कश्मीर के सफर को जन्नती सफर का दर्जा मिलता आया है, लेकिन हैरत तो देखिए कि इधर हम जवान हुए, इस जन्नत को देखने के काबिल बने तो इसने अपने दरवाजे बाहरी लोगों के लिए बंद कर लिए। पूरे बाइस साल मैंने इस सफर पर निकलने का ख्वाब अपनी आंखों में सजाए रखा, कश्मीर ने इस बीच करवट ली और शेष दुनिया के सहमे कदम उस मंजिल की तरफ बढ़ चले जो बीते बरसों धुंध में सिमटी रही थी।
नई दिल्ली से श्रीनगर अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे तक पहुंचने में मुश्किल से दो घंटे लगे और घाटी में उतरते हुए मैं सोच रही थी कि इस जन्नत तक पहुंचने की मानसिक दूरी कितनी ज्यादा है।
कश्मीर शायद इकलौता ऐसा राज्य है जिसका जिक्र जबान पर हो तो एक वक्त में जज़्बात कई कई रंग बदलते हैं। एक पूरी पीढ़ी हाउसबोटों वाले राज्य के रूप में कश्मीर को पहचानती आयी है, केसर, बादाम और सेब-चिनार के दरख़्तों वाली उस संगमरी ज़मीन के तौर पर इसे देखा है हमने जिसने सालों तक रूठे रहकर सैलानियों से आखिकार अब्बा कर ही ली !
कश्मीर के हैं रंग हजार। और इन्हीं रंगों को देखने के लिए पूरे साल भर कश्मीर सैलानियों को बुलाता है। बेशक, मैदानी भागों से पर्यटक गर्मियों में इस जन्नत का रूख करते हैं, लेकिन कश्मीर का असली रंग देखना हो तो सर्दियों में वहां जाना चाहिए। दिसंबर-जनवरी से फरवरी-मार्च तक बर्फीली सफेदी में लिपटे कश्मीर की खूबसूरती किसी लजाती दुल्हन की तरह होती है, उसका अनछुआ रूप दुनियाभर के पर्यटकों को बखूबी यह अहसास करा देता है कि
अगर फिरदौस बर रू-ए जमीन अस्त
हमी अस्त ओ-हमी अस्त ओ-हमी अस्त
यानी, अगर जन्नत कहीं है, तो यहीं है, यहीं है, यहीं है …

कश्मीर में आम टूरिस्ट सोनमर्ग-गुलमर्ग-पहलगांव-श्रीनगर के रटे-रटाए टूरिस्ट सर्किट पर ही चक्कर काटता रहता है। हालांकि इससे ज्यादा कुछ देखने में मशक्कत बहुत है क्योंकि यहां का पूरा ताना-बाना बीते सालों फैली रही अफरातफरी में कराहकर कभी का तहस-नहस हो गया है। लेकिन इसी जमीं पर शरीफाबाद से बांदीपुरा, बारामुला से अनंतनाग और दर्दपोरा (दर्द का गांव) जैसे नाम हैरत में डालते हैं। श्रीनगर में हज़रतबल दरगाह और शंकराचार्य पहाड़ी पर पांडवकालीन शंकराचार्य मंदिर या फिर कुछ दूर खीर भवानी मंदिर की खीर का स्वाद जब जीभ पर से हटने लगे तो राज्यभर में दूर-दराज तक के गुमनाम कोनों में फैले हुए, लगभग हेरिटेज में बदल चुके मंदिरों, मस्जिदों, मज़ारों और मीनारों का दीदार टूरिज़्म का एक नया फलसफा दे जाता है।

सोनमर्ग यानी meadows of gold श्रीनगर से करीब डेढ़ घंटे की दूरी पर है, रास्ते में सिंधु दरिया की मस्ती है, हिलोरें हैं तो कहीं घाटियों-वादियों में जिंदगी की सरसराहट है। लगता है जैसे सफर में नहीं हैं हम, गुनगुना रहे हैं कोई नगमा और दूरियां नाप रहे हैं हमारे बदन। कुदरत संग हो इतने हसीन अंदाज़ में तो पूरी कायनात अपनी-सी लगती है। और एकाएक सिहरन में डाल देता है ये खयाल कि हम कश्मीर में हैं। कश्मीर याद दिलाना नहीं भूलता कि उसने बरसों तक हमसे कट्टी रखी है। इसकी सूनी-सी वादी के किसी दरख्त के पीछे एक हलचल दिखी। यूनीफार्म में एलर्ट जवान से हमारी आंखे चार हुई और पूरे माहौल का रोमांस कहीं छिटक गया। चप्पे-चप्पे पर निगहबान इन जवानों ने हमें हमारी जन्नत तो लौटायी मगर एक सर्द अहसास भी बनाए रखा है कि हिंदुस्तान के इस ताज को संभालकर रखने की कीमत आसान नहीं है। सीने में एक दर्द उभर आया तभी ..

हमने थाजियावास ग्लेशियर तक के ट्रेकिंग रूट को पकड़ लिया है, आज नेचर से गुफ्तगू करेंगे सोचा है, और हमारे हौंसलों ने पंख फैला लिए। इस रूट पर दूसरे सैलानी घुड़सवार हैं, कुछ हमें देखकर हैरां हैं, कुछ परेशान। अक्सर टूरिस्टों के पास टूरिज़्म का एक बंधा-बंधाया मुहावरा होता है, लेक दिखी तो बोटिंग और ट्रेकिंग मार्ग दिखा तो घोड़े, पिट्ठू या खच्चर की सवारी। और एक हम हैं अजीबो-गरीब मिट्टी से तैयार, झील दिखी तो उसमें उतरकर योग-मुद्राएं और ट्रेकिंग की बारीक-सी पगडंडी दिखी नहीं कि उस पर बढ़ चले। और देखो रास्ते में इन कश्मीरी भेड़ों ने कैसा समां बांधा।

हर अगला कदम थका रहा था, और हर नज़ारा उस थकान को जज़्ब कर रहा था। कुदरत भी अच्छा गणित कर लेती है। इस बीच, भूख और प्यास से कदम लड़खड़ाने लगे हैं, ग्लेशियर है कि सिर्फ झलक दिखलाकर चुप हो गया है। पूरा दीदार हो तो मंजिल हाथ आए। हर मोड़ पर सामने से लौटते सहयात्रियों से पूछ रहे हैं – ‘कितना और ?’ हरेक के जवाब में बारीक अंतर को तोल रहे हैं हम, और फिर एक नौजवान के शब्दों ने हौंसला दिया – ‘इट्स ऑल वर्थ इट’। एक और मोड़, फिर वहीं लंबा संकरा, पथरीला रास्ता, फिसलन ने कहीं कहीं जोखिम बढ़ा दिया है। और हमेशा की तरह जोखिम ने रोमांच को और चटख बना डाला है।

ग्लेशियर के मुहाने पर जैसे मिनी-कुंभ लगा है। थकेहाल जानवर एक कोने में सिमटे हैं, दूसरी तरफ मैगी और मीठी चाय की खुश्बू फैली है। हर कोई ताक रहा है उबलते भगोनों में अकड़ ढीली कर रही मैगी की तरफ। केतली के मुंह से धुंआ उगल रही चाय से गला तर करने की बेचैनी हरेक के चेहरे पर फैली है। और इस लजीज़ लंच की यादों को चुपचाप सीने में दबाकर हम फिर उसी 4 किलोमीटर लंबे रास्ते को पकड़ चुके थे जिसने हमें यहां पहुंचाया था।
बादलों ने इस बीच, अपना मौनव्रत तोड़ दिया है। सूरज भी ऐसे ही किसी बादल की ओट में दुबक गया है और एक सिहरन फिर महसूस हुई। अलबत्ता, इस सिहरन और उस सिहरन में फर्क था जो हमें पहले महसूस हुई थी।
कायदे से मुझे ये पोस्ट नहीं पढ़नी चाहिए थी…जो पता होता कि आप इतना सुंदर लिखती हैं, तो नहीं पढ़ता कि अब अपनी इस उलझन का क्या करूँ जो निर्णय नहीं ले पा रहा कि ये पोस्ट ज्यादा खूबसूरत है या कश्मीर ! सच्ची !
विगत पंद्रह साल का सैन्य-काल अपने ग्यारह साल कश्मीर में लिवा ले गया है और जबतक वर्तमान टेनयोर सम्पन्न होगा ये तेरह हो जाएगा…कश्मीर से इश्क़ है मुझे| …और आपकी ये लेखनी इस इश्क़ को और और ऊनचाई दे रही है |
शुक्रिया ब्लौग तक लाने के लिए |
कश्मीर से इश्क करते हो तो यह छोटा सा ट्रैवल पीस कहां न्याय कर पाएगा उस विराट खूबसूरती से जो आपके ज़ेहन में इन बरसों में जमा हो चुकी है। फिर भी अच्छा लगा आपको, यह जानकर इस घूमन्तू मन को भी सब्र हुआ है।