नील द्वीप
अंडमान से 38 किलोमीटर पूर्वोत्तर में चुपचाप दम साधे खड़े नील द्वीप को जैसे वक्त ने भुला दिया है। यहां जिंदगी थमी-थमी, खर्रामा-खर्रामा सी दिखती है। इस टापू के सिरे नापने के लिए ऑटो के सिवाय कुछ भी नहीं है, हां समन्दर के नीचे चले जाएं तो शायद दूसरी दुनिया के सिरे तक पहुंचकर भी हैरानगी खत्म नहीं होगी!
पोर्टब्लेयर की फिनिक्स बे जेटी पर हैवलॉक के लिए टिकट खरीदते समय कानों में नील आइलैंड का नाम किसी कोने से पड़ा तो आदतऩ मेरे कान खड़े हो गए। देखा ज्यादातर सैलानी और लोकल यात्री हैवलॉक की फेरी की तरफ़ बढ़ गए मगर कुछ विदेशी टूरिस्टों ने नील की राह पकड़ी। हम अपनी जेब में हैवलॉक की टिकट लिए अपनी मंजिल की तरफ बढ़ तो गए मगर बराबर नील को याद रखा। सफर पर निकलते हैं तो अक्सर ऐसी दुविधाओं से आमना-सामना होता है, एक पैर स्वर्ग में होता है और दूसरी जन्नत कहीं दूर भी दिखायी देने लगती है! हैवलॉक के स्वर्गिक राधानगर बीच पर ढलती शाम के नज़ारों को अपनी यादों में कैद कर लेने के बाद अगले दिन हम अब अंडमान के ही एक और खूबसूरत मगर कम विख्यात द्वीप नील की तरफ बढ़ चले थे । हैवलॉक से एम वी रानी लक्ष्मी बोट नील होते हुए पोर्टब्लेयर जाती है, नील में कोई टिकट काउंटर नहीं है, लिहाजा जेटी पर आकर थोड़ा पहले ही लाइन में लगना बेहतर होता है और बोट पर ही टिकट खरीदनी होती है। उमस और धूप में इंतजार करते हमारे थके बदन को दूर से आती बोट का हॉर्न भी मीठे संगीत की तरह लगा था और करीब डेढ़ घंटे के सफर के बाद हम नील आइलैंड उतर रहे थे। कुल जमा डेढ़ सौ रु का टिकट खरीदकर हम अंडमान के ऐसे हिस्से में पहुंच चुके थे जिसके ओर-छोर महज़ डेढ़ दो घंटे में नापे जा सकते थे, बमुश्किल 19 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस द्वीप की अधिकतम चौड़ाई शायद 5 किलोमीटर होगी । जेटी से उतरते ही हमने नील के मेन बाजार में धावा बोल दिया, इस नन्हे से बाजार में लोकल लोगों और टूरिस्टों की जरूरत का जैसे हर सामान बिखरा हुआ था। अगर आप अपने साथ टिश्यू, सन ब्लॉक, टैल्कम, छाता, टूथपेस्ट, ब्रश यानी कि रोज-बरोज़ की जरूरत का कुछ भी सामान लाना भूल गए हैं तो फिक्र की कोई बात नहीं है, जेटी से सीधे इस मार्केट पहुंचिए, जो खरीदना हो खरीदें और फिर साउथ इंडियन, नॉर्थ इंडियन, इस्राइली, जर्मन यानी जो भी पसंद हो वो नाश्ता-भोजन यहां बेहद सस्ते में उपलब्ध है।

गोवा के समुद्रतट अपनी मस्ती और सुरूर के लिए जाने जाते हैं लेकिन नील में ऐसा कुछ भी नहीं है, न दारू, न मस्ती, न शैक, न गाना-बजाना और न ही टूरिस्टी ताम-झाम। फिर भी इस आइलैंड पर कुछ है जो विदेशी सैलानियों को बरसों से आकर्षित करता आया है। मार्केट से बाहर निकलते ही एक डीसेन्ट डाक बंगला टाइप सैरगाह दिखती है, ये अंडमान सरकार के नियंत्रण वाला ‘हॉर्नबिल नैस्ट’ है, हम बिना एडवांस बुकिंग के इस टापू में चले आए हैं, सोचा था इस नामालूम सी जगह पर कौन आता होगा। लेकिन यहां आकर यह मुगालता भी दूर हो गया क्योंकि हॉर्नबिल में कोई कमरा तो क्या डॉरमिटरी भी खाली नहीं थी। बहरहाल, हमने एक बार फिर टुक टुक की सवारी पकड़ ली है और उसी के जिम्मे रिहाइश का बंदोबस्त डाल दिया है। पहले किंगफिशर में पहुंचे जिसे देखते ही मन ने सिरे से नकार दिया, सोचा टापू में आकर भी उसी शहरी मिजाज़ के कमरों में रात बितायी तो लानत है। बहरहाल, पांच-सात मिनट की दौड़ भाग के बाद हम कोकोन हट में थे। नारियल के लंबे पेड़ों से घिरे इस रेसोर्ट ने एक ही नज़र में हमारा मन मोह लिया था। उस पर यहां-वहां गिरे हरे, ताजे नारियल देखकर मन भी फिसल चुका था। यानी कि नील में हमारा ठिकाना अब तय हो गया। नारियल पानी से प्यास बुझाएंगे और इसी रेसोर्ट के आंगन में खड़े लैगून को निहारते हुए अब अगले कुछ घंटे सुकून से बीतेंगे।
अंडमान जैसे सुदूर पूर्व के इलाकों में सैर-सपाटे पर आने का एक बड़ा फायदा ये होता है कि यहां दिन ज़रा जल्दी उग आता है, हमारे टुक टुक चालक ने अगली सुबह साढ़े चार बजे तैयार रहने को कहा, क्योंकि धुर पूरब में सीतापुर बीच पर जाकर सूर्योदय का नज़ारा देखने के लिए सवेरे 5 बजे का वक्त ही उचित है, और हमारे ठिकाने से इस ठिकाने तक पहुंचने में 20-25 मिनट लगेंगे। अगली सुबह लगा जैसे सड़क पर बस हम हैं और हमारी शान से दौड़ती शाही सवारी। इस बार भी मुगालता टूट गया बस दो ही मिनट बाद। दरअसल, कल जिस मार्केट में जर्मन-इस्राइली व्यंजनों का लुत्फ लिया था उसी के बाहर सड़क पर सब्जियों की जैसे पूरी मंडी बिछी थी। नील बेशक नन्हा सा टापू है, लेकिन पूरे अंडमान के रसोर्ईघरों के लिए सब्जियां यहीं उगायी जाती हैं। किसी कोने में मछलियों की दुकान सजी है तो कहीं शाक-सब्जी का अंबार लगा है। हमारा टुक टुक हवा से बातें कर रहा है। दूरदर्शन का टावर, सोलर पैनल, आकाशवाणी का दफ्तर …. जाने जाने क्या क्या तेजी से गुजरता जा रहा है। सब पुराने दौर की परते हैं, जो यहां जैसे कोल्ड स्टोरेज में सुरक्षित हैं। वक्त के बीतने, पलों के गुजरने का जैसे किसी पर कोई फर्क नहीं पड़ता यहां।
सड़क के दोनों तरफ गांव हैं, खेत हैं, केले, नारियल और आम के दरख्तों की बहार है। सुबह सवेरे की हवा ने रौंगटे खड़े कर दिए हैं, लेकिन आसमान पर जमे बादलों के टुकड़ों ने हमें चिंता में डाला दिया है। क्या सूर्यदेव के दर्शन आज होंगे ?

सीतापुर के तट पर हमारी सवारी लग चुकी थी। दूर तक सिर्फ समुद्री लकीर दिखायी देती है, किनारे पर हमारे सिवाय एक और जोड़ा है।
बादलों से हमने शिकायत दर्ज करा दी है। उन्हें आज लौट जाना चाहिए। सूरज की पहली किरणों को धरती पर दस्तक देते हुए देखने हम हजारों किलोमीटर का फासला तय कर यहां पहुंचे हैं, और वही आज हमारे नसीब में नहीं है शायद। टकटकी लगी है क्षितिज पर, बादलों ने सूर्योदय का नज़ारा निगल लिया है लेकिन उगते सूरज ने आसमान पर हर तरफ लालिमा बिखरा दी है, और हम उसे ही आंखों में बटोर रहे हैं।

इस शांत तट से लौटने की नीयत नहीं है, लेकिन नील पर ऐसे कितने ही नज़ारे बिखरे हैं जिन्हें दिनभर हमें स्मृतियों में उतारना है। सो सीतापुर की रेत पर अपनी निशानियां छोड़कर हम लौट चले।

दोपहर उतरने से पहले हमें समन्दर के दूसरी तरफ पहुंचना है, वहां नैचुरल ब्रिज है और लो टाइड के चलते समन्दर अपने पूरे राज जैसे यहां उगल जाता है। समन्दर का पानी यहां से उतरते ही मैरीन लाइफ की जैसे प्रदर्शनी लग जाती है।

नील ने अपने सीने में अभी और भी बहुत से हैरतंगेज़ अनुभवों को छिपा रखा है। वॉटर स्पोर्ट्स के लिए ये टापू हैवलॉक को भी पीछे छोड़ देता है। स्नॉर्कलिंग के लिए समन्दर में उतरते ही एक नई दुनिया में थी मैं। मैरीन लाइफ को पहली बार इतने करीब से देख रही थी, और भूल गई थी कि पानी के अंदर की दुनिया से मिल रही हूं। बाहर मेरी दुनिया है, इसका अहसास भी कहीं खो चुका था।

नील में पहली शाम लक्ष्मणपुर तट पर बिताने आए हैं, वक्त ने खुद-ब-खुद न्याय कर दिया, आज सूर्योदय न सही मगर एक शानदार सूर्यास्त हमने साक्षात देखा। इस तट पर रौनक भी है, देसी कम, विदेशी टूरिस्ट ज्यादा हैं। एक बंगला भी बना है, जो हैरत में डाल रहा है। पता चला, कुछ रोज़ पहले एक फिल्मी पार्टी ने यहां शूटिंग के दौरान इसे खड़ा किया था, अब नील पंचायत ने इसे अपने कब्जे में ले लिया है। लेकिन फिलहाल इसकी देखरेखा का कोई इरादा नहीं दिखायी दिया, लगता है अगली बार यहां आएंगे तो यह भूतिया बंगला बन चुका है। नील टापू की ही तरह वक्त की परत इस बंगले को भी एक नया रंग दे चुकी होगी।

अब स्कूबा का हुनर सीखना था। हमने बीच नंबर 1 पर इंडिया स्कूबा एक्सप्लोरर (http://www.indiascubaexplorers.com, मोबाइल : 9474238646) की सेवाएं ली हैं। अगली सुबह स्कूबा के नाम हो गई।

नील में दिल छोड़ आए हैं अपना, जल्द लौटना है इस वायदे के साथ वापस पोर्टब्लेयर की फेरी में सवार हैं।