अजमेर तक का रास्ता नापना कभी भी मुश्किल नहीं लगता। अलबत्ता, उस शहर की गलियों को छोड़कर लौटते हुए मन ने हमेशा कहा है कि फिर बुलाना, जल्दी बुलाना। इंसानी फितरत है दुआ करना, वो पूरी कितनी होती है, किसकी होती है, पता नहीं . . . लेकिन फिर भी आदतन हम दुआ करते हैं। मन्नतों के सिलसिले, दुआओं के सफर और शुक्राना अदा करने की आदत लोगों को अक्सर अजमेर शरीफ ले जाती है। बरसों से ये सिलसिला जारी है और दूर-दराज से आए आम जन की भीड़ के बीच सेलीब्रेटी जायरीन तक अजमेर की गलियों में अक्सर दिख जाते हैं। हमने इस 22 अप्रैल, 2012 को गरीब नवाज के दरबार में हाजिरी बजायी तो अभी हवाओं में जिक्र था करीब दो हफ्ते पहले ही वहां आए पाकिस्तान के राष्ट्रपति और बेनजीर भुट्टो के शौहर आसिफ अली जरदारी की दरगाह में हाजिरी का। वे शुक्राना अदा करने आए थे या शायद कोई मन्नत मांगने ये तो वे ही जानें, और जाते-जाते ऐलान कर गए 1 मिलियन डॉलर की रकम दरगाह के लिए दान करने की। हम नाचीज़ जब 13वीं सदी के सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के सजदे में सिरे झुका रहे थे तो ऐसे किसी ऐलान से बेपरवाह मगर इस ख्याल से खुशियों से लबालब थे कि आज फिर कदम वहां पहुंचे जहां पहुंचना हमारे बस की बात नहीं होती।

पुरानी दिल्ली से दोपहर बाद आश्रम एक्सप्रेस में सवार हुए थे और पटरी पर दौड़ती रेलगाड़ी के संगीत को सुनते सुनाते रात 10 बजे अजमेर स्टेशन पर उतर गए। राजस्थान के हर स्टेशन का आर्किटैक्चर मुझे हमेशा से लुभाता रहा है, इसलिए बाहर आते ही पहले नन्हे-से उस स्टेशन की इमारत को जी-भरकर देखा। पुरानी दिल्ली स्टेशन की मार-धाड़ से बहुत दूर खड़े इस स्टेशन पर सुकून के पल हमने जिए। फिर ऑटो से अपने होटल की तरफ बढ़ चले। चार-पांच मिनट में हम अपने होटल में थे, मेरे साथ न्यू इंडियन एक्सप्रेस की एक जर्नलिस्ट और उसके दो डॉक्टर दोस्त भी थे। वे तीनों कमरे देखने में लगे थे और मैं होटल मैनेजर से दरगाह जाने के रास्ते के बारे में पूछ रही थी। उस रोज़ रात बहुत लंबी लगी मुझे।

गरीब नवाज़ और अजमेर जैसे एक-दूसरे का पर्याय बन गए हैं। बीते सालों में इस शहर में तीसरी दफा कदम रख रही थी और याद आ रहा था वो दिन जब पहली बार यहां आयी थी। दरगाह में सिर झुकाने की ख्वाहिश लेकर सपरिवार हम अजमेर की गलियों में फिरते रहे थे, सजदे की रवायतों से एकदम अनजान थे। मगर ख्वाजा ने जैसे सब कुछ सहज बना दिया। मुझे याद है सबकी देखा-देखी मन्नत का एक धागा भी बांधा था, ये अलग बात है मांगने को न उस रोज कुछ था और न आज!
अलबत्ता, जयपुर से दरगाह तक का वो सफर बड़ा अजीबोगरीब था।
बाड़मेर से लगती पाकिस्तानी सीमा पर हिंदुस्तानी फौज का जमावड़ा लगातार बढ़ता जा रहा था। जयपुर-अजमेर हाइवे पर जियारत करने वालों की बजाय शहादत देने वालों के नजारे पहली बार देख रही थी। हम ”ऑपरेशन पराक्रम” के कारवां के साथ दौड़ रहे थे। 1971 में पाकिस्तान के साथ जंग के बाद दोनों देशों की सेनाएं पहली बार इस तरह एक-दूसरे के आमने-सामने जमा हुई थीं। फौजियों से लदे-फदे सेना के ऊंचे, कद्दावर ट्रक हमारे हमसफर बन गए थे। और हमारी नन्ही हैचबैच सड़क पर किसी टॉय कार की तरह दिख रही थी। अजमेर शरीफ से हमें बुलावा मिला था पिछली रात और सवेरे 8 बजे उस दरबार की तरफ बढ़ चले। रास्ते भर ख्वाजा साहब की यादों, उनसे मुलाकातों और यूं एकाएक भेजे बुलावे पर उलझने का मन था लेकिन हुआ एकदम उल्टा। हमारे आगे-पीछे से गुजर रहे नौजवान सैनिकों के हंसते-मुस्कुराते चेहरों तो कभी थकान को जी-भरकर छिपाने की कोशिशों में जुटे फौजियों से बिन बोले संवाद में मसरूफ रहे रास्ते भर और कब मंजिल आ गई, पता ही नहीं चला।

अजमेर की गलियों का जिक्र कई सूफी कव्वालियों में सुन चुके थे और उस रोज वो हमारे सामने थीं। दोनों तरफ शहर भर को अपने में समेटती चली जा रही नालियों से घिरी गली कब अगला ही मोड़ काटने के बाद और भी संकरी हो जाती, ये हैरानी का विषय तो था लेकिन हम अभी हलकान नहीं हुए थे उनसे। आस्था में आकंठ डूबने का एक बड़ा फायदा है कि इंसानी जिंदगी की तमाम मुश्किलें बौनी हो जाती हैं। शायद जायरीनों के मन में ऐसे भाव खुद-ब-खुद चले आते हैं। हम भी गलियों को लांघते, कभी नालियों को टापते तो कभी किसी और गंदगी से बचते-बचाते हुए दरगाह की तरफ बढ़ते जो रहे थे।
हाल में बिग बी भी दरगाह शरीफ पहुंचे, सुना वे चालीस बरस पहले मांगी मन्नत का धागा खोलकर गए हैं इस बार। ऐसी कितनी ही हस्तियां अजमेर की गलियों में आए दिन पहुंचती हैं। उसकी दरो-दीवारें चुपचाप हर किसी को बुलाती रहती हैं। नंगे बदन, भूखे पेट, हलकान शरीर, आंखों में अजीब सी कशिश लिए जाने कितने ही लोग दरगाह की तरफ हर रोज बढ़ते हैं, और उनके साथ-साथ कभी कोई राजनीतिक होता है, कभी कोई एक्टर, क्रिकेटर या बिजनसमैन। ख्वाजा का दरबार हर किसी को पनाह देता आ रहा है।
