी आबादी के लिए जीवन की जड़ता को तोड़ने और मनोरंजन का एकमात्र साधन हो, क्या वहां इस तरह की रोक-टोक व्यवहार्य होगी ? तिब्बत में कैलास तीर्थ पर जाने वाले यात्रियों की संख्या हर साल बमुश्किल साढ़े सात सौ होती है और ऐसे में उन्हें नियंत्रित करना, यात्रियों की संख्या का रिकार्ड रखना तथा अत्यंत दुर्गम इलाकों में कई किलोमीटर की ट्रैकिंग के चलते कड़े चिकित्सा परीक्षणों से यात्रियों को गुजारना संभव है। कश्मीर में वैष्णो देवी ट्रस्ट की देखरेख में होने वाली तीर्थयात्रा, बेहद नियंत्रित है और इसी तरह अमरनाथ यात्रा का ताना-बाना भी पिछले कुछ बरसों में काफी कसा गया है। हालांकि अमरनाथ गुफा में लाखों तीर्थयात्रियों के पहुंचने से शिवलिंग के समय से पहले पिघलने, पहलगाम में लिद्दर नदी के छटपटाने, स्थानीय लोगों के लिए पेयजल का संकट खड़ा होने जैसी खबरों को ज्यादा समय तक अनसुना करने की कीमत बहुत भारी साबित हो सकती है और देर-सबेर उत्तराखंड त्रासदी की गूंज यहां भी दोहरायी जाएगी।
यात्रियों के रहने-ठहरने के लिए होटलों-रेस्टॉरेन्टों के अंधाधुंध निर्माण पर रोक लगानी होगी, और इनकी जगह स्थानीय वास्तुशिल्प से तैयार आवासों को बढ़ावा देना एक विकल्प हो सकता है। इससे दो फायदे होंगे, एक तो स्थानीय तौर पर उपलब्ध सामग्री का इस्तेमाल किया जाएगा, जैसे पत्थरों और स्लेटों की छतों वाली इकाइयों और धर्मशालाओं आदि को बढ़ावा मिलेगा। दूसरे, दूर-दराज से सीमेंट, बजरी, क्रंक्रीट को पहाड़ों के सीनों तक ढोकर लाने वाले वाहनों की संख्या घटेगी। साथ ही, तीर्थयात्रियों को भी अपनी मानसिकता बदलनी होगी, उन्हें यह समझना होगा कि वे लग्ज़री टूरिज़्म पर नहीं निकले हैं जहां वे हर वक्त फ्लशयुक्त टॉयलेट और डीटीएच सेवाओं का उपभोग कर सकते हैं। तीर्थ स्थलों पर जाना पिकनिक मनाने जैसा नहीं होता और न ही ये स्थल हनीमूनर्स की सैरगाह होते हैं, इन पावन स्थलों की पवित्रता और गरिमा को सुरक्षित रखना होगा, तभी हिमालय के बर्फीले पहाड़ रहेंगे और तभी बचेंगे हम। वरना जैसा कि सुप्रसिद्ध गांधीवादी विचारक और पर्यावरणविद अनुपम मिश्र कहते हैं कि हिमालय में प्रलय के शिलालेख तैयार हैं, बस हम ही उन्हें पढ़ने से चूक रहे हैं।