सफरनामा

कल राजधानी थिंपू को अलविदा कहा और एक के बाद एक वादियों को टापते-लांघते, पहाड़ों के घुमावदार रास्तों पर बार-बार चढ़ते-उतरते हुए करीब 5 घंटे का सफर पूरा कर शाम 6 बजे फ्युंशलिंग लगे। पहाड़ी रास्तों पर कोस्टर बस में सफर का यह पहला अनुभव था, जो सहज और सुखद बीता। हिंदुस्तानी आदतों के चलते हम दोपहर साढ़े बारह की बस पकड़ने के लिए साढ़े ग्यारह बजे ही बस अड्डे पहुंच गए थे। आम आतंकित भारतीय सैलानी शहरों की दूरियों और ट्रैफिक जाम के अपने अनुभवों से इतनी सीख ले चुका होता है कि भूटान जैसे देश में भी भागता-दौड़ता फिरता है। अब कुल-जमा दस दिनों के प्रवास में उसकी फितरत बदले भी तो कैसे?
थिंपू में भारतीय सेना के ऑफिसर्स मैस (इमट्राट- IMTRAT) से बस अड्डे तक का सफर हमारी टैक्सी ने 5 मिनट में पूरा कर लिया। ड्राइवर ने बेहद सलीके से हमारा सामान उतारा और हमने साठ न्यूल्ट्रम (1 Nm = Rs 1 ) का भुगतान कर उसका आभार जताया। बस अड्डा एकदम वीरान तो नहीं था, मगर वो नज़ारा भी वहां नहीं था जो हमारी दिल्ली के कश्मीरी गेट बस अड्डे पर आम है। अहाते में एक विशाल प्रेयर व्हील लगा है और यहां तक कि भूटानी परिवहन कंपनियों के नाम भी बौद्ध धर्म के शुभ प्रतीकों पर ही रखे गए हैं। धुग ट्रांसपोर्ट की कोस्टर बस हमें ठीक उसी जगह खड़ी मिली जहां दो दिन पहले टिकट बुक कराते समय हमें बताया गया था कि निर्धारित समय पर बस मिलेगी। हमारी बस का स्मार्ट ड्राइवर दिखने में किसी हीरो से कम नहीं था। गोरा बदन, सजीला घो, स्टाइलिश बाल और काले चश्मे ने उसकी पर्सनैल्टी में निखार ला दिया था। अगर ड्राइवर की सीट पर नहीं बैठा होता तो मैं उसे शायद कोई सैलानी ही समझती, या फिर भूटानी एक्टर!!!
बस में 18-20 यात्री सवार हो चुके थे और अपने निर्धारित समय से दस मिनट बाद ही बस मतवाली चाल से अपनी मंजिल की तरफ बढ़ चली।
थिंपू से फ्युंशलिंग तक 172 किलोमीटर की घुमावदार सड़कें, कहीं बादलों से नहाए तो कहीं आसमान की बुलंदियों को छूते पहाड़, किसी कोने से छलांग लगाते शरारती झरने तो किसी मोड़ मुड़ते ही सामने टंगे इंद्रधनुष से नहाए दृश्य की बदौलत यह पूरा रास्ता शायद दुनिया के सबसे खूबसूरत पहाड़ी सड़क मार्गों की फेहरिस्त में शामिल किया जा सकता है।
थिंपू से चोजुम (पारो और थिंपू नदियों का संगम स्थल) तक करीब 31 किलोमीटर का सफर जैसे आंख मूंदते ही बीत गया। भूटानी समाज नदियों के संगम को अशुभ मानता है, लिहाजा इस जगह पर तीन छॉरतेन बना दिए गए हैं। जो भी अशुभ है, अपवित्र है, अमंगल है, उसके दुष्प्रभावों को इन पवित्र संरचनाओं से मिटाने की कितनी सरल कोशिश है इस आस्थावान समाज के पास! ठीक यहीं सड़क तीन दिशाओं में मुड़ जाती है, एक थिंपू से आती है, दूसरी पारो की ओर और तीसरी हा घाटी की तरफ बढ़ जाती है। बस ने मोड़ काटा और हम थिंपू द्वार से बाहर निकल आए। पारो और थिंपू आने वाले सैलानियों के स्वागत को आतुर द्वार को देखकर हमने उस देश को अलविदा कहा जिसने हमने सुकून से जीने का मुहावरा दिया था पिछले दिनों!
अगला मुकाम चुखा है जहां हमारे परमिट देखे गए। इमीग्रेशन अधिकारी ने उन पर ’डिपार्टेड थिंपू‘ की मुहर चस्पां कर दी। अब फ्युंशलिंग से जरा पहले आखिरी चेकपोस्ट पर ये कागजात जमा हो जाएंगे।
मन आज उतना उत्साहित नहीं है जितना थिंपू जाते वक्त था, उस वक्त यही चेकपोस्ट हमारा हौंसला बढ़ा रही थी। एक ही सड़क, एक ही ठिकाना मगर मनःस्थिति में पूरे 180 डिग्री का अंतर। दिस इज़ लाइफ!
हम अपनी मंजिल से अभी लगभग 50 किलोमीटर पीछे हैं। पहाड़ों की चोटियों पर जो बादल दिन से जमा थे अब मौका पाकर वादियों में उतर आए हैं और कुछ आवारा टुकड़े हमारी बस के इर्द-गिर्द जमा हो गए हैं। दिल की धड़कन रुकने को है क्योंकि सामने की सड़क पर अब धुंधलापन बढ़ गया है। मगर ड्राइवर जो हर मोड़ से वाकिफ है, अपनी उसी रफ्तार को कायम रखे हुए है। बाप रे, ये पहाड़ी ड्राइवर और इनका हुनर! कभी-कभी तो मन इन्हें सचमुच सलाम करने को करता है। मैंने दम साध रखा है मगर दिल का एक कोना थिरक भी रहा है। अगर विज्ञान के पास कोई सिद्धांत होता तो संभवतः मेरी इस स्थिति को Duality of heart नाम दिया जाता – एक आतंकित और दूसरा रोमांचित!
बादलों की धमा-चौकड़ी बढ़ती ही जा रही है। मेरी अगली सीट पर एक बौद्ध भिक्षु बैठा है जो थिंपू से ही कान में हैडफोन ठूंसे हुए आया है। उसके मरून चोगे की किसी जेब में मोबाइल है, हाथ में रोज़री का झोला और चेहरे पर नूर बेइंतहा। बादलों की शैतानियां देखने के लिए उसने खिड़की खोल ली है और उचक-उचककर बाहर का नज़ारा अपनी छोटी-छोटी आंखों में कैद कर रहा है। इस बीच, बस ने एक मोड़ लिया और जैसे पूरा कैनवस ही बदल गया। अब एक बार फिर घाटियां, बुरांश के ऊंचे शिखर, फर्न की बड़ी-बड़ी शाखें और यहां तक कि पत्थरों पर हवा-पानी से खिंची लकीरें सब साफ हो आयी हैं। बस ने ब्रेक लगायी और सड़क किनारे खड़ी हो गई। मैंने झटपट अपने बैग में परमिट की तलाश शुरू कर दी, लेकिन समझते देर नहीं लगी कि वहां कोई चैकपोस्ट थी ही नहीं। दरअसल, हमारे ड्राइवर ने सड़क किनारे सजे मिनी मार्केट से अपनी रसोई के लिए खरीदारी के वास्ते बस रोकी थी। एस्पैरेगस की कुछ टहनियां, याक के पनीर की गोल-गोल बट्टियों से भरा एक पैकेट और कुछ साग, यही आज उसका सौदा था। तीन-चार लकड़ी की मेजों पर ये बिक्री का सामान जमा है। उन मेजों के पीछे खड़ी भूटानी युवतियों से खरीदारी और चुहलबाजी का नज़ारा हमारी भी थकान का अहसास कम कर रहा है। मुस्कुराते चेहरे अब ठठा रहे थे। हर लड़की चहककर सौदे में जुटी है, जो छूट गई है वो क्रोशिया चलाने में पहले की तरह ही मस्त है, अलबत्ता हंसी की एक लंबी लकीर उसके भी होंठों से गालों तक खिंची पड़ी है। हरे, नीले, जामुनी रंग के उनके कीरों से मैचिंग जैकेटें भी जैसे पूरे माहौल की मस्ती के अनुरूप हैं। एक-दो नन्हे-मुन्ने बच्चे भी आसपास खेल रहे हैं। भूटानी समाज बच्चों और बूढ़ों का खास ख्याल रखता है और औरतों ने घर की दुनिया के बाहर भी दबदबा बना रखा है। अतिरिक्त आय की खातिर वे घरों में बुनाई करती हैं और दुकानें, स्टॉल लगाने से लेकर रेस्टॉरेंट खोलने में भी पीछे नहीं हैं। थिंपू में लगभग हर दूसरी दुकान, चाहे वो हैंडीक्राफ्ट की हो या ग्रॉसरी की, भूटानी औरतें ही चला रही हैं। स्मार्ट, फैशनेबल, फुर्तीली ये युवतियां हिंदी-अंग्रेज़ी में ग्राहकों से जमकर बारगेनिंग करती हैं। और थिंपू से फ्युंशलिंग के हाइवे पर भी वे छायी हैं। जाते हुए इसी रास्ते पर हमने शरू में ही फलों से सजी मेजों को देखकर अपनी टैक्सी रुकवायी थी। दरअसल, हमें नीचे ही समझा दिया गया था कि फलों की खरीदारी जितनी जल्द हो सके कर लेनी चाहिए, क्योंकि फिर जिस तेजी से ऊंचाई बढ़ती है, उससे कहीं तेज रफ्तार से इनकी कीमतें चढ़ जाती हैं।
अब तक हम काफी नीचे उतर आए हैं, हवा में ठंडक की अकड़ ढीली पड़ चुकी है। बराबर की सड़क पर प्रार्थना ध्वजों की रंग-बिरंगी कतार एक बार फिर दिखायी दी है। हवा की फरफराहट के साथ प्रार्थनाओं को देवों तक पहुंचाने वाले ये पचरंगे ध्वज भूटान के लैंडस्केप में सबसे प्रमुखता से छाए हैं। भूटान में हर तरफ पहाड़ों की घेराबंदी है, और हर पहाड़ पर, उसकी दुर्गम, खतरनाक बुलंदियों तक पर प्रार्थना ध्वजों की मौन उपस्थिति आपके आध्यात्मिक अंतरमन से सीधा संवाद करती है। अब हम खरबंदी ज़ॉन्ग के पास से गुजर रहे हैं।
इस मार्ग पर शायद अंतिम ज़ॉन्ग है ये, हमारे भी होंठो पर प्रार्थना मंत्र तैर आए हैं। भूटान में इतने दिन गुजारकर हम भी कुछ सहज होना सीखे हैं, कुछ बुद्ध हुए हैं, पूरे न सही, कुछ अंष भर भी अगर ऐसा हुआ है तो सार्थक है हमारा भूटान रिट्रीट!
30 मई, 2012
गोवाहाटी-आनंद विहार, नॉर्थ ईस्ट एक्सप्रेस में.. शाम 6.40 बजे
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